​​प्राय: हम देखते हैं कि परिवार में जीविका चलाने वाले-पिता या पुत्र, या कभी-कभी माता या पुत्री-मानसिक व्यसन की प्रवृत्ति को दर्शाते हैं, क्योंकि उनकी ​​चेतना में है कि वे आदेश देने की स्थिति में हैं। परिवारों में ऐसे छोटे तानाशाहों को निर्दोष, भोले-भाले आश्रितों पर अपने मनोवृत्तियों को उन्मुक्त भाव से थोपना नहीं चाहिए, और इस प्रकार अपने आस-पास के लोगों का आन्तरिक सम्मान नहीं खो देना चाहिए। जब परिवार का तानाशाह सोचता है कि वह घर पर अपनी मनमानी चला सकता है, तो वह धीरे-धीरे घर के बाहर भी अप्रिय मनोवृत्तियों या बुरी आदतों को मनमाने ढंग से व्यक्त करने लगता है। अन्तत: वह ऐसा कहीं भी और कभी भी करता है। यदि परिवार के ये छोटे अत्याचारी दूसरों को दु:ख देने वाली इन बुरी आदतों में लिप्त रहने पर कोई रोक नहीं लगाते, तो अपरिपक्व रूप से व्यवहार करते हुए वे धीरे-धीरे मानसिक व्यसनी बन जाते हैं, और अपने निकट संबंधियों को, यहां तक कि कभी-कभार मिलने वालों को, और साथ ही स्वयं को भी असीम कष्ट पहुंचा बैठते हैं।

यदि आप मानसिक व्यसनी हैं, तो अपना उपचार करने का प्रयत्न करें; परन्तु इस बीच कम- से-कम आप दूसरों को संक्रमित या प्रभावित करने की चेष्टा न करें, क्योंकि इसमें चाहे आप सफल हों या न हों, आप सम्भवत: अपने लिए और मुश्किलें पैदा कर लेंगे। सोचिए कितना कोलाहल मच जाएगा यदि आपके शांत घर में कोई एक स्कंक  छोड़ दें, जहां आप शान्ति से ध्यान कर रहे थे या अंगीठी के पास पुस्तक पढ़ रहे थे। निस्संदेह आप और आपके आस-पास के लोग रकंक को बाहर निकालने का प्रयत्न करेंगे, और ऐसा करने में आपको उसके भीषण दुर्गन्धपूर्ण रसायनों में भीगना ही पड़ेगा। परिवार के लोगों एवं स्कंक, दोनों को कष्ट होगा।

इसलिए किसी मानवी-स्कंक के लिए किसी ऐसे वातावरण में जाना समझदारी नहीं है जहां उसे कोई पसंद न करता हो। वहां वह सभी के लिए परेशानी का कारण बन सकता है, और हो सकता है उसे अन्त में कठोर व्यवहार सहन करना पड़े। याद रखें कि एक मानवी-स्कंक, जो भयानक मनोवृत्तियों के मानसिक स्पन्दन रखता हो, और जिसके चेहरे पर यही झलकता भी हो, एक शान्त वातावरण में अपार हानि पहुंचाता है । ऐसा दो पैरों वाला प्राणी हर जगह नापसंद किया जाता है।

मानसिक व्यसन के वशीभूत होकर लोगों में इसके प्रभाव को प्रकट करने की अपेक्षा इसे छुपाना ही श्रेष्ठतर है। लगातार लज्जाहीन होकर इसमें लिप्त रहना वह भूमि है जिसमें जन्मपूर्व और जन्मोत्तर प्रवृत्तियां पनपती हैं। जिस व्यक्ति में जन्म के पहले से ही किसी मानसिक व्यसन की प्रवृत्ति हो, उसे दुगना सावधान रहना चाहिए कि वह ऐसे परिवेश में न रहे जो उसकी बुरी आदतों अथवा मनोवृत्तियों के अन्तर्जात मानसिक संस्कारों का पोषण करता हो। जब आप किसी ऐसे व्यक्ति से मिलते हैं जो आपसे औपचारिक व्यवहार करता है, और बनावटी मुस्कान के साथ कहता है, ‘आप कैसे हैं, मैं आपसे मिलकर बहुत प्रसन्न हुआ,’ जबकि भीतर में वह सोच रहा होता है, ‘मुझे परेशान करने के लिए तुम्हारा सिर धड़ से अलग करने में मुझे प्रसन्नता होगी,’ तब आप उसकी आन्तरिक भावना को भांप जाते हैं और आपको यह अच्छा नहीं लगता। स्वयं मुझे भी यह जानने में दिलचस्पी होती है कि लोग मेरे बारे में क्या सोचते हैं। मैं बनावटी व्यवहार की अपेक्षा स्पष्ट व्यवहार अधिक पसन्द करता हूं। कोई भी व्यक्ति मुस्कराहट रूपी गुलाब की झाड़ी के नीचे से कपट रूपी सांप के झपट ने का जोखिम उठाना पसन्द नहीं करता।

फिर भी, मानसिक व्यसनी के लिए अच्छा है कि वह लोगों के साथ मित्रता का व्यवहार करे, चाहे यह बनावटी ही हो, बजाय इसके कि वह उन पर अपनी बुरी मनोवृत्तियों को प्रकट कर दें। आत्मसंयम का दैनिक अभ्यास, चाहे कम महत्त्वपूर्ण विषयों में ही सही, मानसिक व्यसनी को धीरे-धीरे अपने मानसिक मतवालेपन की लिप्तता से बाहर निकलने में मदद करेगा।

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