Bhagwan Vishnu Katha: प्राचीन समय में पुरंजन नामक एक अत्यंत यशस्वी और पराक्रमी राजा हुआ । उसका अविज्ञात नामक एक मित्र था । उसके कर्म बड़े ही रहस्यपूर्ण थे । फिर भी उन दोनों मित्रों में बड़ा प्रेमभाव था ।
एक दिन पुरंजन ने हिमालय के दक्षिण क्षेत्र में नौ द्वारों वाला एक भव्य नगर देखा । वह नगर सभी सुख-सुविधाओं से सम्पन्न था । नगर के निकट ही एक सुंदर वन था । पुरंजन प्रसन्न मन से उसमें विचरण करने लगा । वन में उसकी दृष्टि एक सुंदर युवती पर पड़ी, जिसके साथ दस सेवक और असंख्य सेविकाएँ थीं । एक भयंकर सर्प उसका रक्षक था, जिसके पाँच फन थे । उस युवती को देखकर पुरंजन मोहित हो गया और उसने युवती से विवाह कर लिया । विवाह के बाद पुरंजन नगर में ही रहने लगा । उसके नाम पर युवती का नाम पुरंजनी और उस नगरी का नाम पुरंजनपुरी पड़ गया । पुरंजनी से उसे ग्यारह सौ पुत्र और एक सौ दस पुत्रियाँ हुईं, जो पौरजनी कहलाईं । इसके बाद पुरंजन ने अनेक यज्ञों से देवताओं लोकपालों और पितृों की आराधना की । इस प्रकार उसकी युवावस्था बीत गई ।
इन्हीं दिनों काल की एक पुत्री वर की खोज में तीनों लोक में भटक रही थी । वह बड़ी भाग्यहीन थी, इसलिए लोग उसे दुर्भगा कहते थे । दुर्भगा यमन देश के राजा भय की शरण में गई और पति रूप में उसका वरण करने की इच्छा व्यक्त की । किंतु यवन देश के राजा भय और उसके भाई प्रज्वार ने उसे अपनी बहन बना लिया । वे तीनों अपने सैनिकों के साथ पृथ्वी पर विचरने लगे ।
एक बार उन्होंने सभी भोगों से युक्त पुरंजनपुरी को घेर लिया । इसके फलस्वरूप राजा पुरंजन की सारी वैभवता समाप्त हो गई । वह विवेकहीन हो गया । उसका ऐश्वर्य क्षीण हो गया । यवनराज भय की आज्ञा से सैनिक उसे बाँधकर ले जाने लगे । प्रज्वार ने पुरंजनपुरी को आग में भस्म कर दिया । अंत समय तक पुरंजन मोह माया में फँसकर पत्नी पुरंजनी और पुत्र-पौत्रों के विषय में सोचता रहा और अगले जन्म में विदर्भी नाम से विदर्भराज की पुत्री के रूप में जन्मा । विदर्भी के युवा होने पर पाण्ड्य देश के राजा मलयध्वज ने उससे विवाह किया । मलयध्वज को विदर्भी से एक कन्या और सात पुत्र प्राप्त हुए । राजा मलयध्वज ने अनेक वर्षों तक सुखपूर्वक राज्य भोगा । वृद्धावस्था में वह अपना राज्य पुत्रों में बाँटकर भगवान् श्रीकृष्ण की आराधना करने की इच्छा से विदर्भी सहित वन में चला गया । अनेक वर्षों तक भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करते हुए वह उन्हीं में विलीन हो गया । विदर्भी शोक से व्याकुल होकर विलाप करने लगी । उसने चिता बनाकर उस पर पति का शव रखा और सती होने का निश्चय कर लिया ।
तभी वहाँ एक ब्राह्मण आया । वह रोती हुई विदर्भी को शांत करते हुए बोला -“सखे ! पूर्वजन्म में मैं अविज्ञात नाम का तुम्हारा मित्र था । तुम और मैं मानसरोवर झील के हंस थे । हम एक हजार वर्ष तक बिना निवास स्थान के रहे थे । किंतु मित्र ! तुम सुख-सुविधाओं की इच्छा से मुझे छोड्कर भू-लोक पर चले आए । यहाँ तुमने पुरंजनी नामक युवती से विवाह किया और मोह-माया के बंधन में फँसकर अपने वास्तविक स्वरूप को ही भूल गए । मित्र ! न तो तुम विदर्भराज की पुत्री हो और न ही यह मलयध्वज तुम्हारा पति है । तुम पुरंजनी के भी पति नहीं हो । यह सब मेरी फैलायी हुई माया है ।” अविज्ञात द्वारा भूला हुआ आत्मज्ञान पुन: प्राप्त होने पर पुरंजन अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित हो गए । इस कथा में जीवन की विभिन्न दशाओं द्वारा दर्शाया गया है कि जीव कभी स्त्री, कभी पशु, कभी पुरुष होता है । सुख-सुविधाओं में फँसकर वह शरीर बदलता रहता है । उसे मुक्ति नहीं मिल पाती । मुक्ति केवल अनासक्ति से ही मिल सकती है ।
ये कथा ‘पुराणों की कथाएं’ किताब से ली गई है, इसकी और कथाएं पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं – Purano Ki Kathayen(पुराणों की कथाएं)
