jab chalee pichakaaree rangon kee Motivational story
jab chalee pichakaaree rangon kee Motivational story

होली थी। खूब रंग-रंगीली छैल छबीली होली। और उसके मस्ती भरे रंगों की चमक जितनी खुशी और गोलू के चेहरे पर थी, उतनी ही मम्मी-पापा के चेहरे पर भी। पापा घर के आगे वाले बगीचे में गेंदा और गुलाब की क्यारियों के पास धीरे-धीरे टहल रहे थे। अहा, फागुन में उनकी क्या रंगत, क्या खुशबू थी! जैसे फागुनी हवाओं से उन्होंने जमकर होली खेली हो, और अब शरमाकर मीठी हँसी बिखेर रहे हों। गेंदा और गुलाब। उनके दोनों प्यारे फूल।

वे आनंद में विभोर थे। शायद किसी नए फागुनी गीत की दो-एक पंक्तियाँ भी होंठों पर नाच रही थीं। सोच रहे थे, देवयानी को फुरसत मिले तो जरा उसे भी तरन्नुम में सुनाएँ, और थोड़ी राय ले लें। देवयानी की राय अकसर सौ टके की होती है। पर देवयानी को आज सुबह – सुबह बच्चों के लिए खस्ता मठरियाँ बनाने की सूझ गई थी। बोली, “बस, घंटे भर में बनी जाती हैं। तब तक तुम बाहर टहल लो, सुधाकर। फिर नाश्ता करके निकलेंगे अड़ोस-पड़ोस में होली खेलने…!” सो पापा अभी-अभी बने फागुनी गीत में खोए थे। कुछ अच्छी पंक्तियाँ सूझ गई थीं। मन ही मन उन्हें तरतीब में बैठा रहे थे। बीच-बीच में देख लेते कि खुशी और गोलू पूरे जोश से होली खेलने की तैयारी में जुटे हुए थे।

उन्हें देख, मन में फागुन का रंग और गाढ़ा हो जाता। अभी हवा में कुछ ठंडक थी। पापा सोच रहे थे, थोड़ी धूप निकले तो मोहल्ले के मित्रों को गुलाल लगाकर होली का मजा लें। तब तक देवयानी को भी फुरसत मिल जाएगी। बरसों से नियम था। दोनों पति-पत्नी साथ-साथ निकलते थे मोहल्ले में होली खेलने। इस बहाने सबसे मिलना हो जाता। हरा, पीला और गुलाबी तीन रंगों के गुलाल की थैलियाँ उनके कुरते की जेब में थीं। उन्हीं से खेलते थे रंग। मित्रों को तिरंगा बनाने में मजा आता था। मगर गली के बच्चे अकसर गीला रंग भी डाल देते। इतनी सुबह – सुबह गीला रंग पड़ने की कल्पना से ही उन्हें सिहरन होती थी। इसलिए कुछ देर से निकलना ही ठीक लगता था। पर बच्चों के जोश का तो क्या कहना! उन्हें तो कई दिनों बाद आज मौका मिला था मस्ती करने का, जिसका इंतजार न जाने वे कब से कर रहे थे। अपनी-अपनी बालटी और पिचकारी लेकर सब बाहर आ गए थे। एक-दूसरे पर ‘हा-हा, ही ही, ठी-ठी- ठी…!’ करके रंग डाल रहे थे। उछल-उछलकर रंग डाल रहे थे, और रंग डालने के बाद फिर वही प्यारी और मीठी सी खिड़ – खिड़… खुदर – खुदर – खुदर…! पापा बगीचे से बच्चों की यह रंगीन खिल-खिल देख रहे थे और मुसकरा रहे थे। अचानक उन्हें कुछ याद आया। बोले, “देखो खुशी बेटी, अपने बराबर वालों पर ही रंग डालना, बड़ों पर नहीं। कहीं कोई बुरा न मान जाए!” “ठीक है पापा।” खुशी बोली। फिर नन्हे गोलू को भी यह बात समझाने लगी कि देख गोलू, समझ गया न, पापा क्या कह