shaanti ka Stupa moral story
shaanti ka Stupa moral story

वीरपुर का राजा रज्जबसिंह ऐसा महाबली था कि उसका नाम सुनते ही उसके शत्रु काँपने लगते। आस-पड़ोस के राजा हमेशा डरे-डरे से रहते। रात में डरते-डरते सोते। सुबह डरते-डरते जागतेे कि पता नहीं कब, क्या हो जाए! जाने कब रज्जबसिंह अपनी विशाल सेना के साथ आ जाए और उनका सब कुछ छीनकर उन्हें कारागार में डाल दे और पल भर में राजा से रंक बना दे।

रज्जबसिंह को अपनी ताकत का पता था, इसलिए उसकी निगाहें ऊपर-ऊपर की ओर रहतीं। मानो धरती नहीं, वे हर वक्त आसमान को देखती रहती हैं। अपनी हर विजय के साथ अड़ोस-पड़ोस के एक और राजा को उजाड़कर रज्जबसिंह सोचता, शायद आसमान में तारों के बीच मेरी एक और जयगाथा लिखी गई है। और जवाब में जब तारे झिलमिल-झिलमिल करके हँसते नजर आते तो रज्जबसिंह सोचता, ‘ओह, तारे भी मेरी जीत से कितने खुश हैं!’

मगर उस जीत की कितनी कीमत उसके देश की प्रजा को चुकानी पड़ती है, इसकी ओर उसका बिल्कुल ध्यान नहीं था। और न इस ओर कि जिस राज्य को वह जीतता है, उसकी प्रजा की कराहों में कितना दुख, कितनी तकलीफ छिपी होती हैं। कितना खूब-खराबा, कितना रक्तपात होता है तब कहीं यह जीत हासिल होती है!

एक दिन लंबा तिलक लगाए एक ज्योतिषी राजदरबार में आया। राजा की युद्ध जीतने की सनक का उसे पता था। इसलिए आते ही उसने राजदरबार में कहा, ”महाराज, आपकी गिनती इस धरती के महान राजाधिराजों में होगी। आप पूरे तेंतीस युद्ध जीतेंगे।”

ज्योतिषी तो अपनी बात कहकर स्वर्ण मुद्राओं से भरी तेंतीस थैलियाँ लेकर चला गया। पर राजा रज्जबसिंह के मन में युद्ध का नशा और भर गया।

अब तो राजा बात-बात पर युद्ध छेड़ देता। हमेशा इससे या उससे युद्ध की फिराक में रहता। और कुछ नहीं तो जबरदस्ती युद्ध का बहाना गढ़ देता। रात-दिन के इस युद्ध से सैनिक तो परेशान थे ही, प्रजा अलग परेशान थी। पर राजा पर कोई असर नहीं पड़ रहा था। उसे लगता, हर नए युद्ध के साथ उसकी पगड़ी में एक नया मोर पंख लग जाता। और बस चौबीसों घंटे या तो वह युद्ध लड़ता या फिर युद्ध के इंतजार में रहता। उसकी सनक यहाँ तक जा पहुँची कि वह सपने भी युद्ध के ही देखता था।

एक बार राजा रज्जबसिंह ने पड़ोस के सुहासपर राज्य पर भी हमला करने की योजना बना ली। सुहासपुर का राजा शीलवर्धन इतना नेक था कि वह हर वक्त प्रजा की भलाई के कामों में ही लगा रहता। सुहासपुर की प्रजा भी राजा शीलवर्धन का गुणगान करते न थकती थी। उस राज्य में कोई दुखी, कोई परेशान नहीं था। सभी खुश थे। मन से संतुष्ट से और एक-दूसरे की मदद करते थे। यहाँ तक कि वीरपुर के लोग भी सुहासपुर वालों को देखकर कहते, ”सुखी राज्य हो तो सुहासपुर जैसा।”

