Summary: अधूरे सपनों का पूरा सफर: संध्या का प्यार
65 की संध्या ने समाज की सोच को चुनौती देते हुए अपने अधूरे दिल को रमेश के साथ पूरा किया। उन्होंने साबित किया कि प्यार की कोई उम्र नहीं होती, बस दिल चाहिए।
Hindi Love Story: बूढ़े पीपल के नीचे बैठी संध्या देवी अपने हाथों से ऊन का गोला लपेट रही थीं। पास ही रखे पुराने रेडियो पर लता मंगेशकर की आवाज़ गूंज रही थी “रुक जा रात, ठहर जा रे चाँद…” संगीत में खोई उनकी आँखों में हल्की नमी थी। उम्र ने चेहरे पर झुर्रियाँ ज़रूर डाल दी थीं, मगर उनमें अब भी वो कोमल चमक बाकी थी जैसे किसी अधूरे सपने की लौ अभी बुझी न हो।
पति, श्रीधर, को गुज़रे बारह साल हो चुके थे। बेटा राघव और बहू मीनाक्षी दोनों शहर में रहते थे। हफ़्ते में एक बार कॉल आता “माँ, दवा ले ली ना?” बस, वहीं तक रिश्ता सीमित रह गया था। संध्या के दिन अब किताबों, तुलसी चौरे की पूजा और मंदिर के भजन मंडली तक सिमट गए थे।
उस दिन भजन मंडली में नया सदस्य आया रमेश सक्सेना। सफेद कुर्ता-पायजामा, सिर पर हल्की सफेदी, मगर चाल में ठहराव और मुस्कान में गर्मजोशी। वो जब “श्रीराम जय राम…” गाते तो भजन की लय में कुछ और मिठास घुल जाती। संध्या ने पहली बार किसी अनजान की आवाज़ पर ध्यान दिया था।
भजन के बाद सब प्रसाद ले रहे थे जब रमेश ने उनके पास आकर कहा “आप बहुत अच्छा गाती हैं, माताजी।” संध्या झेंप गईं, “अब कहाँ वो गला बचा है, बस आदत रह गई है।” “आदत ही तो खूबसूरत होती है,” रमेश बोले, “जो किसी को जोड़ती है… चाहे वक़्त कुछ भी हो।” उस दिन के बाद, भजन मंडली का हर गुरुवार अब सिर्फ़ ‘भजन’ नहीं रह गया एक इंतज़ार बन गया।
कुछ ही दिनों में दोनों की बातचीत बढ़ी। रमेश, रिटायर्ड प्रोफेसर थे लखनऊ यूनिवर्सिटी से। पत्नी की मृत्यु को आठ साल हो चुके थे। उनका भी एक बेटा था, विवेक, जो विदेश में सेटल था। मंदिर के आँगन में दोनों अक्सर भजन के बाद बैठ जाते। संध्या अपने पुराने दिनों की बातें बतातीं कैसे श्रीधर फिल्में बहुत पसंद करते थे, कैसे उन्होंने पहली बार इलाहाबाद में संगम देखा था। रमेश सुनते, मुस्कुराते, और कभी-कभी बस “हूँ” कह देते, जैसे शब्दों से ज़्यादा समझ उनके सन्नाटे में थी।
धीरे-धीरे, वो साथ मंदिर से लौटने लगे। रास्ते में नीम के पेड़ तले रुककर वे चाय पीते “कम चीनी, ज़्यादा अदरक वाली।” संध्या के दिल में कई बरस बाद कुछ हलचल हुई थी। वो खुद से पूछतीं “ये क्या है? दोस्ती? अपनापन? या कुछ और…?”
एक दिन रमेश ने बहुत सहज भाव से कहा “संध्या जी, क्या कभी ऐसा नहीं लगता कि ज़िंदगी अभी भी अधूरी नहीं है?” संध्या ने चौंककर देखा “मतलब?” “मतलब ये कि… हम दोनों अकेले हैं। साथ चलें तो शायद अकेलापन थोड़ा कम हो जाए।” उनकी आवाज़ में कोई बनावट नहीं थी, बस सच्चाई थी, और वो सच्चाई संध्या के दिल में उतर गई।
लेकिन उसी रात उन्हें बेचैनी ने घेर लिया। बेटे का चेहरा बार-बार याद आया ‘माँ ऐसा कैसे सोच सकती हैं?’ अगले दिन उन्होंने फैसला किया बात साफ करनी होगी। संध्या ने बेटे को कॉल किया “राघव, मैं तुमसे एक बात कहना चाहती हूँ।” “हाँ माँ, बोलो ना।” थोड़ी देर खामोशी रही, फिर वो बोलीं “मैं किसी से मिलती हूँ… और सोच रही थी कि शायद…” राघव ने बीच में ही रोक दिया “क्या? आप पागल हो गई हैं क्या माँ? इस उम्र में ऐसी बातें शोभा देती हैं?”
