भारत वह देश है जहां हमने धार्मिक स्थलों को ही नहीं भक्त, गुरु और माता-पिता को भी तीर्थ का दर्जा दिया है। भक्त को हम इसलिए तीर्थ कहते हैं क्योंकि भक्त भगवान की भक्ति में लीन रहने वाले अपने आप में ही तीर्थ का रूप होते हैं। ऐसे लोगों के हृदय में ईश्वर निवास करते हैं। ऐसे भक्त लोगों द्वारा तीर्थों का भ्रमण करने से तीर्थ भी महातीर्थ हो जाते हैं।
ऐसे ही जिस तरह सूर्य दिन में प्रकाश करता है, चन्द्रमा रात्रि में प्रकाशित होता है। दीपक घर में रोशनी करता है तथा घर के अंधेरे को दूर करता है, उसी प्रकार गुरु अपने शिष्यों के हृदय में रात-दिन हमेशा प्रकाश फैलाते हैं। वे अपने शिष्यों के अज्ञानरूपी अंधकार का नाश कर देते हैं। इसलिए गुरु को भी हम तीर्थ कहते हैं।
ऐसे ही इस लोक-परलोक में माता-पिता के समान कोई तीर्थ नहीं है। जिसने माता-पिता की पूजा-सेवा नहीं की, उसका वेदों, शास्त्रों का अध्ययन व्यर्थ है। संतान के लिए माता-पिता का पूजन ही धर्म है, वही तीर्थ है, वही मोक्ष है। उनकी सेवा से ही उसका कल्याण संभव है। इन सब को तीर्थ स्वरूप मानने के बावजूद भी धार्मिक स्थलों की यात्रा का अपना ही महत्त्व है।

यह सच है कि तीर्थ का संबंध आध्यात्मिक एवं पावन स्थल से है फिर वह किसी मंदिर, नदी, घाट, धाम आदि किसी भी रूप में क्यों न हो, किसी भी धर्म, जाति एवं देश का क्यों न हो, लोग उन स्थल पर जाकर स्वयं को धन्य करते हैं, स्नान करते हैं या अपने ईष्ट के स्थल के दर्शन करते हैं। ऐसे स्थलों पर लोग दान-पुण्य भी करते हैं। इन सब के पीछे उनकी एक ही धारणा होती है और वह है पापों से मुक्ति, जन्मों के बंधन से छुटकारो या फिर अपने इस जीवन को धन्य बनाना। परंतु इन कारणों के अलावा भी अनेक कारण है जिसके लिए तीर्थ यात्रा जरूरी ही नहीं हितकारी भी है।
ऊर्जा का केंद्र- अक्सर मन में यह सवाल उठता है कि भगवान तो सब में सब जगह व्याप्त है शरीर में भी, घर में भी और मंदिर में भी। फिर तीर्थ क्यों जाएं? जिस तरह घर के हर कमरे का अपना अलग महत्त्व है उसी तरह धरती पर तीर्थ स्थलों का भी अपना महत्त्व है। क्या आपने कभी सोचा है कि हम रसोई में क्यों नहीं नाहते? या स्नानागार में खाना क्यों नहीं खाते? और जब भगवान सब जगह सब में व्याप्त है तो फिर मंदिर में क्यों जाते हैं? क्योंकि जहां हम अपना नित्य कर्म करते हैं वहां उसी तरह के भाव, सुंगध, तरंग एवं ऊर्जा आदि प्रवाहित होने लगती है। जो हमें रूपांतरित करने में मदद करती है। इसीलिए जो ऊर्जा तीर्थ स्थलों पर बहती है वह अन्य स्थानों से अधिक प्रभावशाली एवं पवित्र होती है। यही कारण है कि ऐसे स्थलों पर हजार भक्तों एवं श्रद्धालुओं के मन स्वत: की मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। वहां का नजारा, भजन कीर्तन में डूबे लोग शहरी दुनिया से दूर मन में आध्यात्मिकता का संचार करते हैं जिससे मन हल्का एवं तनाव मुक्त होने लगता है।