सुहासपुर के लोग युद्ध नहीं, शांति के पुजारी थे। इसलिए जब यह पता चला कि राजा रज्जबसिंह सुहासपुर पर आक्रमण करने वाला है तो न सिर्फ सुहासपुर, बल्कि वीरपुर के लोगों को भी बड़ा धक्का लगा।

उधर राजा रज्जबसिंह इस सबसे बेपरवाह बुरी तरह युद्ध की तैयारियों में जुटा था।

एक दिन मंत्री देवीसिंह ने डरते-डरते कहा, ”महाराज, हमारी प्रजा का कहना है कि सुहासपुर वाले किसी का तंग नहीं करते। वहाँ का राजा शीलवर्धन नेक राजा है। आपका मित्र भी है और हर बार हमारे राज्य के वार्षिक समारोह में कोई न कोई बेशकीमती पुरस्कार भेजता है। शीलवर्धन के रहते सुहासपुर से हमें कोई अनिष्ट भी नहीं होने वाला। तो उस पर युद्ध थोपकर कही हम कोई गलती तो नहीं कर रहे? इसलिए मेरा आपसे अनुरोध है महाराज, कि सुहासपुर पर आक्रमण करने से पहले थोड़ा पुनर्विचार कर लिया जाए।”

मंत्री देवीसिंह की बात पूरी होने से पहले ही राजा रज्जबसिंह का पारा चढ़ गया। होंठ गुस्से के मारे बुरी तरह थरथराने लगे। गरजकर बोला, ”मंत्री जी, होश में रहिए! राजा आप हैं या मैं? जो मुझे करना है, वह मैं हर हाल में करूँगा। जो मुझे पाना है, वह मैं हर हाल में पाकर रहूँगा। आपको पसंद नहीं है तो आप मंत्री पद खाली कर दीजिए।”

भरे दरबार में राजा की गर्जना सुनकर सब इस कदर चुप हो गए, जैसे साँप ने काटा हो। दरबार में और बहुत से लोग थे जो यही कहना चाहते थे। मंत्री देवीसिंह जी बूढ़े थे और राजा रज्जबसिंह के पिता भानुसिंह के समय से इसी पद पर थे। राजा भानुसिंह उनकी इज्जत करते थे और हर बात में परामर्श लिया करते थे। राजा रज्जबसिंह ने भी शुरू-शुरू में यही किया। पर फिर उसकी हेकड़ी इतनी बढ़ गई कि वह बात-बात में मंत्री को अपमानित करने लगा।

देवीसिंह जी ने कई बार मंत्री पद छोडऩे का भी निश्चय किया, पर राज्य की भलाई की इच्छा ने उनके पैरों में डोर बाँध दी थी। वे न चाहते हुए भी अपने पद पर टिके हुए थे, ताकि राजा रज्जबसिंह की युद्ध की सनक पर किसी तरह थोड़ा काबू करते रहें। लेकिन आज राजा रज्जबसिंह ने जिस तरह उन्हें अपमानित किया था, उससे दरबार में सभी भौचक और दुखी थे। सभी सोच रहे थे कि जब रज्जबसिंह इतने सयाने और बूढ़े मंत्री जी का अपमान कर सकता है, तो फिर भला उनकी तो गिनती ही क्या है! पर अंदर-अंदर ही सब दुखी और परेशान थे।

उधर जल्दी ही सुहासपुर के खिलाफ युद्ध की तैयारियाँ पूरी हो गईं। तय हो गया कि राजा रज्जबसिंह दो दिन बाद अपनी विशाल सेना लेकर निकलेंगे और सुहासपुर पर धावा बोल दिया जाएगा।

आखिर वह दिन भी आया। सूर्योदय के समय जिस समय युद्ध के लिए प्रस्थान की तैयारियाँ हो रही थीं, रानी एक थाली में तिलक और पुष्प-माला लेकर आई। रानी ने राजा का तिलक किया, गले में फूलों की माला पहनाई। पर तिलक करते-करते उसकी आँखों में आँसू आ गए। उसने आँसू बहाते हुए कहा, ”महाराज, मेरी मानिए तो सुहासपुर वालों को मत छेड़िए। वे प्रेम से रहते हैं, किसी का दिल नहीं दुखाते। उन पर आक्रमण करके कहीं हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी…!”

