maata ka hrday by munshi premchand
maata ka hrday by munshi premchand

माधवी- मालकिन, आप भी ऐसा कहती हैं।

मिसेज बाग़ची – झूठ नहीं कहती। बाबूजी की पहली स्त्री से पाँच लड़कियाँ और हैं। सब इस समय इलाहाबाद के एक स्कूल में पढ़ रही हैं। बड़ी की उम्र 15-16 वर्ष से कम न होगी। आधा वेतन तो उधर ही चला जाता है। फिर उनकी शादी की भी तो चिन्ता है। पाँचों के विवाह में कम-से-कम 25 हजार रुपये लगेंगे। इतने रुपये कहाँ से आएँगे? मैं चिंता के मारे मरी जाती हूँ। मुझे कोई दूसरी बीमारी नहीं है, केवल यही चिन्ता का रोग है।

माधवी- घूस भी तो मिलती है।

मिसेज बाग़ची- बूढ़ी, ऐसी कमाई से बरकत नहीं होती। यही क्यों, सच पूछो तो इसी घूस ने हमारी यह दुर्गति कर रखी है। क्या जाने, औरों को कैसे हजम होती है। यहाँ तो जब ऐसे रुपये आते हैं, तो कोई-न-कोई नुकसान भी अवश्य हो जाता है। एक आता है तो दो लेकर जाता है। बार-बार मना करती हूँ, हराम की कौड़ी घर में न लाया करो, लेकिन मेरी कौन सुनता है?

बात यह थी कि माधवी को बालक से स्नेह होता जाता था। उसके अमंगल की कल्पना भी न कर सकती थी। वह अब उसी की नींद सोती और उसी की नींद जागती थी। अपने सर्वनाश की बात याद करके एक क्षण के लिए उसे बाग़ची पर क्रोध तो हो आता था और घाव फिर हरा हो जाता था, पर मन पर कुत्सित भावों का आधिपत्य न था। घाव भर रहा था, केवल ठेस लगने से दर्द हो जाता था। उसमें स्वयं टीस या जलन न थी। इस परिवार पर अब उसे दया आती थी। सोचती, बेचारे यह छीन-झपट न करें, तो कैसे गुजर हो! लड़कियों का विवाह कहां से करेंगे! स्त्री को जब देखो, बीमार ही रहती। उस पर बाबूजी को एक बोतल शराब भी रोज चाहिए। यह लोग तो स्वयं अभागे हैं। जिसके घर में 5-5 कुंवारी कन्याएं हों, बालक हो-होकर मर जाते हों, घरनी सदा बीमार रहती हो, स्वामी शराब का लती हो, उस पर तो यों ही ईश्वर का कोप है। इनसे तो मैं अभागिनी ही अच्छी।

दुर्बल बालकों के लिए बरसात बुरी बला है। कभी खाँसी है, कभी ज्वर, कभी दस्त। जब हवा में ही शीत भरी हो, तो कोई कहां तक बचाए। माधवी एक दिन अपने घर चली गयी थी। बच्चा रोने लगा तो माँ ने एक नौकर को दिया, इसे बाहर से बहला ला। नौकर ने बाहर ले जाकर हरी-हरी घास पर बैठा दिया। पानी बरसकर निकल गया था। भूमि गीली हो रही थी। कहीं-कहीं पानी भी जमा हो गया था। बालक को पानी में छपके लगाने से प्यारा और कौन खेल हो सकता है। खूब प्रेम से उमंग-उमंग कर पानी में लोटने लगा। नौकर बैठा और आदमियों के साथ गपशप करता रहा। इस तरह घण्टों गुजर गए। बच्चे ने खूब सर्दी खायी। घर आया तो उसकी नाक बह रही थी। रात को माधवी ने आकर देखा तो बच्चा खाँस रहा था। आधी रात के करीब उसके गले में खुरखुर की आवाज निकलने लगी। माधवी का कलेजा सन से हो गया। स्वामिनी को जगाकर बोली- देखो तो बच्चे को क्या हो गया है। क्या सदी-वर्दी तो नहीं लग गई? ही, सर्दी ही तो मालूम होती है।

