प्र. क्या आपने नेटफ्लिक्स की ‘वाइल्ड-वाइल्ड कंट्री’ डॉक्यूमेंट्री देखी है? यदि हां तो आपकी इस पर क्या प्रतिक्रिया है?

उ. हां, मैंने देखी है यह वेब सीरीज! डॉक्यूमेंट्री में दिखाई गईं बातें एकतरफा नहीं तो कमोबेश पक्षपाती तो हैं हीं; और यह इसके टाइटल से ही स्पष्ट हो जाता है – ‘वाइल्ड वाइल्ड’ कंट्री!!! ‘कूल-कूल’ कंट्री क्यों नहीं? जानता हूं मैं, कि नेगेटिव मार्केटिंग किस पंछी का नाम है। पर साथ ही साथ यह पक्षपाती स्टीरियोटाइपिंग है जो ओशो जैसे सद्पुरुषों की नियति है सदा से; और ओशो की तो विशेषत:! पर मैं असन्तुष्ट हूं इस बात से कि मात्र 2 पात्र पक्ष और 2 पात्र विपक्ष में खड़े कर निर्देशक ने पटकथा के साथ न्याय करने के विचार को संतुलित माना और आगे बढ़ाया; वह भी एक ऐसे व्यक्ति के संबंध में जिसके दर्शन ने पूरे विश्व को आंदोलित किया हो, इसलिए इस सीरीज द्वारा दर्शाया गया ऑरेगोन का सत्य सिऌर्फ तथ्यों तक सिमट कर रह गया; मानो देह मौजूद हो पर बिना आत्मा के! यह अधूरा सत्य पीड़ादायी है।

प्र. आपको डॉक्यूमेंट्री में क्या अधूरा, गलत या झूठ व एकतरफा लगा?

उ. अधूरा व एकतरफा यही कि शीला और उसके कृत्यों को केंद्रीय तत्त्व बनाकर सारी पटकथा उसके इर्द-गिर्द बुनी गई बिना यह विचारे कि क्या मात्र इसी कोण से ओशो के योगदान का पूरा सत्य दिखाया जा सकेगा! अधूरा यह कि शीला के कारनामों और ‘1000 फ्रेंड्स ऑफ ऑरेगोन’ के बेबुनियाद विरोध के अतिरिक्त कुछ भी विधायक, सृजनात्मक, प्रेमपूर्ण, ध्यानपूर्ण दर्शाने योग्य नहीं था, वहां जो सीरीज में शामिल होना चाहिए था? 

अगर नहीं तो हजारों हजार लोग घर बार, नौकरी, कैरियर आदि छोड़कर मात्र मजदूरी करने आये थे वहां? न भूलें कि यह अधिकांशत: सम्पन्न वर्ग था जो वहां 14-16 घण्टे कार्य कर रहा था, बिना किसी सैलरी के! निर्देशक की जिम्मेदारियों में निहित चंद महत्त्वपूर्ण तत्त्व जिनके आधार से कोई व्यक्ति संवेदनशील होता है वही मौजूद नहीं लगे इस चित्रण के मूल में यानी संवेदनशीलता, पक्षपातरहित सोच आदि और यही पटकथा की प्रामाणिकता और निर्देशक की कुशलता को बौना कर गया है इस चित्रण में।

प्र. आपको डॉक्यूमेंट्री  में क्या अच्छा, आकर्षक या रचनात्मक लगा? 

उ. बावजूद इसके कि सीरीज के मूल में ही भूल मौजूद है, चंद बातें बहुत उम्दा हैं इस प्रयास में जैसे – मौलिक वीडियो क्लिप्स, बेहतरीन एडिटिंग, दोनो पक्षों को समान समय दिया जाना, अच्छा पार्श्व संगीत और महत्त्वपूर्ण विषयों का समुचित विस्तार।

प्र. क्या आप मानते हैं कि ओशो की अंतर्राष्ट्रीय छवि में, रजनीशपुरम का, तथा रजनीशपुरम के माध्यम से शीला का बहुत बड़ा योगदान है?