”महारानी!” राजा का चेहरा क्रोध से तमतमा गया।

रानी चुप। उसने आँसू पिए और युद्ध के लिए उतावले होकर प्रस्थान कर रहे राजा की आरती उतारी। इस समय दूर-दूर से आई प्रजा भी वहाँ उपस्थित थी। पर आश्चर्य! प्रजा जो रानी के तिलक करते ही जोर से हर्षध्वनि किया करती थी और राजा का जय-जयकार करती थी, आज वह चुप, एकदम चुप थी।

राजा रज्जबसिंह ने हैरानी से चारों तरफ देखा, शायद कोई हो, जो हाथ हिलाकर उनका जय-जयकार कर रहा हो। पर उन्हें ऐसा एक भी प्रजाजन नजर नहीं आया।

”महाराज, प्रजा ने सुहासपुर पर आपके आक्रमण को पसंद नहीं किया।” एक गुप्तचर ने निकट आकर धीरे से राजा के कान में कहा।

सुनकर राजा का गुस्सा फिर भड़क उठा, ”तो अब प्रजा तय करेगी कि हम क्या करें, क्या नहीं?” उसकी मुट्ठियाँ गुस्से के मारे भिंच गईं।

”हाँ महाराज, प्रजा का यही कहना है।” गुप्तचर ने कहा, ”गाँव-गाँव में जहाँ भी लोग इकट्ठे होते हैं, वे आपस में बात करते हुए यही कहते हैं कि रज्जबसिंह को अब हम राजा नहीं मानते। राजा तो वह होता है, जो प्रजा को सुख देता है। जो प्रजा को दुखी करे, वह राजा होने के काबिल नहीं।”

सुनकर रज्जबसिंह आगबबूला हो गया। बोला, ”लेकिन ऐसा किसने कहा।”

”महाराज, सभी कह रहे हैं।” गुप्तचर ने कहा। पर एक बूढ़ा अध्यापक है, देवांग उसका नाम है। वह अपने विद्यार्थियों को बार-बार यह समझा रहा है कि राजा रज्जबसिंह अब युद्ध के नशे में इस कदर पागल हो गए हैं कि अब वे राजा बने रहने के काबिल नहीं रहे। अब हमें अपने लिए कोई नया राजा चुन लेना चाहिए। ऐसा राजा जो युद्ध छोड़कर प्रजा के हित में काम करे।”

”अच्छा, ऐसा!” राजा रज्जबसिंह गरज पड़े, ”फौरन देवांग को यहाँ बुलाया जाए। अभी इसी वक्त!”

”महाराज, देवांग को बुलाना आसान नहीं है। वे हर वक्त हजारों लोगों से घिरे रहते हैं। उनके हजारों शिष्य उनके लिए खुशी-खुशी जान देने को तैयार हैं।”

”फिर भी…मेरा हुक्म है कि देवांग को यहाँ उपस्थित किया जाए।”

”महाराज, देवांग खुद चलकर आ रहे हैं। वह देखिए!” मंत्री ने कहा, ”देखिए, हजारों लोग किस तरह उन्हें घेरे हुए हैं, जैसे देवांग के चारों ओर उन्होंने सुरक्षा-दीवार बना दी है।”

तब तक देवांग पास आ गए। राजा रज्जबसिंह उन्हेदेखते ही दाँत पीसकर बोला, ”तो तुम हो गद्दार…!”