स्वास्थ्यवर्द्धक – तीर्थ यात्रा स्वास्थ्य की दृष्टि से भी हितकारी होती है क्योंकि जहां पर भी तीर्थ हैं वहां का वातावरण एकदम स्वच्छ एवं सुरम्य होता है। वहां की वनस्पति आंखों को राहत एवं ठंडक देती है। लगातार चलने एवं सीढ़ियां चढ़ने-उतरने से तथा भजन कीर्तन तालियों के साथ गाने से हथेली एवं तलवों पर दबाव पड़ता है जिसे एक्यूप्रैशर कहा जाता है जिसके कई रोग दूर होते हैं। सात्विक भोजन एवं फलाहार से पेट ठीक रहता है। खाने, सोने, जगने आदि दिनचर्या में नियमितता आती है जो जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए जरूरी है। नियम एवं सदाचार द्वारा व्यक्तित्व में भी निखार आता है। उपवास के माध्यम से बरसों पुरानी कब्ज एवं कब्ज से संबंधित अनेक शारीरिक विकार दूर होते हैं। नया वातावरण नई सोच, नए विचार एवं उमंग देता है जिससे नीरसता एवं आलस्य दूर होता है जिसके शरीर में रक्त का उचित संचार होता है और हृदय संबंधी रोगों से भी मुक्ति मिलती है।

ज्ञानवर्द्धक– स्वास्थ्य के साथ-साथ तीर्थ यात्राएं हमारे आध्यात्मिक, भौगोलिक एवं ऐतिहासिक ज्ञान में भी वृद्धि करती हैं। यात्रा के दौरान किए गए दर्शन स्थलों का इतिहास सामने उभर कर आता है। उनसे जुड़ी कला, संस्कृति, परंपरा आदि सबका ज्ञान होता है। ये सारी धरोहर हमारे पूर्व में धनी होने की और ईशारा करती है। कहानी एवं किस्से जो कभी हमने किताबों में पढ़े थे या बचपन में सुने थे उनका सारा वृतांत ये राहें एवं मंदिरों की दीवारें बयां करती हैं। छोटी-छोटी बातों का आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक महत्त्व हमारे सामने उभर कर आता है तथा अंधविश्वासों से पर्दा उठता है और सत्य से साक्षात्कार होता है। यात्रा के दौरान संपर्क में आए लोग भी अपने अनुभव एवं वार्तालाप द्वारा ज्ञान एवं जानकारी में वृद्धि करते हैं।
सत्संग एवं जन संपर्क– तीर्थ यात्रा के माध्यम से हम अपने संबंधों एवं घर के दायरों से दूर नए एवं विभिन्न लोगों के संपर्क में आते हैं। यहीं से ‘वसुदेव कुटुम्बकम’ की यात्रा शुरू होती है। कई बोलियां, रीति-रिवाज, खान-पान एवं तीज-त्योहार आदि सबके बारे में पता चलता है। आपसी भाई-चारा एवं अच्छे लोगों का संग साथ मिलता है। जीवन को जानने का जोश जगता है। आपसी जिज्ञासाएं नए संबंध बनाती हैं। यहां कोई छोटे-बड़े, ऊंच-नीच का भेद-भाव नहीं होता सब एक साथ यात्रा करते हैं। कोई कितना ही अमीर हो सब अपने काम स्वयं करते है। दूसरों की मदद करने की भावना जागृत होती है। स्वभाव में दया, करुणा, सहनशीलता एवं संवेदनशीलता आती है। तेरा-मेरा के भाव से ऊपर उठकर इंसान मानव प्रेम के सूत्र में बंधता है और तीर्थ यात्रा करता है।
यह भी पढ़ें –चाहते हैं पितरों का आर्शीवाद ,तो श्राद्ध पक्ष में लगाएं ये विशेष पौधे