रहे हैं, मतलब… मतलब …! पता नहीं क्या बात थी कि खुशी के समझाने पर गोलू झट मान जाता था। वैसे वह थोड़ा जिद्दी और अड़ियल था। मम्मी के ज्यादा लाड़ में बिगड़ा हुआ। सो जब अड़ जाता तो किसी खूँटे की तरह अड़ ही जाता। फिर न टस, न मस। इसलिए गोलू को कोई बात समझानी होती तो मम्मी-पापा खुशी से ही कहा करते थे। खुशी दीदी की बात सुनते ही खुद-ब-खुद गोलू की गरदन दाएँ-बाएँ हिलने लगती थी। मम्मी-पापा को भी थोड़ा चैन पड़ जाता था। खुशी और गोलू ने एक-दूसरे पर खासा रंग डाला था, आस-पड़ोस के बच्चों पर भी। और अब गली में इधर-उधर निगाहें दौड़ा रहे थे, ताकि कोई बच्चा दिखाई पड़े और वे अपना करतब दिखाएँ। इतने में सामने वाले घर में बालकनी से झाँकती निक्की दिखाई पड़ी। एकदम सूखचिड़ी सी थी निक्की, पर बड़ी तेज। जैसे उसकी साँवली नाक लंबी, तीखी और नोकदार, ऐसे ही उसके करतब कमाल के। निक्की के हाथ में रंग से भरा गुब्बारा था, जिसे फेंकने के लिए वह छिपी हुई नजरों से इधर-उधर देख रही थी। किसी बढ़िया शिकार की तलाश में थी। गोलू ने नीचे से ही उस पर पिचकारी चलाई तो निक्की को मौका मिल गया। उसने झट गुब्बारा उस पर दे मारा। गुब्बारा फूट गया और गोलू रंग से एकदम सराबोर हो गया। गोलू हँसा, ही – ही – ही, हा हा हा…! हँसते-हँसते वह एकदम लोटपोट हो गया। “आहा, क्या मजे की बात है! क्या मजे की…!” मस्ती में आकर वह जोर-जोर से तालियाँ पीट रहा था। गोलू के सामने के दो दाँत टूटे हुए थे। उन टूटे दाँतों से छलकती उसकी पोपलू हँसी ऐसी मजेदार लग रही थी कि देख-देखकर खुशी भी हँसने लगी। उधर निक्की भी कौन कम थी। मस्ती में आकर उसने अपनी बालकनी में डांस शुरू कर दिया था। और नाचते-नाचते ही वह जीभ निकालकर गोलू को चिढ़ा भी रही थी, “आया मजा बच्चू, आया… आया…? बड़ा पिचकारी चला रहा था मेरे पे…! और चला पिचकारी… और…!!” और फिर हुआ वही, जिसका पापा को डर था। अब बाकायदा गोलू की जिद शुरू हो चुकी थी, “सुन लो खुशी दीदी, मैं भी गुब्बारा लूँगा। गुब्बारे में भर-भरकर रंग डालूँगा। … सुन लिया न! … सुन लिया…?” * खुशी को मालूम था कि पापा को यह पसंद नहीं है कि दूर से गुब्बारा फेंककर रंग डाला जाए। उसने गोलू को समझाया। पर इतनी आसानी से मान जाए तो भला गोलू को गोलू कौन कहेगा? गोलू को ज्यादा ठिन -ठिन करते देख, खुशी ने फिर समझाने की बहुत कोशिश की। पर आज जाने क्या बात थी, गोलू उससे सँभल ही नहीं रहा था। एकदम तड़-तड़ाक …! “ना जी ना, मैं भी गुब्बारे में रंग डालकर खेलूँगा। गुब्बारे से रंग डालने में ज्यादा मजा आता है…!” गोलू लगातार जिद किए जा रहे था। उस पर आँसू और लगातार रीं-रीं-रीं अलग से। “देखो गोलू, कल ही पापा ने मना किया था न! गुब्बारे से किसी को चोट लग सकती है। अगर किसी की आँख में लग गया तो…?” “नहीं जी, मैं तो गुब्बारा ही लूँगा।” गोलू जिद ठानकर