स्वामिनी हकबकाकर उठ बैठी और बालक की खुरखुराहट सुनी, तो पाँव तले से जमीन निकल गई। यह भयंकर आवाज उसने कई बार सुनी थी और उसे खूब पहचानती थी। व्यग्र होकर बोली- जरा आग जलाओ। थोड़ा-सा चोकर लाकर एक पोटली बनाओ, सेंकने से लाभ होता है। इन नौकरों से तंग आ गई। आज कहार जरा देर के लिए बाहर ले गया था, उसी ने सर्दी में छोड़ दिया होगा।

सारी रात दोनों बालक को सेंकती रहीं। किसी तरह सवेरा हुआ। मिस्टर बाग़ची को खबर मिली, तो सीधे डॉक्टर के यहाँ दौड़े। खैरियत इतनी थी कि जल्द एहतियात की गई। तीन दिन में बच्चा अच्छा हो गया, लेकिन इतना दुर्बल हो गया था कि उसे देखकर डर लगता था। सच पूछो तो माधवी की तपस्या ने बालक को बचाया। माता सोती, पिता सो जाता, किन्तु माधवी की आँखों में नींद न थी। खाना-पीना तक भूल गई। देवताओं की मनौतियाँ करती थी, बच्चे की बलाएं लेती थी, बिलकुल पागल हो गई थी। यह वही माधवी है, जो अपने सर्वनाश का बदला लेने आयी थी। अपकार की जगह उपकार कर रही थी। विष पिलाने आयी थी, सुधा पिला रही थी। मनुष्य में देवता कितना प्रबल है।

प्रातःकाल का समय था। मिस्टर बाग़ची शिशु के पालने के पास बैठे हुए थे। स्त्री के सिर में पीड़ा हो रही थी। वह चारपाई पर लेटी हुई थी और माधवी समीप बैठी बच्चे के लिए दूध गरम कर रही थी। सहसा बाग़ची ने कहा- बूढ़ी, हम जब तक जिएंगे, तुम्हारा यश जाएंगे। तुमने बच्चे को जिला लिया।

स्त्री- यह देवी बनकर हमारा कष्ट निवारण करने के लिए आ गयी। यह न होती तो न-जाने क्या होता। बूढ़ी, तुमसे मेरी एक विनती है। यों तो मरना- जीना प्रारब्ध के हाथ है, लेकिन अपना-अपना औरा भी बड़ी चीज है। मैं अभागिनी हूँ। अबकी तुम्हारे ही पुण्य-प्रताप से बच्चा सँभल गया। मुझे डर लग रहा है कि ईश्वर इसे हमारे हाथ से छीन न लें। सच कहती हूँ मुझे इसको गोद में लेते डर लगता है। इसे तुम आज से अपना बच्चा समझो। तुम्हारा होकर शायद बच जाये, हम अभागे हैं। हमारा होकर इस पर नित्य कोई-न-कोई संकट आता रहेगा। आज से तुम इसकी माता हो जाओ। तुम इसे अपने घर ले जाओ। जहाँ चाहे ले जाओ। तुम्हारी गोद में देकर मुझे फिर कोई चिन्ता न रहेगी। वास्तव में तुम्हीं इसकी माता हो। मैं तो राक्षसी हूँ।

माधवी- बहू जी, भगवान सब कुशल करेंगे, क्यों जी इतना छोटा करती हो?

