नाक कटी तो बाल भी कटे। इस लिए लोग नाक पर मक्खी नहीं बैठने देते।

नाक की शान, बान, आन ऊंची, चाहे नाक कैसी भी हो, छोटी, चपटी, मोटी या नुकीली। आखिर नाक तो नाक ही है।  नाक की बात हो तो नाक का आकार नहीं जांचा जाता। नाक की अपनी भी इज्जत है। 

कुछ समय पहले लोग नाक और मूंछ का बाल भी गिरवी रख लेते थे। इतना मान था नाक का। नाक गई मान गया। इसलिए संभालना नाक को ही था।  एक नाक के लिए ही रावण जैसे महाबली ने अपनी स्वर्णनगरी दांव पर लगा दी।

नाक के लिए मुल्क उजड़े भी बसे भी। नाक के कारण ही कचहरी मुकदमों से भरी रहती है।  कोई नाक के नाम पर नदी में कूद गया, कोई फांसी के फंदे पर झूल गया और कोई नाक के लिए कचहरी में जूते घिस रहा है। नाक है सारे फसादों की जड़। क्या पता कब किसे नाकों चने चबवाने पड़ जाएं। 

पैरों में गिरकर नाक रगड़ना अपमान की पराकाष्ठा है। ऐसे ही सिर की पगड़ी भी कम नाक वाली नहीं है, जिसके सिर पर पगड़ी उसकी नाक सबसे ऊंची। पगड़ी की इज्जत बचाने के लिए नाक को ऊंचा रखना जरूरी है।  अक्सर पिक्चर में लड़की का पिता लड़के के पिता के पांव में अपनी पगड़ी या टोपी रखकर अपनी नाक बचाता था। ये पुराने जमाने की बातें हुईं। अब लड़की पिता की पगड़ी और नाक को पकड़े खड़ी रहती है। अब किस माई के लाल में हिम्मत है कि पिता पुत्री को झुका सके।

यानी नाक और पगड़ी का चोली-दामन का साथ, बेशक अब चोली ही रह गई है दामन दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन यह मुहावरा अभी तक ज़्यों का त्यों खड़ा है। नाक के लिए ऐसा कोई कपड़ा नहीं बना जो पगड़ी पर भारी पड़ता। नाक अपनी अस्मिता की लड़ाई अकेली ही लड़ रही है। 

पर अब वक्त ने पलटा खाया और नाक को भी ढाल (मॉस्क) मिल गई। यह ढाल स्त्री-पुरुष, बूढ़े-जवान, बच्चे सब की नाक मुंह पर चिपक गई।  न अब नाक दिखाई देगी न नाक की बात उठेगी। इससे नाक और मूंछ के बाल भी गायब हो गये। मूंछ ऐंठने में जो अपना वक्त जाया करते थे, वे अब मुंह नाक ढकने की सोचेंगे। यदि बिना ढके निकले तो पैनल्टी देनी पड़ेगी जैसे बिना घूंघट के दुल्हन को देनी पड़ती थी। अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे।

पान से रचे लाल-लाल ओंठ (पान बनारस वाला), लिपस्टिक से रचे लाल गुलाबी अधर, अधर मकरंद पान को लालायित भौंरे, एक अजीज प्यार भरे चुंबन की दरकार,  ‘नाक का मोती अधर की कान्ति से, बीज दाड़ीम का समझकर भ्रान्ती से, हुआ शुक मौन है, पूछता है दूसरा शुक कौन हैÓ ऐसे उपमाओं के क्या अर्थ रह गये।

नाक की नथ उतारने की भी एक प्रथा है। अब पहले पगड़ी उतरे फिर नथ के बारे में सोचा जाए। नथ और पगड़ी का साथ कुछ जमता नहीं।  दुल्हन की जिद्द की मर जाऊंगी पर नाक की पगड़ी (मॉस्क) नहीं उतारूंगी। लीजिए यह प्रथा गई पानी में। अब नाक छिदवा कर हीरे की लौंग या नथनी पहनने का झंझट ही खत्म। नथ नहीं उतरेगी तो शादी का क्या मतलब?

जाने कितने प्रतिमान नाक, नाक की नथ और नाक की लौंग पर गढ़े गये और अधर रसाल बने कवियों की प्रयोगशाला में नित नूतन उपमाओं से मुखरित होते रहे। मुखारविंद की जगह अब मुखार मॉस्क जमेगा क्या? रसिक किस रसाल को चूमें और किस रसालय में डुबकी लगाएं।  क्या पता कोरोनावायरस किस के ओंठों पर किस कर जाए।

वाह! मोदीजी (क्षमा करें) आपने सबकी कामनाओं पर तुषारापात करते हुए नाक और मुंह पर ऐसी पगड़ी पहनाई कि अब कोई उतारने को तैयार ही नहीं। दिल के अरमान दिल में ही रह गये। आह! मोदीजी, योगी जी आपने कभी अधरामृत चखा ही नहीं तो उसका स्वाद कैसे जानेंगे।  विश्व पटल पर अपनी नाक ऊंची करने के लिए सबकी नाक ढक दी और समझा दिया कि नाक ढक कर और मुंह बंद रखने में ही सबकी 

भलाई है…।