बैठ गया। उसने पिचकारी दूर पटक दी। “अच्छा, चल, जाकर पापा से पैसे ले आ।” खुशी ने दाँव चला, ताकि गोलू पापा के पास जाए और पापा उसे अच्छी तरह समझा दें। “पर पापा ने न दिए तो? मेरी प्यारी बहन, तू ही लेकर आ जा ना!” गोलू ने चापलूसी करते हुए कहा। “अच्छा चल, मैं भी चलती हूँ तेरे साथ!” खुशी हँसकर बोली। फिर पापा के पास जाकर कहा, “पापा… पापा, गोलू को पैसे चाहिए गुब्बारे के लिए।” “गुब्बारे…! क्यों भई?” पापा ने चौंककर कहा, “गुब्बारे किसलिए…?” “गोलू गुब्बारे में रंग डालकर औरों पर फेंकेंगा ना! यह कहता है कि बहुत-से बच्चे गुब्बारों से रंग डाल रहे हैं, बड़ा मजा आता है।

अभी – अभी वो सामने वाली निक्की ने भी अपनी बालकनी से इस पर गुब्बारा…!” खुशी ने राज खोला। “पर बेटा, इससे तो किसी को नुकसान हो सकता है। होली तो हँसी-खुशी और प्यार का त्योहार है न!” “पापा, बिना गुब्बारे के मजा नहीं आता।” गोलू ने लंबूतरा मुँह बनाकर कहा, “गुब्बारे से कितना अच्छा लगता है। बस, दूर से निशाना लगाकर फेंको, जैसे बम का गोला। ही – ही – ही…!” गोलू को खुद अपनी बात पर ही हँसी आ गई थी। पापा ने प्यार से झिड़का, “अरे पागल, होली क्या लड़ाई का त्योहार है? यह तो प्यार का त्योहार है। जिस पर रंग डालो, वह भी हँसे, तुम भी हँसो, तब मजा है होली का! देखो, हमारे जमाने में तो कोई एक-दूसरे पर गुब्बारे नहीं फोड़ता था। तो क्या हम होली का आनंद नहीं लेते थे…?” “अच्छा पापा, तो क्या आप भी बचपन में होली का हुड़दंग मचाते थे। खूब? … ऐसे ही जैसे हम बालटी और पिचकारी लेकर बाहर सड़क पर निकल आए हैं।” कहते-कहते गोलू की आँखें फैलती जा रही थीं। “और क्या? खूब रंग डालते थे, खूब हल्ला होता था। होली का पूरा कमाल और धमाल…..! समझो, धरती तो क्या, पूरा आसमान ही रँग जाता था।… मगर हम किसी को तंग नहीं करते थे। और होली से एक दिन पहले तो बच्चों को पूरी छूट थी कि चाहे जिस पर रंग डालो। उसे हम ‘छोटी होली’ कहते थे। उस दिन ऐसा मजा आता था कि कुछ न पूछो। हा-हा, हा – हा-हा…!” पापा जोरों से हँसे। फिर हँसते-हँसते बोले, “और भई गोलू महाराज, एक दिन तो बड़ा तमाशा ही हो गया। ऐसा कि बस पूछो ही मत।” कहते-कहते पापा रुक गए। बोले, “रहने दो, लंबी कहानी है। फिर कभी…!” मगर खुशी ने जिद ठान ली, “एक दिन… क्या हुआ था? क्या हुआ था पापा एक दिन, बताओ ना?” “कहानी, कहानी…!” गोलू उछलकर तालियाँ बजाने लगा। कहानी के चक्कर में वह गुब्बारा और पिचकारी दोनों भूल गया था। अगले ही पल खुशी और गोलू दोनों पापा के बिल्कुल पास खिसक आए। दोनों ने बड़ी मनुहार करते हुए कहा, “सुनाओ ना पापा, किस्सा वही वाला…!” “कौन सा?” “वही, जिसमें आपने बचपन में होली खेली थी!” खुशी ने हँसते हुए कहा। “अरे, बस छोटी-सी तो बात थी। कहानी कह लो, किस्सा कह लो। पर थी तो असली घटना। बिल्कुल असली वाली…!” “हुआ क्या था पापा?” गोलू ने आँखें गोल-गोल घुमाते हुए पूछा। “अरे, होना क्या था?” पापा बोले, “अच्छा चलो, सुन ही लो वह किस्सा।” और फिर पापा जैसे बचपन में ही पहुँच गए। सुर में आकर लगे सुनाने वह किस्सा : * भई, उस दिन हुआ यह कि मैं थोड़ा ज्यादा ही रंग में आ गया। बचपने का जोश। चारों तरफ होली का हुड़दंग था। ‘होली है, होली है….!’ हर तरफ बस यही आवाजें सुनाई देती थीं। और मैं कितना बड़ा था तब? बस, यह समझ लो खुशी बेटी, कि मैं तुम्हारी ही उम्र का था तब। पहली या दूसरी कक्षा में पढ़ता था। तो होऊँगा कोई पाँच-छह बरस का थोड़ा जिद्दी भी था, एकदम गोलू की तरह।… फिर उन दिनों होली के त्योहार की तो बात ही क्या थी। बड़े ही जोश-खरोश से मनाया जाता था। और बच्चों को तो कई रोज पहले से रंग डालने की छूट मिल जाती थी। यों बड़े लोग हमेशा थोड़ी रोक-टोक करते, समझाते भी थे कि ‘बेटा, अभी से नहीं। होली आने दो, होली पर रंग डालना!…या फिर चलो, होली से एक दिन पहले ही सही, यानी छोटी होली वाले दिन!’ और सचमुच छोटी होली वाले दिन… यानी जिस रोज होलिका दहन होता था, हमें रंग डालने की पूरी छूट मिल जाती थी। वह दिन तो पूरी तरह हमारी आजादी का दिन होता था। रंग की कई-कई बालटियाँ लग जाती थीं, तब भी हमें चैन न पड़ता था। हमें लगता था, कोई हमारी गली से निकले और बिना रंग डलवाए सूखा ही निकल जाए, यह तो बड़ी शर्म की बात है। दो-तीन बालटी रंग तो हमारा हमेशा तैयार ही रहता था। फिर सूखे रंग की पुड़ियाँ जेब में अलग से पड़ी रहा करती थीं। एक बालटी खत्म हुई तो अंदर से दूसरी ले आए, तीसरी ले आए। फिर खत्म होने पर दो-चार बालटी रंग और घोल लिया। यों चलता था हमारा खेल सारे दिन! … और अकेले तो हम थे नहीं। दस-पंद्रह बच्चों की एक पूरी टोली हुआ करती थी हम होली के नन्हे-मुन्ने हुलियारों की। घर के सामने खूब बड़ा-सा मैदान था, उसी में खेलते थे। उसमें चार तरफ से चार रास्ते खुलते थे और हमें बड़ा सतर्क रहना पड़ता था कि कहीं कोई बचके न निकल जाए। और जो भागा, उसकी तो बस शामत ही आ गई। टोली के बच्चे उसे पकड़कर और भी ज्यादा रंग देते थे। … सबको यह बात पता थी। इसलिए ज्यादातर लोग जो वहाँ से निकलते थे, पहले ही हँसकर कह दिया करते थे, “अरे बच्चो! जरा थोड़ा ही रंग डालना। अभी ठंड बाकी है, कहीं तबीयत न खराब हो जाए।” ऐसे लोगों को थोड़ी छूट मिल जाती, वरना तो जो भी निकलता, उसे तरबतर किए बगैर हमें चैन ही न पड़ता। … कहते-कहते पापा थोड़ा रुके। जैसे किसी पुरानी किताब के पन्ने पलट रहे हों। फिर एकाएक सुर में आ गए। हँसते-हँसते उन्होंने आगे की कहानी सुनानी शुरू की- तो भई, ऐसी ही छोटी होली वाले दिन का यह किस्सा है, जो मैं तुम्हें सुना रहा हूँ। पूरा दिन यों ही हुड़दंग करते बीत गया था और अब शाम होने को थी। बालटी में थोड़ा ही रंग बाकी था। हम सोच रहे