चरक आदि संहिता ग्रंथों में आयुर्वेद के अष्टांग विभागानुसार वर्णन देखने को मिलते हैं, परंतु इसके बहुत पूर्व वेदों में तीन प्रकार के कष्टों या दु:खों के उपचार के लिए तीन ही प्रकार के प्रतिकार या उपाय (आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक) किए जाते थे। अष्टांग आयुर्वेद का सर्वप्रथम नामकरण किसने किया, यह कहना दुष्कर है। प्राक्काल में या संहिता काल में अष्टांग आयुर्वेद के पृथक-पृथक अंग विशेषज्ञों का बाहुल्य था। जैसे महर्षि कश्यप कौमारभृत्य और अगद तंत्र के विशिष्ट आचार्य थे। इसी प्रकार शल्य तंत्र बासुकि, कार्य-चिकित्सा के भारद्वाज और गार्ग्य, गालव, जनक, निमि आदि शालाक्य-तंत्र के ज्ञाता थे। ऋक्ï, यजु और सामवेद के अतिरिक्त अथर्ववेद में अष्टांग- आयुर्वेद की सामग्री प्रचुर रूप में पाई जाती है। अथर्ववेद के अभिचार-मंत्रों में आगत सामग्री का विशद वर्णन छान्दोग्योपनिषद् के अनुसार भूतविद्या-प्रसंग में मिलता है। अथर्ववेद में अष्टांग के विषय यत्र-तत्र बिखरे हुए दृष्टिगोचर होते हैं। सुश्रुत संहिता के अनुसार निम्न पंक्तियों में आयुर्वेद के आठ अंगों का स्पष्टीकरण किया गया है।

अष्टांग-आयुर्वेद का विवेचनात्मक वर्णन

1.अथर्ववेद एवं अथर्वसाहित्य में शल्यतंत्र- यह एक आश्चर्यजनक सत्य है कि प्राचीन शल्यविशारदों की तुलना में अर्वाचीन शल्यशास्त्री अभी बहुत पीछे हैं। साधारण व्रण की चिकित्सा तथा अति दुष्कर शल्य कर्म में प्राचीन आथवर्ण वैद्य या शल्यशास्त्री आश्चर्यकारक कर्म करते थे। अथर्ववेद में शरीर से पृथक हुई अस्थियों को रथ के विभिन्न अंगों के सदृश जोड़कर रथ की ही तरह मनुष्य को स्वस्थ बना देने वाला आदेश दिया गया है। मूत्राघात रोग में शर तथा शलाका आदि द्वारा मूत्र को निकालने या भेदन करने का आदेश दिया गया है। दु:ख-प्रसव तथा विकृत प्रसव के लिए योनि भेदन करने का वर्णन मिलता है। कष्टसाध्य लोहिनी और कृष्णा नामक अपची को किसी विशेष शर से भेदन करने के लिए उल्लेख प्राप्त होता है। अपची को पकाने के लिए लवण का उपचार आदि शल्य-प्रक्रियाओं का वर्णन भी किया गया है। ऋग्वेद में अश्विनी कुमारों द्वारा नाना चमत्कार रूप भैषज्य विषय देखे जाते हैं, जैसे- दासों द्वारा अग्नि और जल में फेंकने पर पुन: सिर एवं वक्ष स्थल के टुकड़े-टुकड़े करने पर भी जीवित दीर्घतमा ऋषि को अश्विनी कुमारों ने स्वस्थ कर दिया। कौशिक सूत्र में अथर्ववेदीय मंत्रों के विनियोग के प्रदर्शन में अथर्ववेद के विभिन्न मंत्रों की महिमा को दर्शाते हुए चौथे अध्याय में अथ भेषजानि से प्रारंभ करके रोगों के प्रतिकार के लिए विभिन्न मंत्रों द्वारा अभिमंत्रित करके जल, औषधि आदि पिलाना तथा मार्जन, हवन आदि अनेक उपाय दिए हैं।