उ. ओशो की अंतरराष्टï्रीय छवि बनाने में शीला या रजनीशपुरम का कोई इतना योगदान मुझे नजर नहीं आता; उल्टा उस छवि को बिगाड़ने में जरूर नजर आता है।

1 मई 1981 को अमेरिका जाने से पहले ही ओशो की अंतरराष्टï्रीय छवि एक सुदृढ़ आधार पर न सिर्फ खड़ी हो चुकी थी बल्कि ऊंचे आसमानों में अपना नाम, मानवता के एक सच्चे शुभचिंतक, आध्यात्मिक रहस्यदर्शी, युग दृष्टा और असामान्य मेधा के स्रोत के रूप में लिख चुकी थी। ऑरेगोन जाने से पहले ही पूना में ओशो सालों साल अंग्रेजी में प्रवचन दे रहे थे। संध्या दर्शन में हजारों विदेशी मित्र व्यक्तिगत सलाह व ध्यान केंद्रों के नाम ले जा चुके थे अपने-अपने देश में। पश्चिम के कई महत्त्वपूर्ण मनोचिकित्सक पहले ही आश्रम में अपनी सेवाएं दे रहे थे। बीसों तरह के गु्रप्स विदेशियों के लिए पहले ही चल रहे थे, जो दिन रात भरे ही रहते थे तब। 20 से अधिक भाषाओं में ओशो की पुस्तकें दुनिया भर में उनके अमेरिका जाने से पहले ही तहलका मचा चुकीं थीं। बल्कि उल्टा अमेरिका में तो वो मौन थे। शीला ने तो इस छवि को खरोंच ही दी, चमकाया नहीं।

प्र. बावजूद इसके कि शीला ने कई गलतियां भी की और जेल में सजा भी काटी है, डॉक्यूमेंट्री देखने के बाद बहुतों के दिल में शीला के लिए एक संवेदनशील कोना निर्मित हुआ है, शीला के प्रति प्रेम व संवेदनशीलता कितनी उचित है? आपकी नजर में शीला नायिका है या खलनायिका?

उ. शीला के प्रति प्रेम, संवेदना आदि-आदि किसी भी व्यक्ति का व्यक्तिगत स्वतंत्र चुनाव है जो प्रत्येक के अपने व्यक्तिगत कारणों के संवेगों की पृष्ठभूमि में स्वाभाविक जान पड़ता है। मेरी दृष्टि में शीला नायिका भी है और खलनायिका भी! 

उसे अग्रिम पंक्ति में रखना ओशो का चुनाव था, तो कुछ तो जरूर था उसमें; कम से कम उस वक्त तो था ही! तब वह शुद्ध रही ही होगी, संभावनाओं से भरपूर- किसी नायिका की तरह तभी तो ओशो ने उसे ‘पूर्व से पश्चिम की ओर’ वाला ध्वज थमाया; इस पुस्तक का एक नया अध्याय लिखने के लिए! पर उसने इस भरोसे की गरिमा का वजन न ही समझा, मनुष्य के हित के लिए ओशो की करुणा और शीघ्रता का मोल न आंका, गुरु की गुरुता को अपनी महत्वाकांक्षा के पैरों तले रौंदने में जरा भी न हिचकी, तो खलनायिका भी सिद्घ हुई। मेरे देखे संभावना में नायिका, पर यथार्थ में खलनायिका।

प्र. आज शीला पुन: चर्चा में हैं, हर पत्र-पत्रिका, टीवी चैनल एवं सोशल मीडिया आदि उसको व उसके अनुभवों को जानना चाहते हैं, उसकी इस बढ़ती लोकप्रियता, मांग व दर्शकों में उसकी स्वीकृति के पीछे आप क्या कारण देखते हैं? यहां तक कि बहुत से ओशो प्रेमी भी उसे सकारात्मक रूप में स्वीकार कर रहे हैं, क्यों?

उ. वर्तमान में शीला की बढ़ती लोकप्रियता के पीछे ओशो के अनसुलझे रहस्य का हाथ है। ओशो एक राज हैं। उनका भक्त बनना तो आसान है पर उन्हें समझना नहीं; सदा ही कोई न कोई कोना छूट ही जाता है और यही है रहस्य! 