संध्या का गला सूख गया। वो कुछ बोल नहीं पाईं। फोन कट गया। तीन दिन तक राघव या मीनाक्षी का कोई फोन नहीं आया। मंदिर भी नहीं गईं। रमेश ने जब पूछा “सब ठीक?” संध्या की आँखें भर आईं, “घर वाले नहीं समझेंगे… वो कहते हैं, ये उम्र प्यार की नहीं।” रमेश ने धीरे से कहा, “उम्र का प्यार तो सबसे सच्चा होता है… क्योंकि अब उसमें दिखावा नहीं, बस ज़रूरत होती है साथ की।”

कुछ दिन बाद मोहल्ले में कानाफूसी शुरू हो गई। “अरे वो संध्या जी, पता है न, रमेश जी के साथ दिखीं थीं!” “भजन मंडली से आगे का रिश्ता लग रहा है…” संध्या मंदिर जाना छोड़ने लगीं। रमेश कई बार घर आए, लेकिन दरवाज़ा नहीं खुला। एक दिन शाम को वो दरवाज़े पर बैठे थे, हाथ में वही अदरक वाली चाय का थर्मस। धीरे से बोले “संध्या जी, लोग तो तब भी बोलते थे जब भगवान राम ने सीता को वनवास भेजा था। हम कौन होते हैं डरने वाले?”
संध्या ने पहली बार मुस्कुराते हुए दरवाज़ा खोला। “चाय ठंडी हो जाएगी,” रमेश ने कहा। “दिल तो पहले ही पिघल चुका है,” उन्होंने जवाब दिया।
अगले रविवार को संध्या ने राघव और मीनाक्षी को बुलाया। घर में हलवा बना, तुलसी के पास दीया जला। “बेटा, मैं कुछ कहूँ?” उन्होंने शुरू किया। “माँ, अगर फिर वही बात है तो…” “हाँ, वही बात है,” उन्होंने दृढ़ स्वर में कहा। “मैंने ज़िंदगी दी है, निभाई है, सब किया है। अब अगर ज़िंदगी के आख़िरी कुछ सालों में किसी का हाथ पकड़ना चाहूँ, तो क्या ये गुनाह है?” राघव चुप रहा। मीनाक्षी ने धीरे से कहा, “माँ, लोग क्या कहेंगे?”
संध्या ने शांत स्वर में कहा “लोगों ने तो हमेशा कुछ कहा है… लेकिन अब मैं चाहती हूँ कि एक बार मेरे लिए कोई कहानी भी कहे कि एक औरत ने 65 में भी प्यार किया और खुद के लिए जिया।” घर में सन्नाटा छा गया। राघव ने पहली बार माँ की आँखों में देखा वहाँ डर नहीं था, सिर्फ़ अपनापन और सच्चाई थी।
कुछ महीनों बाद, मंदिर के आँगन में छोटा-सा समारोह हुआ। ना बैंड, ना बारात। बस दो वृद्ध आत्माएँ और उनके कुछ प्रिय मित्र। संध्या ने हल्के गुलाबी साड़ी पहनी थी, और रमेश ने साफ सफेद कुर्ता। पंडित जी ने मंगलसूत्र बाँधा तो संध्या के चेहरे पर वही चमक लौट आई जो शायद उन्होंने अपने 20वें साल में महसूस की थी। लोग अब भी बातें कर रहे थे, लेकिन वो दोनों अब सुन नहीं रहे थे। क्योंकि अब उनके कानों में सिर्फ़ एक आवाज़ थी “संग रहो, संग चलो…”
छह महीने बाद, एक सुबह सूरज की किरणें आँगन में फैलीं। संध्या और रमेश झूले पर बैठे थे। रमेश ने अख़बार मोड़ा और कहा “देखो, कितनी अच्छी बात है, अब ‘सीनियर सिटिज़न कम्पैनियनशिप’ को भी कानूनी मान्यता मिल गई।”
संध्या मुस्कुरा दीं “देखो, हमने समाज से पहले कदम बढ़ाया था।” फिर उन्होंने अपना सिर रमेश के कंधे पर टिका दिया। “काश, हर उम्र में कोई ये समझे कि प्यार की उम्र नहीं होती… बस दिल चाहिए।”
कुछ सालों बाद, राघव को माँ की डायरी मिली। आख़िरी पन्ने पर लिखा था “जब श्रीधर गए थे, तो लगा था ज़िंदगी खत्म हो गई। लेकिन जब रमेश मिले, तब समझी कि ज़िंदगी कभी खत्म नहीं होती… बस उसका रंग बदलता है। और मेरा रंग अब ‘संध्या’ नहीं, ‘सुबह’ बन गया है।”