”नहीं महाराज, गद्दार मैं नहीं, आप हैं जो अपनी प्रजा के सुख को रोज-रोज धूल में मिलाते आ रहे हैं, सिर्फ अपने युद्ध का नशा पूरे करने के लिए। मैं तो जनता का एक मामूली सेवक हूँ। प्रजा के मन की बात आप तक पहुँचाने आया हूँ कि आप यह युद्ध टाल दीजिए और प्रण कीजिए, आगे से आप कोई युद्ध नहीं करेंगे, जब तक कि कोई वीरपुर पर आक्रमण न करें।”

”होशियार, देवांग! अब तुम बच नहीं सकते।” कहकर राजा रज्जबसिंह ने खींचकर तलवार निकाली और गुस्से में पागल होकर देवांग पर झपटा।

पर देवांग के चारों ओर प्रजा के लोगों का घेरा था। ऐसे लोग जो देवांग को जी-जान से चाहते थे और उनकी इज्जत करते थे।

राजा घबराया, ”क्या एक देवांग को मारने के लिए इतने निरपराध लोगों की हत्या करनी पड़ेगी। करूँ, न करूँ?”

”देवांग, अब तुम बच नहीं सकते। वरना इतना निरपराध लोग मारे जाएँगे।” राजा रज्जबसिंह चीखा।

”नहीं, हम देवांग को बाहर नहीं आने देंगे। वे हमारी ही सच्ची आवाज आप तक पहुँचाने के लिए यहाँ आए हैं।”

”तो फिर युद्ध पर जाने से पहले मैं अपने ही हजारों लोगों का वध करूँगा। मुझे करना ही होगा। देवांग अब जीवित नहीं रह सकता।” राजा रज्जबसिंह ने गरजकर कहा।

”आप हमारी जान ले लीजिए, पर देवांग को हम आपको नहीं सौंपेंगे।” प्रजा ने भी अपना फैसला सुना दिया।

उसी समय किसी चमत्कार की तरह देवांग खुद प्रजा के घेरे को तोड़कर बाहर आया। बोला, ”महाराज, आप इतने बेकसूर लोगों को मत मारिए। आपको क्रोध मुझे पर है, तो मेरे रक्त से अपनी प्यास बुझाइए। मैं मरने से नहीं डरता। पर मरते समय मुझे सुख होगा कि मैं युद्ध-उन्मादी राजा को यह बता पाया कि प्रजा युद्ध नहीं, शांति चाहती है। प्रेम से रहने वाले सुखी राज्य सुहासपुर पर आक्रमण धर्म नहीं, पाप है। अन्याय है…!”

अभी देवांग अपनी पूरा बात कह भी नहीं पाया कि राजा की तलवार उठी और अगले ही पहले देवांग का सिर कटकर जमीन पर आ गिरा। उसके रक्त के छींटे चारों ओर बिखर गए।

देखकर प्रजा की आँखों में खून उतर आया। सभी एक साथ चीखे, ”यह खूनी राजा है। पापी, हत्यारा है। यह हमारा राजा होने लायक नहीं है। इसे मारो!”

कहते-कहते प्रजा ने आगे बढ़कर राजा को पकड़ लिया और कहा, ”राजन आप गिरफ्तार हैं। अब हम अपना नया राजा चुनेंगे।”

प्रजा ही नहीं, सैनिक भी राजा रज्जबसिंह से इस युद्ध-उन्माद से तंग आ चुके थे। लिहाजा प्रजा ने जब राजा को पकड़कर घेरे में ले लिया, तो सैनिक भी प्रजा के साथ आ खड़े हुए। बोले, ”हाँ, हमें नया राजा चुनना चाहिए।”

प्रजा ने वहीं देवांग के शिष्य अरुणेश को अपना राजा चुन लिया। अरुणेश अभी युवा ही था, पर देवांग ने उसे साहित्य, कला, राजनीति और समाजशास्त्र की गहरी शिक्षा दी थी। अस्त्र-शस्त्र चलाने में भी वह प्रवीण था। इसलिए उसके राजा चुने जाते ही सबने खुशी से भरकर उसका जय-जयकार किया।