2. शालाक्य-तंत्र- इस तंत्र में ऊर्ध्वजत्रु की व्याधियां जैसे- सिर, नेत्र, नासिका, गला आदि के रोगों का वर्णन आता है। अथर्ववेद  में संपूर्ण सिर के रोगों तथा कान के रोगों को दूर करने का आदेश मिलता है। इन मंत्रों में शीर्षक्ति, शीर्षामय और शीर्षण्य- सिर के इन तीन रोगों का नामकरण मिलता है, जो पृथक- पृथक व्याधियां मालूम होती हैं। कुष्ठ नामक औषधि को शीर्षामय तथा नेत्ररोगनाशक कहा गया है। नेत्र के रोगों के संबंध में अथर्थवेद में विभिन्न साधनों पर चिकित्सा का वर्णन है कहीं जल-चिकित्सा, कहीं आजनमणि तो कहीं जग्डिमणि के प्रयोग हैं तथा कहीं कुष्ठ औषधि तो कहीं दिव्य सुवर्ण के उपचार मिलते हैं।

3. काय-चिकित्सा- आयुर्वेद के अष्टांग में काय-चिकित्सा का वर्णन अथर्ववेद में प्रचुर रूपेण देखने को मिलता है तथा इसके विनियोग कौशिक सूत्र में स्थान-स्थान पर औषधि के रूप में तथा उपचार-रूप में देखे जाते हैं। अथर्ववेद में लगभग ज्ञात और अज्ञात तथा छोटी-बड़ी सौ व्याधियों का वर्णन मिलता है। अथर्ववेद के नवम् कांड के 8वें सूक्त में व्याधियों के नामकरण की एक सूची मिलती है जिसके प्रथम चार मंत्रों में सिर के रोगों का वर्णन किया गया है। हृदय और उदर की व्याधियों का वर्णन दस से लेकर 14 मंत्रों में स्पष्ट वर्णित है। 15 से लेकर 17 तक के मंत्र में पार्श्वस्थि तथा गुदास्थि का वर्णन है। 14 से 21 तक के मंत्रों में विशल्यक, विद्रधि आदि रोगों के नाम के कुछ ऐसे रोगों का वर्णन और चिकित्सा भी मिलती है, जो निरोग होने में कालापेक्षी हैं तथा कुछ ऐसी व्याधियों का उल्लेख मिलता है, जो अल्पकालापेक्षी तथा अस्पष्ट हैं। क्षुद्र एवं अल्पकालिक व्याधियां- पलित, पापयक्ष्मा, अज्ञातयक्ष्मा, अक्षत, विसर पृष्ठयामय, आश्रीक, विश्रोक, विशल्यक, विद्रधि, क्षिप्त, हृद्योत, जलजि, शूल, पामा, पक्षाघात, अरिष्ठ, तृष्णा, अस्थिभंग, जम्भ, संहनु, अंगभेद, अंगज्वर, लोहित, शमोलुनकेश, रुधिरास्राव, काहाबाह, कर्णशूल, विषूचिका तथा अप्वा आदि। अथर्ववेदीय साहित्य में व्याधियों के वर्गीकरण या काय-चिकित्सात्मक निदानादि दृष्टिकोण से विभाग नहीं देखे जाते, जैसा कि चरक, सुश्रुत आदि संहिताओं में वर्गीकरण देखे जाते हैं। निज और आगंतुक व्याधियों का पृथककरण सूत्र-रूपेण अथर्ववेद में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है, परंतु अथर्ववेद के स्त्रीकर्माणि प्रकरण तथा कौशिक सूत्र के कण्डिका 32 के 28 से 21 सूत्र में मानस रोगों का दिग्दर्शन अत्यंत स्पष्ट है।

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4. भूत-विद्या- अष्टांग आयुर्वेद का एक अंग भूत-विद्या भी है, जिसमें गंधर्व, यक्ष, राक्षस, ग्रह आदि के आवेश से दूषित शरीर एवं मन की शांति के लिए कुछ कर्म जैसे- दान, पूजा आदि किए जाते हैं, यह भूत-विद्या है। इसका आदि स्रोत अथर्ववेद है। चरक, सुश्रुत तथा कश्यप आदि संहिता ग्रंथों में पूतना या स्कंद आदि ग्रहों को बाल रोग का कारण माना गया है। आयुर्वेद ने उन्माद, अपस्मार आदि मानसिक एवं शारीरिक व्याधियों के कारणों में भूत, प्रेत, पिशाच तथा गंधर्व को भी एक कारण माना है।

