
आयुर्वेद से पर्यावरण संतुलन
पर्यावरण का आयुर्वेद के साथ निकट संबंध है। यह कहना अप्रसांगिक नहीं होगा, क्योंकि सभी वनस्पतियों की (पेड़-पौधे) अपने-अपने धर्मों (रस, गुण, वीर्य, विषांक, प्रभाव) के कारण अपनी अलग-अलग पहचान और महत्त्व है। देश की भूमि और जलवायु से सभी पेड़-पौधों का सीधा संबंध है। ये सब मिलकर वातावरण में प्रदूषण को दूर करते हैं और प्रकृति को निर्मल एवं संतुलित बनाते हैं। इस वनस्पति का क्या गुणधर्म है और किस व्याधि के निराकरण या समूल नाश करने को वह समर्थ है, इसका विशद वर्णन आयुर्वेद में देखने को मिलता है। अत: यदि आयुर्वेद शास्त्र में वर्णित वनस्पतियों के गुण धर्म के आधार पर पेड़-पौधे के महत्त्व को समझकर उनके संवर्धन एवं संरक्षण के लिए उपाय किया जाता है तो निश्चय ही इसके प्रदूषण दूर करने तथा पर्यावरण एवं प्रकृति संतुलन को बनाए रखने में सहायता मिलेगी। आजकल पर्यावरण प्रदूषण रोकने के लिए सभी सरकारों द्वारा काफी धन व्यय किया जा रहा है। फिर भी विशेष सफलता प्राप्त नहीं हो रही है। यह सफलता मात्र हमारी वनौषधि से मिलने की संभावना है। समुचित संरक्षण के अभाव में विभिन्न वनौषधियों का धीरे-धीरे लोप होता जा रहा है और हम जाने-अनजाने में अपनी बहुमूल्य संपदा को खोते जा रहे हैं। इससे सर्वाधिक हानि आयुर्वेद की हुई है। पेड़-पौधे इसी प्रकार आयुर्वेद के पूरक है जिस प्रकार अग्नि, जल और वायु हमारे शरीर के पूरक या जीवन निर्वाह के लिए जरूरी है जिनमें विषनाशक एवं कीटाणुनाशक शक्ति है। ऐसे पेड़-पौधों का चार प्रकार से वर्गीकरण करके उसको लगाकर संरक्षण कर सकते हैं।
(क) पहाड़ी स्थानों पर – देवदारू, चीड़, भोजपत्र।
(ख) बागों में – चमेली।
(ग) सड़कों के किनारे – अशोक, शिरीष, अर्जुन।
(घ) घरों में – तुलसी, पुदीना।
वनौषधियों को घर के आस-पास उगाने से पर्यावरण की शुद्घि संभव है। सदा हरियाली देने वाले आम, बकुल, तुलसी, पीपल के वृक्ष वातावरण को शुद्घ करने में सहायता करते हैं। यह वृक्ष प्राणवायु (ऑक्सीजन) को उत्सर्जित करते हैं जो जीवन के लिए अत्यंत जरूरी घटक है। देवदारू, नीम और सरसों का नियमित धूपन से घरों में मच्छर और अन्य कीट को नाश करने में सहायता करते हैं। जल के शुद्घि के लिए निर्मली और शिरीष बीज का उपयोग किया जाता है।
प्राथमिक स्वास्थ्य शिक्षा का अभाव होना भी एक पर्यावरण दूषित करने के लिए सहायक कारण माना जा सकता है, क्योंकि स्वास्थ्य प्राप्ति के लिए विशिष्टï दिनचर्या, ऋतुचर्या सद्वृत्त के लिए अत्यंत जरूरी है, क्योंकि आयुर्वेद में तीन प्रमुख इच्छाओं का वर्णन आया हुआ है। (प्राणेषणा, धनैषणा तथा परलोकेषणा) इसके लिए दिनचर्या, एवं ऋतुचर्या में दैनिक तथा मौसम के अनुसार विशेष प्रकार के आहार-विहार का प्रयोग करने से उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति की जा सकती है। आयुर्वेद में वर्णित स्वास्थ्य वृत के सिद्घांत ही हमारे देश के लिए उपयुक्त है और इसके लिए पर्यावरण का संतुलन होना जरूरी है। इन सिद्घांतों का प्रचार-प्रसार होना चाहिए।
वर्तमान में तीव्र गति से फैल रहे वायुमंडलीय, जलीय आदि के प्रदूषण ने न केवल देश के अपितु समस्त विश्व के सार्वजनिक स्वास्थ्य को बहुत अधिक प्रभावित किया है जिसके फलस्वरूप अनेक प्रकार की नई-नई व्याधियां पैदा हुई है। इस समस्या ने देश-विदेश के पर्यावरणविदों, सामाजिक समस्याओं से जुड़े हुए बुद्घिजीवियों, वैज्ञानिकों, राजनीतिज्ञों एवं अर्थशास्त्रियों का ज्ञान आकृष्ट किया है। यदि देश में यह आधार समाप्त हो गया, जैसा कि धीरे-धीरे हमारी वनसंपदा और अनेक प्रकार की बहुमूल्य वनस्पतियों या उनकी जातियां नष्ट या लुप्त होती जा रही हैं, तो संपूर्ण आयुर्वेद लड़खड़ा जाएगा। वनों में उगने वाले पेड़-पौधे एवं वनस्पतियों का सीधा संबंध एक तरफ पर्यावरण संरक्षण या प्रकृति संतुलन से तो दूसरी तरफ आयुर्वेद से है वर्तमान युग में आयुर्वेद चिकित्सा पूरे विश्व में प्रचलित हो रही है।
इससे औषधि प्राप्त होगी ही और पर्यावरण में वायु प्रदूषण को भी रोका जाएगा। दूसरा दिनचर्या, ऋतुचर्या, सदाचार, सद्वृत, स्वास्थ्य संरक्षण के नियम, आहार-विहार के नियम यदि प्रारंभिक शिक्षा के रूप में राज्याश्रित से प्रचार और प्रसार किया जाए, तो जल प्रदूषण भी रोकने में सहायक होने की संभावना है। इस प्रकार पर्यावरण की समस्या के समाधान के लिए आयुर्वेद सहयोगी हो सकता है।
आयुर्वेद से रोग निवारण
आयुर्वेद में विभिन्न वनौषधियों का वर्णन है जिनका प्रयोग नियमित रूप से करने से विभिन्न घातक संक्रमण रोगों से बचाव हो सकता है। यथा-नीम की कोमल पत्तियों के रस का शहद के साथ प्रयोग करने से विषाणुजन्य रोगों से प्रतिरक्षण होता है। तुलसी और कालीमिर्च का दैनिक प्रयोग गले की विभिन्न संक्रमण रोगों से बचाव करता है। इसी प्रकार आंवला, बला, मजिठा, गुडुची आदि का प्रयोग सामान्य रोग प्रतिरोध क्षमता की वृद्घि करता है। उदाहरण- ज्वर में गुडुची, तुलसी, नीम आदि। श्वास-कास में वासा, यष्टमधु, आमलकि। बाला तिसार में अतिस, लवंग, जायफल, नागर मोथा आदि।

उपर्युक्त उपयोग अनेक रोगों के प्रतिषेध रूप में तथा रोग की प्रारंभिक अवस्थाओं में प्रयोग करके सुख और स्वस्थ रहकर शतायु हो सकते हैं। यह प्रारंभिक स्वास्थ्य वर्तमान की समस्या में सहायक हो सकती है।
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