मिस्टर बाग़ची- नहीं-नहीं बूढ़ी माता, इसमें कोई हर्ज नहीं है। मैं मस्तिष्क से तो इन बातों को ढकोसला ही समझता हूँ लेकिन हृदय से इन्हें दूर नहीं कर सकता। मुझे स्वयं मेरी माताजी ने एक धोबिन के हाथ बेच दिया था। मेरे तीन भाई मर चुके थे। मैं जो बच गया तो माँ-बाप ने समझा, बेचने ही से इसकी जान बच गई। तुम इस शिशु को पालो-पोसो। इसे अपना पुत्र समझो। खर्च हम बराबर देते रहेंगे। इसकी कोई चिन्ता मत करना। कभी-कभी जब हमारा जी चाहेगा, आकर देख लिया करेंगे। हमें विश्वास है कि तुम इसकी रक्षा हम लोगों से कहीं अच्छी तरह कर सकती हो। मैं कुकर्मी हूँ। जिस पेशे में हूँ उसमें कुकर्म किए बगैर काम नहीं चल सकता। झूठी शहादतें बनानी ही पड़ती हैं, निरपराधों को फंसाना ही पड़ता है। आत्मा इतनी दुर्बल हो गई है कि प्रलोभन में पड़ ही जाता हूँ। जानता हूँ कि बुराई का अंत बुरा ही होता है, पर परिस्थिति से मजबूर हूँ। अगर न करूँ तो आज नालायक बनाकर निकाल दिया जाऊँ। अंग्रेज हजारों भूल करें, कोई नहीं पूछता। हिन्दुस्तानी एक भूल भी कर बैठे, तो सारे अफसर उसके सिर हो जाते हैं। हिन्दुस्तानियों को तो कोई बड़ा पद न मिले, वही अच्छा। पद पाकर तो उसकी आत्मा का पतन हो जाता है। उनको अपनी हिन्दुस्तानियत का दोष मिटाने के लिए कितनी ही ऐसी बातें करनी पड़ती हैं, जिनका अंग्रेज के दिल में कभी खयाल ही नहीं पैदा हो सकता। तो बोलो, स्वीकार करती हो?

माधवी गदगद होकर बोली- बाबूजी आपकी इच्छा है तो भी जो कुछ बन पड़ेगा, आपकी सेवा कर दूँगी। भगवान बालक को अमर करें, मेरी तो उनसे यही बिनती है।

माधवी को ऐसा मालूम हो रहा था कि स्वर्ग के द्वार सामने खुले हैं और स्वर्ग की देवियाँ उसे आंचल फैलाकर आशीर्वाद दे रही हैं मानों उसके अन्तस्तल में प्रकाश की लहरें-सी उठ रही हैं। इस स्नेहमय सेवा में कितनी शान्ति थी।

बालक अभी तक चादर ओढ़े सो रहा था। माधवी ने दूध गरम हो जाने पर उसे झूले पर से उठाया, तो चिल्ला पड़ी। बालक की देह ठंडी हो गई थी और मुख पर वह पीलापन आ गया था, जिसे देखकर कलेजा हिल जाता है, कंठ से आह निकल आती है और आँखों से आँसू बहने लगते हैं। जिसने उसे एक बार देखा है, फिर कभी नहीं भूल सकता। माधवी ने शिशु को गोद से चिपटा लिया, हालांकि नीचे उतार देना चाहिए था।

कुहराम मच गया। माँ बच्चे को गले से लगाए रोती थी, पर उसे जमीन पर न सुलाती थी। क्या बातें हो रही थीं और क्या हो गया। मौत को धोखा देने में आनन्द आता है। वह उस वक्त कभी नहीं आती, जब लोग उसकी राह देखते होते हैं। रोगी जब संभल जाता है, जब वह पथ्य लेने लगता है, उठने-बैठने लगता है, घर-भर खुशियाँ मनाने लगता है, सबको विश्वास हो जाता है कि संकट टल गया, उस वक्त घात में बैठी हुई मौत सिर पर आ जाती है। यही उसकी निष्ठुर लीला है।

आशाओं के बाग लगाने में हम कितने कुशल हैं। यहाँ हम रक्त के बीज बोकर सुधा के फल खाते हैं। अग्नि से पौधों को सींचकर शीतल छाँह में बैठते हैं। हाय मंद बुद्धि।

दिन-भर मातम होता रहा, बाप रोता था, माँ तड़पती थी और माधवी बारी- बारी से दोनों को समझाती थी। यदि अपने प्राण देकर वह बालक को जिला सकती, तो इस समय अपना धन्य भाग्य समझती। वह अहित का संकल्प करके यहाँ आयीं थी और आज जब उसकी मनोकामना पूरी हो गई और उसे खुशी से फूला न समाना चाहिए था, उसे उससे कहीं घोर पीड़ा हो रही थी, जो अपने पुत्र की जेल-यात्रा से हुई थी। रुलाने आयी थी और खुद रोती जा रही थी। माता का हृदय दया का आगार है। उसे जलाओगे तो उसमें से दया की ही सुमन निकलती है, पीसो तो दया का ही रस निकलता है। वह देवी है। विपत्ति की क्रूर लीलाएँ भी उस स्वच्छ और निर्मल स्त्रोत कोमलिन नहीं कर सकतीं।

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