5. कौमारभृत्य- आयुर्वेद के अष्टांग विभागों में कौमारभृत्य भी एक अंग है। गर्भाधान, गर्भ की पुष्टि, गर्भ की रक्षा, सुखप्रसव एवं जन्मकाल के अमांगलिक क्षणों में हानिकार प्रभाव को दूर करने के लिए अनेक मंत्र अथर्ववेद में मिलते हैं। अथर्ववेद में कुछ ऐसे भी मंत्र हैं जिनमें औषधि मंत्र एवं रक्षायंत्र (ताबीज, कवच) का प्रयोग निर्दिष्ट है और सुखप्रसव के लिए भी मंत्रों का बाहुल्य वहां उपलब्ध होता है।

6. अगद-तंत्र- अथर्ववेद में अगद तंत्र से संबंधित विषय जैसे- स्थावर और जग्म- विष, सर्प, वृश्चिक, विषाक्त कीटाणु तथा विषाक्त बाण इत्यादि के विषय में अनेक मंत्र मिलते हैं। ऋग्वेद में भी सर्पविष, वृश्चिक विष तथा विषाक्त कीटों से संबंधित मंत्र पाए जाते हैं। अथर्ववेद के एक मंत्र के अनुसार सूर्य, अग्नि, पृथ्वी, वनस्पति तथा कंद में यदि विष है तो उसे नष्ट करने या दूर करने का आदेश दिया गया है। अथर्ववेद में अनेक विषाक्त सर्पों के नाम उपलब्ध होते हैं। विष को नष्ट करने के लिए कुछ वनस्पतियों से संबंधित मंत्र भी मिलते हैं। अथर्ववेद के चौथे कांड में विषाक्त घातक विष को नष्ट करने के लिए स्पष्ट वर्णन मिलता है। अथर्ववेद के छठे कांड में सर्प विष की चिकित्सा के लिए जल को महत्त्वपूर्ण बताया गया है। चरक में भी चिकित्सास्थान में जल से परिषेचन और अवगाहन बताया गया है। दसवें कांड में पैत्व (श्वेत आक) तौदी और धृताची वनस्पति का सर्प विष हर के लिए उल्लेख है। कौशिक सूत्र में सब प्रकार के विष स्तंभ के लिए उपाय दिए गए हैं। वृश्चिक विष को नष्ट करने का भी उल्लेख है। जैसे- अथर्ववेद के 7वें कांड के 46वें सूक्त (1-8) का जप करते हुए ज्येष्ठीमधु (जेठी मधु) को पीसकर तथा निर्दिष्ट मंत्र से अभिमंत्रित कर रोगी को पान कराना चाहिए तथा क्षेत्र की बल्मीक मिट्टी को पशु-चर्म में बांधकर कवच की तरह धारण करना चाहिए।

7. रसायन तंत्र- जो औषधि रसादि धातुओं में क्षीणता न आने दे तथा व्याधियों को विनष्ट कर स्वस्थ रखे, वही रसायन है। अथर्ववेद में ऐसे अनेक सूक्त हैं, जिनमें जल तथा इसके गुणों की प्रशंसा की गई है तथा जल को वृद्धावस्था और व्याधि दूर करने एवं अनश्वरता पैदा करने वाला द्रव्य बताया गया है। कुछ मंत्रों में बताया गया है कि जल विभिन्न प्रकार के रोगों की औषधि है तथा यह शारीरिक दोषों को दूर करके, शरीर एवं त्वचा को सुस्थिर-करके स्वस्थ बनाता है। अथर्ववेद जल को रस मानता है तथा जल से अक्षय बल और प्राण की याचना करता है।

8. वाजीकरण- अथर्ववेद में पुरुषत्व के विकास या वृद्धि के लिए अनेक मंत्रों का उल्लेख मिलता है। कुछ मंत्रों अश्व, हस्ति, गर्दभ और वृषभ-सदृश पुरुषत्व शक्ति के अर्जन के लिए प्रार्थना की गई है। वेदों में विशेषकर अथर्ववेद में आयुर्वेद के विषय यत्र-तत्र बिखरे पड़े रहने के कारण अष्टांïग-आयुर्वेद के विभाग रूपेण वर्गीकरण का अभाव परिलक्षित होता है, पर जो भी सामग्री सूत्र रूप में उपलब्ध है, उसी का उपवृंहण होता चला गया। चरक आदि संहिता ग्रंथों में इसका परिष्कृत रूप दिखलाई देता है। अथर्ववेद के सूत्र-ग्रंथ कौशिक सूत्र में अथर्ववेदीय भैषज्य सामग्री का विनियोग स्पष्ट रूप से प्राप्त होता है। इस प्रकार आयुर्वेद की वेदमूलकता सर्वथा स्पष्ट है।

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