एक राज्य में परंपरा थी कि जब किसी की मृत्यु हो जाती तो उसका अंतिम संस्कार कराने वाला पुरोहित, उसके पुत्र से मिट्टी के बर्तन में कुछ पत्थर भरवाकर उसको जमीन पर पटकने के लिए कहता था। यदि बर्तन टूट जाता और पत्थर धरती पर फैल जाते तो वह घोषणा करता कि मरने वाले की आत्मा सीधे स्वर्ग में जाएगी। अधिकांशतः मिट्टी का होने की वजह से बर्तन टूट ही जाता था और उसे भरपूर दक्षिणा मिल जाती थी। एक दिन एक धनिक की मृत्यु हो गई। संयोग से उसी दौरान राज्य में एक पहुँचा हुआ साधु आया हुआ था।
धनिक का पुत्र उसके पास पहुँचा और बोला, कि मैं यह सुनिश्चित करना चाहता हूँ कि मेरे पिता स्वर्ग में जाएं। साधु ने उससे कहा कि मिट्टी की दो हांडियां, जिनमें एक में घी और दूसरी में पत्थर भरे हों, लेकर नदी में जाओ और उन्हें एक दूसरे से टकराकर नदी में छोड़ दो। फिर मुझे बताना कि क्या हुआ।
साधु के बताए अनुसार कार्य करके जब युवक लौटा तो उसने बताया कि जो घी था, वह पानी पर बह गया और जो पत्थर थे, वो डूब गए। साधु ने उसे समझाया कि ऐसे ही हमारे कर्म हैं। यदि वे अच्छे हों तो हमें स्वर्ग में जाने से कोई नहीं रोक सकता और यदि हमारे कर्म खराब होंगे तो वे भी पत्थर की तरह डूब जाएंगे और हमें भी मुक्ति नहीं मिलेगी।”
सारः मनुष्य के कर्म ही उसकी नियति निर्धारित करते हैं।
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