Ramayan in Hindi Story: गुजरात के प्रसिद्ध विद्वान प्रोफेसर गुनवंत शाह ने एक स्थान पर लिखा है कि भारतीय संस्कृति की आत्मा वेद है, उपनिषद् उसका तत्त्व है, भगवद्गीता उसका हृदय हैं और रामायण एवं महाभारत उसकी आंखें हैं। राम के जीवन पर आधारित वैसे तो अनेक काव्य एवं महाकाव्य लिखे गए हैं किन्तु इनमें दो ही अधिक प्रसिद्ध हैं – प्रथम महर्षि वाल्मीकि की रामायण एवं दूसरा गोस्वामी तुलसीदास का राम चरित मानस। रामायण अर्थात राम का अयन। अयन के दो अर्थ है गति एवं मार्ग। इस प्रकार रामायण राम के जीवन कि गति भी है एवं मार्ग भी दोनों को यदि एक ही शब्द में कहना हो तो कह सकते हैं रामायण अर्थात राम को गतिपथ। राम चरित मानस का अर्थ है राम के कार्यों एवं चरित्रों का मानसरोवर।
गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में राम के कार्यकलापों एवं चरित्र का भरपूर वर्णन किया है। वाल्मीकि ने रामायण कि रचना देय भाषा संस्कृत में की है जबकि तुलसीदास ने रामचरित मानस को लोक भाषा हिन्दी में लिखा है। लोक भाषा में रचना करके गोस्वामी जी ने राम कथा को घर-घर पहुंचा दिया है।
वाल्मीकि रामायण विश्व का प्रथम महाकाव्य है। इसके समस्त पात्र – यहां तक की छोटे से छोटे पात्र भी – मानव चरित्र की किसी न किसी विशेषता को उजागर करते हैं, किसी एक मानवीय गुण के प्रतीक हैं। जटायु निस्वार्थ बलिदान का प्रतीक है। शबरी अपने इष्टदेव राम के दर्शनों की जीवन भर प्रतीक्षा कर सकती है। उर्मिला एक ऐसी पत्नी हैं जिसके लिए पति की इच्छा ही सर्वोपरि है। कल्पना कीजिये की क्या मानव इतिहास में उर्मिला जैसी कोई स्त्री हुई होगी जिसने चौदह वर्षों तक महलों में रहकर वनवासी का जीवन जिया हो क्योंकि उसके प्रियतम की ऐसी ही इच्छा थी। विभीषण दुनिया के उन अल्पसंख्यक लोगों का प्रतिनिधि है जिनमें शत्रु पद में विद्यमान सत्य को स्वीकार करने का साहस होता है। हमारे लोग पास पड़ोस में होने वाले लड़ाई-झगड़ों के समय भी अपने पक्ष की भूल पर पर्दा डालने एवं विरोधी पक्ष के साथ गाली गलोच करने में ही अपनी सारी शक्ति झोक देते हैं। विरोधी पक्ष के सत्य को समझाना और उसका औचित्य बतलाना आसान काम नहीं है। रावण जिसे शक्तिशाली एवं अहंकारी राजा को राम से संधि करने एवं सीता को लौटा देने की सलाह देना विभीषण जैसे लोग ही कर सकते हैं। लंका नगरी भले ही राक्षसों से परिपूर्ण हो किन्तु वहां विभीषण जैसे दुर्लभ चरित्र भी निवास करते थे। मानवता को जीवित रखने एवं धर्म की रक्षा करने में ऐसे लोगों की विशिष्ट भूमिका होती है। युग-युग में कम या अधिक रूप में विभीषण प्रकट होते रहते हैं।
राम, लक्ष्मण और भरत ऐसे भाई हैं जिनमे त्याग करने की प्रतिस्पर्धा चल रही है। जहां भी प्रतिस्पर्धा होती है वहां हमेशा कुछ प्राप्त करने, छीन लेने अथवा स्वार्थ सिद्ध कर लेने की खींचतान चलती रहती है। मानव इतिहास में जब-जब प्रतिस्पर्धा सामने आई है, तब-तब एक पक्ष जीतता है और दूसरा अपमानित होकर पराजय का मुख देखता है। किन्तु इन तीनों भाइयों में त्याग करने की प्रतिस्पर्धा चल रही है। राम को दशरथ द्वारा कैकेयी को दिए गए वचनों के अनुसार चौदह वर्ष का वनवास हो चुका है यद्यपि दशरथ सहित सभी की इच्छा है की राम वन न जाएं। लक्ष्मण को वन जाने की कोई विवशता नहीं है किन्तु राम के मना करने पर भी वे वन को चल देते हैं। अयोध्या में रहकर ये समस्त राजवैभव का उपभोग कर सकते थे किन्तु वे केवल राम के स्नेह का वैभव ही चाहते थे। वे राम के अनुज, अनुगामी और अनुरागी थे। राम की आज्ञा पालन और उनके स्नेह के अतिरिक्त उनके लिए समस्त वैभव तुच्छ था।
चित्रकूट में राम और भरत में भी ऐसी ही त्यागपूर्ण प्रतिस्पर्धा होती है। मानव जाति के लंबे इतिहास में शायद ही कभी त्याग करने की ऐसी प्रतिस्पर्धा हुई हो। भरत राम से चित्रकूट में आग्रह करते हैं की या तो राम उनके साथ अयोध्या लौट चलें या वे स्वयं वन में रहेंगे और राम अयोध्या का राजपाट संभाले। किन्तु राम भरत से कहते हैं की भाई तुम अपनी प्रतिज्ञा का पालन करो और मैं पिता की आज्ञा का पालन करूंगा। तुम अयोध्या लौटकर अनेक कष्ट सहकर भी प्रजा का पालन करो और मुझे चौदह वर्ष के वनवास की अवधि पूर्ण करने दो। अंत में भरत राम की चरण पादुका लेकर अयोध्या लौट आए और नगर के बाहर नंदीग्राम में कुटिया बनाकर चौदह वर्षों तक वनवासियों जैसा कष्टï पूर्ण जीवन व्यतीत किया।