थे किसी पर डालें और फिर आज का यह रंगारंग प्रोग्राम बंद किया जाए। मगर भई, डालें किस पर? कोई सूखा आदमी तो नजर ही नहीं आता था। जिसे देखो, वह रंगों से सराबोर! बस, समझो कि हवाएँ तक रंग-बिरंगी हो चुकी थीं। इतने में खूब शानदार आसमानी सूट और बढ़िया जूते पहने, टाई लगाए एक लंबे-चौड़े, रोबदार शख्स दिखाई पड़े। चमचमाते जूते, खूब अकड़ भरी चाल! हम समझ गए, ये साथ वाली गली के मिस्टर खरैतीलाल हैं, जो किसी दफ्तर में काम करने जाते हैं। बड़े अफसर हैं। उन्हें इस कदर शान और बेपरवाही से जाते देखकर टोली में मानो सन्नाटा-सा छा गया। सबने एक-दूसरे की ओर देखा, है किसी में हिम्मत इन पर रंग डालने की? सभी की हिम्मत जवाब दे रही थी। फिर सबने मेरी ओर देखा। मैं टोली का नेता जो ठहरा! था तो मैं भी अपने घर के सामने वाली निक्की की तरह, एकदम सूखचिड़ी सा। मगर हिम्मत बहुत थी। … और अब तो बात इज्जत की थी। तो क्या ये सूटेड-बूटेड मिस्टर खरैतीलाल ऐसे ही निकल जाएँगे? बगैर रंग डलवाए…! यह तो हमारे चौक की होली की तौहीन थी। मैंने हिम्मत की। पूरी पिचकारी भरी और हलके कदमों से, चुपके-चुपके उनके पीछे हो लिया। जब थोड़ा उनके पास आ पहुँचा तो मैंने पूरी पिचकारी चला दी – छिर्र… छिर्र…! आहा, क्या देखने वाला दृश्य था! उनके शानदार आसमानी कोट पर गुलाबी रंग से ऐसी बढ़िया ड्राइंग बन गई थी कि देखकर किसी का भी जी खुश हो जाता। मगर खरैतीलाल…! पिचकारी की आवाज सुनकर पहले तो उन्हें यकीन ही नहीं आया कि रंग उन्हीं पर डाला गया है। और फिर पता चला तो वे गुस्से में आग-बबूला हो गए। वे बिजली की सी तेजी से पलटे और मेरे पीछे ऐसे दौड़े, जैसे अभी उठाकर पाताल में फेंक देंगे। अब आगे-आगे मैं, पीछे-पीछे वो। मैं पूरी ताकत से अपने को बचाने के लिए दौड़ रहा था, और वो पकड़कर मेरी गरदन मरोड़ने के लिए। बड़ा ही मजेदार खेल था। पर मेरा दिल इस कदर तेजी से धड़क रहा था कि कुछ पूछो मत। लगा कि बच्चू, आज तो गए काम से! पर भागते-भागते जैसे ही मैं घर की देहरी के पास आया, झट छलाँग लगाकर एक ही बार में घर के अंदर जा पहुँचा। ‘ओ राम जी! बच गए…!’ अब मैं अपने घर में था। जैसे कोई राजा अपने किले की चारदीवारी के अंदर पहुँच गया हो। मिस्टर खरैतीलाल ने भी मेरे पीछे भागते-भागते उसी तरह छलाँग लगाने की कोशिश की। मगर भई, वे तो जूते पहने हुए थे। फिर देहरी पर रंग भी बहुत सारा फैला हुआ था। वहाँ काफी गीला – गीला सा था। सो वे देहरी फलाँगने के चक्कर में फिसले तो फिसलते ही चले गए। अब तो उनके कोट-पैंट की हालत बुरी थी। जितना रंग हमने नहीं डाला था, उससे अधिक तो जमीन पर फिसलने से खुद-ब-खुद लग गया था। यानी मिस्टर खरैतीलाल ‘मल्टीकलर’ हो चुके थे।