अरुणेश का राजतिलक हुआ, तो वीरपुर में ही खुशी और उत्साह का माहौल नहीं था, बल्कि आस-पड़ोस के राज्यों में भी खुशी की लहर दौड़ गई। सुहासपुर समेत आसपास के सभी राज्यों ने अपने दूत और प्रतिनिधियों को भेजकर राजा अरुणेश के लिए उपहार भेजे और उसे अपनी मित्रता का भरोसा दिलाया।

राजा अरुणेश ने सभी पराधीन राजाओं को उनका राज्य वापस कर दिया। बोला, ”आप सभी अब आजाद है और मैं कामना करता हूँ कि आप और हम सभी आजाद रहें। कोई किसी को दबाए नहीं, सताए नहीं। सब मित्रता पूर्वक एक-दूसरे को आगे बढ़ाने में मदद करें।”

इस पर राजा अरुणेश का यश चारों ओर फैल गया। वह प्रजा की भलाई के कामों में इस कदर लगा रहता कि प्रजा उस पर जान छिड़कती थी।

यहाँ तक कि अरुणेश कभी-कभी कारागार में जाकर राजा रज्जबसिंह से भी मिलता। पूछता, ”आपको कोई कष्ट तो नहीं है? आप मेरे पूर्ववर्ती राजा हैं। आपकी सुविधा में कोई कसर हो या आपको कोई कष्ट हो तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा।”

सुनकर रज्जबसिंह की आँखों में आँसू आ जाते। फफककर रोते हुए कहता, ”मैं ठीक हूँ, पर जो अपराध मैंने किए, उनसे मेरा मन हर क्षण जलता रहता है। यह सजा तो मुझे भुगतनी ही होगी। मैंने अनगिनत युद्ध किए, हजारों हत्याएँ कीं। पर देवांग का वध करने का दंश एक क्षण के लिए भी मेरे मन से नहीं जाता। रात-दिन उनका मुसकराता हुआ प्यारा चेहरा मेरी आँखों के आगे रहता है। मैंने अपने सारे जीवन में ऐसा कोई महापुरुष नहीं देखा, जिसमें इतनी निर्भयता हो कि तलवार के आगे भी वह काँपा नहीं और खुशी-खुशी दूसरों के लिए अपना बलिदान कर दिया।”

”हाँ, महाराज, वे तो सिपाही थे, शांति के सिपाही! अहंकारी राजा रज्जबसिंह के युद्ध का नशा उतारने के लिए बलिदान जरूरी है अरुणेश—यह वे बार-बार कहा करते थे। उन्होंने अपनी मृत्यु से पहले ही कह दिया था कि अब मेरा बलिदान का समय आ गया है अरुणेश। तुम इसके लिए तैयार रहो, क्योंकि इसके बगैर राजा की तलवार रुक नहीं सकती।”

अरुणेश की बात सुनते ही रज्जबसिंह की आँखों से धाराधार आँसू बहने लगे।

कुछ समय बाद राजा अरुणेश ने युद्ध में मारे गए लोगों की याद में एक शांति-स्तूप बनवाया। उसमें युद्ध में मारे गए सैनिकों के नाम लिखे गए थे। उनमें सबसे ऊपर था देवांग का नाम। स्तूप पर लिखा था, ‘यह स्तूप शांति के सिपाही देवांग की याद में बनवाया गया है, जिन्होंने अपना बलिदान देकर हजारों लोगों को युद्ध की आँच में झुलसने से बचाया।’

रज्जबसिंह का मन जब-जब परेशान होता, तो वह इसी शांति-स्तूप पर आकर एक कोने में बैठ जाता। तब उसे लगता, उसके उदास मन को कुछ शांति मिल रही है। कुछ समय बाद उसने राजा अरुणेश से इजाजत ले ली और अपना पूरा समय इसी शांति-स्तूप के निकट एक कुटिया में रहते हुए बिताया।