रावण जैसे पात्र हर युग में होते हैं और आज भी मौजूद हैं, वह प्रकांड पंडित था और उसके पास एक शक्तिशाली मस्तिष्क भी था परंतु उसका तमोगुण उसकी बुद्धि की तुलना में अधिक ताकतवर था। उसके पास अकूत धन वैभव था, पर वह विवेक रूपी वैभव से वंचित था, वह जीवन से कट चुका था एवं हृदय हीन हो गया था। रावण ने बड़ी कठोर तपस्या करके अपरिमित शक्ति प्राप्त की थी किन्तु संवेदना शून्य होने के कारण उसके जीवन में शांति एवं सच्चे सुख का अभाव था। अनेक बार बाहर से समृद्घ लगने वाले लोग अंदर से कंगाल होते हैं एवं समाज जिसे सुखी मानता है वे भीतर अशांति की आग में जल रहे होते हैं। संवेदना युक्त हृदय हमारे शरीर और मन से सुंदर काम कराकर मनुष्यता के दीपक को जलाता है, जबकि हृदय के विकास उपेक्षा करने वाला शक्ति सम्पन्न व्यक्ति हर एक वांछित वस्तु को दूसरे से छीन लेना चाहता है। अहंकार में डूबे हुए व्यक्ति को दूसरे की भावनाओं या कष्ट की कोई परवाह नहीं होती। ऐसे तथाकथित सफल व्यक्तियों से पर्यावरण दूषित होता है, परिवार टूटते हैं एवं यहां तक कि युद्धों की भी नौबत आ जाती है।

वाल्मीकि की रामायण एवं तुलसीदास के रामचरित मानस में राम के गतिपथ एवं उनके चरित्र का स्वर निरंतर सुनाई पड़ता है। राम अवतारी पुरुष थे एवं महामानव थे किन्तु थे तो मानव हीं। ये मानव शरीर धारी ऐसे विशेष पुरुष थे जो दो पैरों से चलता है, आहार-विहार करता है, बुद्धिपूर्वक विचार करता है, सुख में हंसता है, दुख में रोता है, दूसरे को प्रेम करने एवं दूसरे का प्रेम पाने की लालसा रखता है एवं जीवन में आए विपदा में विवेक पूर्वक निर्णय लेता है। राम मर्यादा पुरुषोत्तम थे। वे सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धर्म युक्त मर्यादाओं का पालन करने वाले नरश्रेष्ठ थे। ये यथासंभव स्थितप्रज्ञता बनाये रखते थे। प्रातकाल राजतिलक पाने वाले राम रात्रि के समय कैकयी के कटु एवं मृत्यु सदृश वचन सुनकर तनिक भी व्यथित नहीं हुए। उन्होंने कहा, ‘मां, ऐसा ही होगा। मैं महाराज की प्रतिज्ञा के पालनार्थ जटा और चीर धारण करके अवश्य ही वन चला जाऊंगा।Ó राम एक आदर्श राजा थे और प्रजा के पालनार्थ सब कुछ करने को तत्पर थे।
किन्तु फिर भी राम की कथा एक मानवीय कथा है एवं इसी कारण इसका प्रभाव इतना जादुई, व्यापक एवं शाश्वत है। महामानव राम चाहे जितने भी महान हों किन्तु ये हम जैसे मनुष्य की पहुंच के बाहर हों, ऐसा नहीं है।
रामायण और महाभारत जैसे ग्रथों को यदि हम भारत की जीवन परंपरा से अलग कर दें तो हमारे पास कुछ नहीं बचेगा। रामायण के सभी पात्र आज भी हमारे बीच एक या दूसरे रूप में जीते हैं समाज में कहीं जटायु तो कहीं कैकेयी भी दिखलाई पड़ जाती हैं। कहीं सीता के दर्शन होते हैं, तो कहीं मंदोदरी की सिसकियां भी सुनायी पड़ जाती है। कहीं अयोध्या का धोबी दिखाई देता है तो अशोक वाटिका में सीता की संभाल करने वाली त्रिजटा भी दिख जाती है। आज भी जहां मर्यादा एवं विवेक को सुशोभित करने वाला व्यक्ति मिल जाता है वहां सूक्ष्म रूप में राजा राम उपस्थित रहते हैं। जहां बंधु भाव एवं तप का सम्मिश्रण होता है, वहां लक्ष्मण होते ही हैं। जब प्राणशक्ति, शौर्य और विवेक का संगम होता है तो हनुमान जी अनिवार्य रूप से उपस्थित होते हैं मर्यादा भंग करने वाला रावण है तो मर्यादा में रहकर जो सत्य का पालन करें वह राम कहलाने का अधिकारी है।
हजारों वर्षों के पश्चात् राम कथा आज भी जीवंत लगती है। युग बदलता है फिर भी न मनुष्य बदलता है एवं न उसके इरादों और भावों में परिवर्तन आता है। फलस्वरूप राम कथा कभी बासी या ‘आउट ऑफ डेटÓ नहीं होती, रामायण न तो देवताओं का काव्य और न दानवों का यह तो मनुष्यता का महाकाव्य है। वाल्मीकि के राम महामानव है, नरश्रेष्ठ है। गोस्वामी तुलसीदास ने उन्हें लगभग भगवान का दर्जा दे दिया किन्तु फिर भी ये हमें लगता है की हम उनका अनुकरण कर सकते हैं। राम कथा के अमरत्व का यही रहस्य है।