बेचारे…! * खैर, एक झटके के साथ वे उठे और फिर अंदर दौड़ पड़े। मेरी माँ से शिकायत करते हुए बोले, “देख चाची, तेरे लाड़ले ने कैसी होली कर दी। पूरे सूट का सत्यानास…!” इस पर मैंने बड़ी मासूमियत से कहा,” माँ, मैंने तो जरा-सा ही रंग डाला था। ये हमारे चबूतरे पर फिसले तो फिसलते ही चले गए। खुद ही इतना सारा रंग लग गया।” उनकी हालत देखकर माँ को थोड़ी हँसी भी आ रही थी। पर गंभीर होकर बोलीं, “अरे खरैतीलाल, यह तो ठीक है कि बच्चों ने ठीक नहीं किया। मैं डाँदूँगी इन्हें।… पर एक बात बता। ये तो बच्चे हैं, पर तूने कौन सी समझदारी दिखाई कि आज होली वाले दिन इतना बढ़िया और ड्राईक्लीन किया हुआ सूट पहनकर निकल आया बाहर…?” खरैतीलाल बेचारे शर्मिंदा हो गए। सफाई देने लगे कि “चाची, बात ये है…बात वो है!” पर बात असल में कुछ थी ही नहीं, तो वे कहते भी क्या? सोच रहे थे, मेरे लकदक सूट पर रंग डालने की हिम्मत कौन दिखाएगा? बेचारे, इसी चक्कर में फँस गए! उधर माँ अलग समझा रहीं थीं, “देख खरैतीलाल, बच्चों की टोली तो लंगूरों की सेना ठहरी। होली में इन्हें थोड़ी-बहुत छूट तो मिलनी चाहिए कि नहीं? आज छोटी होली है, इसलिए जरा जोश भी ज्यादा है बच्चों में।” फिर माँ ने मुझे भी समझाया, “बेटा, होली में झगड़ा किसी से नहीं करते। यह तो प्यार बढ़ाने वाला त्योहार है।” बस, हम नन्हे-मुन्ने बच्चों की टोली को गलती समझ में आ गई और हमने अपना हुल्लड़ काफी कम कर लिया। अगले दिन होली थी। हमने सुबह से अपनी पिचकारी और बालटी निकाल ली थी और हा-हा करते हुए मजे में रंगों से खेल रहे थे। इतने में ही घर में बड़ों की टोली आई। उनमें मिस्टर खरैतीलाल भी थे। मुझे लगा, कहीं कुछ कह न दें, इसलिए मैं नंदू भैया के पीछे जा छिपा। मगर खरैतीलाल भी कम नहीं थे। उन्होंने देख लिया। जोर से आवाज लगाई, “कहाँ गया चंदर, इधर तो आ! कल तो बड़ा शेर बन रहा था। आज भाई के पीछे छिपा है?” चुनौती मिली तो मुझे भी जोश आ गया। अपनी बालटी उठाकर लाया और पिचकारी भर-भरकर उनको रँगने लगा। इतने में खरैतीलाल बोले, “वो देख, तेरा दोस्त आया है…!” मैं पीछे मुड़ा तो उन्होंने पूरी बालटी उठाई और मेरे सिर पर उलट दी। मैं रंगों में सराबोर हो गया तो एक साथ हँसी छूट निकली, मेरी भी, मिस्टर खरैतीलाल की भी। इतने में माँ भीतर से लड्डू, गुझिया और नमकीन लेकर आईं। हमारी हालत देखकर उनकी भी हँसी छूट निकली। सबने खूब गुझिया खाईं। खूब हँसे, खिलखिलाए और गाने गाए! … तो अब समझ लिया ना खुशी, यह थी हमारी होली। हमारे जमाने की होली …! कहानी सुनाकर पापा ने कहा, “अरे खुशी… अरे गोलू, तुम लोग कहाँ खो गए भई? कहीं सो तो नहीं गए?” गोलू बोला, “पापा… पापा, आपकी बात समझ में आ गई।… अब मैं गुब्बारे नहीं लूँगा। मेरी तो पिचकारी ही ठीक है। पिचकारी से रंग डालने में ज्यादा मजे आते हैं।” कुछ देर बाद खुशी और गोलू पिचकारी लेकर फिर उसी तरह रंगों से खेल रहे थे। पापा और मम्मी दोनों छत से देख रहे थे। देख रहे थे और हँस रहे थे।