वैसे ब्रह्मï की पुत्री चिर कुमारी सरस्वती और विष्णु की पत्नी भी सरस्वती हैं। तीन सरस्वतियों के विषय में जानने के लिए धर्मशास्त्र आदि में बहुत कुछ मिल सकता है। किंतु हमें संप्रति आयुर्विज्ञान की जननी सरस्वती देवी के विषय में ही लिखना अभिप्रेत है। अथर्ववेद में जिनका वर्णन मिलता है। वे ही अश्विनी कुमार की पत्नी हैं और आयुर्विज्ञान की प्रकाशिका तथा बल की अधिष्ठात्री देवी हैं। महाकाली से प्रकट हुई देवी होने के कारण चिकित्सा विज्ञान के द्वारा वे, शरीर को रोगमुक्त कर बलशाली बनाती हैं। वे प्रसन्न होने पर प्राणियों को सभी रोगों से मुक्त कर स्वस्थ कर देती हैं। और अप्रसन्न होने पर सभी कामनाओं को विफल कर देती हैं।

रोगानशेषान् अपहंसितुष्टा, रुष्टातु कामान् सकलान अभिष्टान्। (दुर्गासप्तशती)

मात्र सेवा-सुश्रुसा के द्वारा महाचिकित्सका सरस्वती ने व्याधिग्रस्त इंद्र को रोगमुक्त कर दिया था। यजुर्वेद में इसका उल्लेख मिलता है-

वाचारसरस्वती भिषिगिन्द्रियायेंद्रियानि दघत:

इस सूक्त के अनुसार सरस्वतीग चिकित्सा विशेषज्ञा हैं। इन्होंने वाक्य द्वारा (मंत्रों से) इंद्र को स्वस्थ कर दिया। 94वें सूक्त के अनुसार तो यह भी प्रमाणित हो जाता है कि सरस्वती स्वर्ग के वैद्य अश्विनी कुमार की ही पत्नी हैं। सरस्वती के प्रसन्न होने पर ही अनुकूल, सर्वशुक्ला, जीवन संगिनी मिलती है। परम सात्विका, सर्वगुण संपन्ना, सुमधुरभाषिणी, सहनशीला, का न केवल सान्निध्य ही प्रत्युत रूप, रस, गंध, स्वर्ण के अतिरिक्त पूर्ण मनोयोग से निर्मित प्रसाद (भोजन) भी प्रसन्नता प्रदान करने वाला तथा सभी व्याधियों से मुक्त रखने वाला होता है।

सरस्वती के प्रकुपित हो जाने से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और व्यक्ति की जीवनी शक्ति नष्ट हो जाती है। वह अनेक प्रकार की व्याधियों से ग्रस्त होकर अकाल काल कवलित हो जाता है। माता के तप में शरीर का पोषण करने वाली और पत्नी के रूप में शरीर को संतोष प्रदान कर स्वस्थ रखने वाली देवी के ही ये दो रूप हैं।

मातासमानास्ति शरीरपोषिणी

भार्यासमानास्ति शरीरतोषिणी

महाकाली से उत्पन्न स्वर्ग के वैद्य अश्विनी कुमार की पत्नी देवी सरस्वती के विषय में विस्तार से कुछ हस्तलिखित प्राचीन पांडुलिपियों में पाया जा सकता है। जापान में निर्विवाद रूप से सरस्वती को चिकित्सा विज्ञान की अधिष्ठात्री देवी के रूप में मान्यता प्राप्त है। वहां के चिकित्सा शोध संस्थान के द्वार पर लिखे वाक्य में ऐसा देखा गया है।

‘चरक’ के समकालीन सभी आचार्य एक साथ मिलकर साध्य-असाध्य सभी व्याधियों की चिकित्सा के विषय में परस्पर विचार-विनिमय करते थे। आचार्य आत्रेय सामंजस्य के लिए प्रयत्न करते थे। आत्रेय के द्वारा किया गया समाधान सर्वमान्य होता था। उन दिनों आयुर्विज्ञान का समाधान किया जाता था। अग्निवेश के तंत्र-चिकित्सा से संबंधित ग्रंथ में संशोधन देवी सरस्वती की प्रेरणा से संपन्न हुआ। चरक को चिकित्सक मंडली के द्वारा कृत सरस्वत्योपासना में संप्राप्त ज्ञान का संकलन कहा जाना युक्ति संगत प्रतीत होता है।

