रथ यात्रा में जगन्नाथ भगवान के साथ उनके बड़े भाई बलराम और बहन सुभद्रा का रथ भी निकाला जाता है। जगन्नाथ मंदिर से शुरू होकर रथयात्रा गुण्डिच्चा मंदिर तक पहुंचती है। आइए जानते हैं इसकी शुरुआत कैसे हुई और क्या है इसके पीछे की प्रचलित कहानियां।  
 
कहानी 
 
कलयुग के प्रारंभिक काल में मालव देश पर राजा इंद्रद्युम का शासन था जो भगवान जगन्नाथ का भक्त था। एक दिन इंद्रद्युम भगवान के दर्शन के लिए नीलांचल पर्वत पर गया तो उसे वहां देव प्रतिमा के दर्शन नहीं हुए। निराश होकर जब वह वापस आने लगा तभी आकाशवाणी हुई कि शीघ्र ही भगवान जगन्नाथ मूर्ति के स्वरूप में पुन: धरती पर आएंगे। यह सुनकर वह बहुत खुश हुआ।
 
आकाशवाणी के कुछ दिनों बाद एक बार जब इंद्रद्युम पुरी के समुद्र तट पर टहल रहा था, तभी उसे समुद्र में लकड़ी के दो बहुत ही बड़े-बड़े टुकड़े तैरते हुए दिखाई दिए। तब उन्हें आकाशवाणी की याद आई और सोचा कि इसी लकड़ी से वह भगवान की मूर्ति बनवाएगा। फिर वह लकड़ी को महल में अपने साथ उठा लाएं तभी भगवान की आज्ञा से देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा वहां बढ़ई के रूप में प्रकट हुए और उन्होंने उस विशाल लकड़ी के टुकड़े से भगवान की मूर्ति बनाने के लिए राजा से कहा। राजा ने तुरंत इसकी अनुमति दे दी लेकिन बढ़ई रूपी विश्वकर्मा ने एक शर्त रख दी। शर्त के अनुसार वह मूर्ति का निर्माण एकांत में ही करेगा और यदि निर्माण कार्य के दौरान कोई वहां आया तो वह काम अधूरा छोड़कर चला जाएगा। राजा ने शर्त मान ली। इसके बाद विश्वकर्मा ने गुण्डिचा नामक जगह पर मूर्ति बनाने का काम शुरू कर दिया। एक दिन राजा भूलवश विश्वकर्मा जहां मूर्ति बना रहे थे वहां पहुंच गए। तब उन्हें देखकर विश्वकर्मा वहां से अन्तर्धान हो गए और भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियां अधूरी रह गईं।
 
तभी आकाशवाणी हुई कि भगवान इसी रूप में स्थापित होना चाहते हैं। तब राजा इंद्रद्युम ने विशाल मंदिर बनवाकर तीनों मूर्तियों को वहां स्थापित करा दिया। उसके साथ यह भी आकाशवाणी हुई कि भगवान जगन्नाथ हर साल अपनी जन्मभूमि जरूर आएंगे। स्कंदपुराण के उत्कल खंड के अनुसार राजा इंद्रद्युम ने आषाढ़ शुक्ल द्वितीया के दिन प्रभु के उनकी जन्मभूमि जाने की व्यवस्था की। तभी से यह परंपरा रथयात्रा के रूप में चली आ रही है।
 
वही एक दूसरी कथा के अनुसार सुभद्रा के द्वारिका दर्शन की इच्छा पूरी करने के लिए श्रीकृष्ण और बलराम ने अलग-अलग रथों में बैठकर यात्रा की थी। सुभद्रा की नगर यात्रा की स्मृति में ही यह रथयात्रा पुरी में हर साल होती है।