इस कारण से बुद्धिवादियों को जब ओशो पकड़ नहीं आते तो वे अपनी इस हार को स्वीकार नहीं कर पाते; नाराज हो जाते हैं। तब कोई भी ऐरा-गेरा बेबुनियाद कारण या लांछन उनके दिल को सुकून देता है और वे उस कारण के पक्ष में खड़े होकर अपने अचेतन में ओशो से बदला लेने का झूठा सुख ले लेते हैं। ये वो लोग हैं जिन्होंने ओशो में और तो सब कुछ देखा सिवाय एक, ओशो के मौलिक संदेश के – जो है ध्यान।

जब शीला ने अपनी पुस्तक में खुद ही कहा है कि ‘मुझे शुरू से ही ध्यान में कोई रस न था’ (और इधर सारा जोर है ध्यान पर) और तब भी यदि ये वर्ग उसके प्रति संवेदना रखे और वह भी ओशो के पक्ष के विपरीत तब आप ही समझ लीजिए कि क्या हैं ये लोग। इन्हें रस विवाद में हैं, ध्यान में नहीं। 

प्र. हांलाकि सबको अपना नजरिया, व उसको अभिव्यक्त करने की पूर्ण स्वतंत्रता है , फिर भी आपके अनुसार, डॉक्यूमेंट्री देखने के बाद लोग शीला पर विश्वास क्यों करें या क्यों नहीं करें ?

. डॉक्यूमेंट्री देखने के बाद तो मामला और भी साफ-साफ हो गया है। कचरा-कचरा जल गया है और सोना-सोना बच रहा है। अब इस बवंडर के बाद तो ओशो के प्रेमी बचेंगे या फिर वो जो पढ़ना जानते हैं अज्ञात की लेखनी को। यानी वो जो पा गए हैं ओशो का हृदय या वो जो पा गए हैं अपना केंद्र।

बीच वाले तो बस बीच में ही लटक जाएंगे और लटक भी रहे हैं। वैसे पत्रिका में इस अंक के आने के बाद कचरा पुन: सोने का साथ ढूंढेगा; अपराध बोध से ग्रसित होकर!

व्यक्तिगत नजरिए की स्वतंत्रता शिष्य को नहीं होती; जरूरत भी नहीं। शीला पर विश्वास या अविश्वास का मसला शिष्य का है ही नहीं! हां, उनका जरूर होगा जो कहीं भी नहीं खड़े हैं। सत्य के व्यक्तिगत पहलू को रखने का अधिकार सबको है और शिष्य की जिम्मेदारी इसमें और भी ज्यादा है। पर जिम्मेदारी तो छोड़ो, यहां तो शिष्य गुरु की हत्या करने को भी मुक्त हैं और जिनको और कुछ आता नहीं वो कर भी रहे हैं; स्वतंत्रता की ओट में।

प्र. डॉक्यूमेंट्री के अंत में शीला की कुछ बातें लोगों को सोचने के लिए मजबूर करती है, जैसे कि – ओशो की मृत्यु प्राकृतिक, साधारण मृत्यु नहीं थी, उसका जिम्मेदार वह डॉक्टर ही है जिसने ओशो का डेथ सर्टिफिकेट बनाया था। दूसरा ओशो का काम ओशो के अपने लोग ही खराब कर रहे हैं, भगवान के कम्यून को बचाने के लिए लोगों का एकजुट होना बहुत जरूरी है। इस पर आपके क्या विचार हैं?

उ. डॉक्यूमेंट्री कुछ प्रश्न तो जरूर ही उठाती है जो आस्था को हिलाने के लिए काफी हैं। जानते हैं क्यों? क्योंकि इस डॉक्यूमेंट्री में सत्य नहीं आ पाया बल्कि इसके उलट रोचकता और सेक्स गुरु के ‘अब तक छिपे सत्य’ के मसाले को चखाने का तड़का लगाया गया है। यह एक पक्षीय है और जल्द ही यह साबित हो जाएगा – कुछ तो आपके इस अंक के बाद, कुछ मित्रों के प्रयासों से। हां! सौ प्रतिशत तो कभी भी साबित न हो सकेगा क्योंकि ओशो के रहस्य को उद्घाटित करने की क्षमता शीला तो क्या किसी में नहीं। और यह काव्य नहीं यथार्थ है।