ईसा से नवीं सदी में कश्मीरी आचार्य कपिल बल के पुत्र दृढ़बल ने चिकित्सा विज्ञान के शोध के समय सरस्वती की उपासना की थी और सरस्वती का वरदान प्राप्त कर आयुर्विज्ञान के अपूर्ण ग्रंथों को आगे चलकर पूर्ण करने में सफलता प्राप्त की। उपर्युक्त सभी सरस्वत्योपासक आचार्यों के बाद भारतीय चिकित्सा विज्ञान (आयुर्वेद) में शोध कार्य तो हुए किन्तु साधना एवं अनुभव के अभाव में विशेष प्रगति नहीं हो पाई। संप्रति समस्त भूमंडल में अनेक प्रकार के प्रदूषणों की वृद्धि के कारण जटिल, असाध्य शारीरिक एवं मानसिक व्याधियां व्याप्त हो रही हैं। अथर्ववेद सहित अनेक ग्रंथों तथा आदि शंकराचार्य के गुरु गोविंदाचार्य के द्वारा प्रणति रसहृदय तंत्र तथा अन्य प्राचीन ग्रंथ, रसविज्ञान की उपयोगिता असाध्य से प्रतीत होने वाले रोगों की चिकित्सा के संदर्भ में ध्यान आकर्षित करते हैं।

मन को निर्विकार और शरीर को निरोग रखने में नारी का सहयोग तंत्र-चिकित्सा में सर्वोपरि है। कविराज लोलुंबराज के मतानुसार निम्न रक्तचाप के रोगियों को नारी का शारीरिक ताप लाभ प्रदान करता है। शिथिल स्नायुतंत्रों में रक्तसंचार की गति में वृद्धि होने के कारण शारीरिक शिथिलता दूर होती है। हृदय, मस्तिष्क और अन्य अवयवों में भी स्वाभाविक गति उत्पन्न होती है। नेत्र ज्योति जब क्षीण होने लगती है और नेत्र-चिकित्सक भी ज्योति क्षीणता के संबंध में यह कहने के लिए बाध्य हो जाते हैं। दृष्टि शक्ति की यह क्षीणता चिकित्सा साहस नहीं- ऐसी स्थिति में सद्य: प्रसूता स्त्री की दुग्धधारा नेत्रों की नष्ट दृष्टि को भी पुन: सामान्य करने में समर्थ हो जाती है। उपनेत्र धारण करने पर जहां तक दृष्टिगोचर होता है, उससे अधिक दूरी तक देखने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। श्वेत आक के मूल को कपूर और गंगाजल में घिसकर या मातृ स्थानीय किसी स्त्री के हाथ से ललाट पर लगाने से समस्त शिरोव्याधियां दूर हो जाती हैं। आत्मविश्वास में वृद्धि होती है। वशीकरण की सिद्धि भी प्राप्त हो सकती है।

स्वर्ण-मुद्रा को घृत में गर्मकर मूंग की दाल में बघार (छौंक) देकर, स्वर्ण मुद्रा निकाल लें और दाल, तीन भाग गेहूं और एक भाग चने के बेसन से बनी रोटी के साथ, नियमित सेवन किया जाए तो उदर की व्याधियां दूर हो जाती हैं। शरीर की क्रांति में अभूतपूर्व अभिवृद्धि होती है।

शयनकक्ष में जो स्त्री नित्य सरस्वती के सम्मुख करायल एवं गुग्गुल का धूप जलाकर सरस्वती कवच का पाठ करती है उसके परिवार में कभी अशांति नहीं होती और न कोई किसी भूत-व्याधि में ही ग्रस्त होता है। दांपत्य जीवन सुखमय व्यतीत होता है, संतान समृद्ध, धार्मिक और बुद्धिमान होती है। उपरोक्त उपचार वेदों में वर्णित हैं। लेकिन इन्हें किसी सुयोग्य गुरु, आचार्य के सान्निध्य व देखरेख में करना अधिक श्रेयस्कर होगा। अन्यथा तनिक सी भी भूलचूक हानिकारक हो सकती है। अत: प्रबुद्ध पाठक गण इस तथ्य को अवश्य ध्यान में रखें। यह स्वयं उनके व सम्पूर्ण मानवता के हित में होगा।

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