हां, यह भी सही है कि ओशो का काम हम संन्यासी ही बिगाड़ रहे हैं चाहे कम्यून के भीतर के हों या बाहर। यह सच है कि पूना कम्यून का भविष्य चिंताजनक है। एक बड़ा कम्यून हम पहले ही खो चुके हैं। पुन: यही कहानी दोहरी तो हमसे बड़ा मूर्ख और द्रोही कौन? यह प्रयोग पृथ्वी से विलुप्त नहीं होना चाहिए और हर भरसक प्रयत्न इस दिशा में होना चाहिए, चाहे भीतर, चाहे बाहर। पर यह भी सच है कि सभी संन्यासी एकजुट न हो सकेंगे इस हेतु या किसी भी अन्य हेतु! वैसे चमत्कारों पर मेरा विश्वास नहीं, पर उठा भी नहीं है। यह कोई चमत्कार ही होगा यदि ऐसा हुआ तो। सभी कारण गिनाना यहां सम्भव नहीं।

प्र. हर सद्गुरु की लीला उसके शरीर त्यागने के बाद भी जारी रहती है, वह शरीर से विदा होकर भी कार्य करवा ही लेता है, ताकि आंख न लगे। इस डॉक्यूमेंट्री का आना और फिर ओशो का छाना क्या यह भी ओशो के कार्य करने का एक ढंग है, उनकी लीला है ?

उ. ‘ओशो के कार्य’ की व्याख्या सबकी अपनी-अपनी है – मेरी भी। 

टी.वी. पर छा जाना मेरी निगाह में कार्य नहीं। और छाने के उपाय तो देखिए – बेहूदा लांछन। सद्गुरु अऌपने कार्य के लिए इतने लालायित तो नहीं होते शायद कि हर सूरत में चाहे शिष्य एक दूसरे का सिर ही फोड़ते हों, उन्हें छाते रहना चाहिए।

ओशो के आस-पास पाखण्ड, ईर्ष्या, राजनीति, तब भी थी, अब भी है। आज शिविरों में संन्यास देने का ढंग किसी स्वांग से कम तो नहीं?

पूना आश्रम से सर्टिफिकेट लेकर शिविर संचालन के लिए आयोजकों को फोन करने वालों की बेशर्म फौज मौजूद है आज। 

ओशो की वसीयत अपनी जेब में लेकर गली-गली घूम रहे संचालक – जो किसी विदूषक, राजनीतिज्ञ से कम नहीं।

अपने ही संचालन में ध्यान करते मित्रों का लाइव वीडियो बनाकर उसी वक्त सोशल मीडिया पर डालने वाले जोकर भी पूजे जा रहे हैं यहां। क्यों? क्योंकि वो पुराने हैं।

प्रज्ञा या समाधि के द्वारा मूढ़ मतियों को प्रतिभाशाली बनाने का उपक्रम क्या बेहूदा नहीं? क्या यह है ओशो का कार्य?

क्या यह है हमें जगाए रखने का परिणाम?

क्या यही है हमारी आंख का न लगने देना?

गुरु को प्रेम करना शिष्य का धर्म है पर अपने इस विशेषण पर आत्म मन्त्र मुग्धता अंधापन है। हमारी हर बेहूदगी से ओशो का ही कार्य हो रहा है , यदि यह होता रहा तब तो कोई पैमाना ही न रह जायेगा सही गलत का। और तब ध्यान, प्रेम, संवेदनशीलता, सन्तुलन, शांति, आदि की गुणवत्ता ही गिरती चली जायेगी धीरे-धीरे और यही तो हो रहा है।

जल्द ही वह समय आएगा जब हम संन्यासियों में से ही कोई न कोई उठकर ओशो को गलत सिद्ध करता नजर आएगा मजबूरी में। और कोई चारा भी तो नहीं रहेगा ऐसे पाखण्ड के बीच उसके लिए ताकि पुन: नए सिरे से ध्यान की व्यवस्थाओं के शुद्ध बीज रखे जा सकें और पुन: ओशो को स्थापित किया जा सके, नई रोशनी में। याद है न कि ओशो ने शताब्दियों पुराने बुद्ध, लाओत्से, जेन, महावीर और भी न जाने कितनों को पुन: नया जन्म दिया है अपनी प्रज्ञा से। यह जल्द ही होगा और यह बार-बार होगा।

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