चुनमुन ने साइकिल चलाना सीखा, तो अब उसे साइकिल के बगैर चैन ही नहीं पड़ता था। जहाँ भी जाता, साइकिल पर चढ़कर जाता। कुछ दिनों में ही वह खूब तेज-तेज साइकिल चलाने लगा। एक-दो बार तो वह इसी तेजी की वजह से साइकिल से गिरते-गिरते बचा। पापा ने समझाया, ”चुनमुन, ऐसे तो चोट लग जाएगी। तुम, धीरे साइकिल चलाया करो।”
चुनमुन ने सुना, पर जल्दी ही भूल गया। तेज साइकिल चलाने के चक्कर में एक-दो बार तो उसने ऐसे गलत मोड़ काटे कि अगर सामने वाले ने तुरंत समझदारी से ब्रेक न लगाए होते, तो सचमुच एक्सीडेंट हो जाता।
एक दिन ऐसे ही चुनमुन की साइकिल सामने वाले बच्चे मोनू की साइकिल की टकराई और नीचे गिर गई। मोनू को थोड़ी चोट आई, पर चुनमुन पर गुस्सा न करके वह अपनी राह चला गया। उसके जाने के बाद चुनमुन धूल झाड़ते हुए उठा। उसके हाथ-पैरों में खरोंचें आ गई थीं। कपड़ों पर भी धूल लगी थी। पर साइकिल की हालत तो इससे भी बुरी थी। वह बुरी तरह कराह रही थी।
खासकर साइकिल के पहियों को काफी चोट लगी थी और वे एकदम टेढे़-मेढ़े हो गए थे। हैंडिल भी मुड़-तुड़ गया था।
चुनमुन को लगा, साइकिल से आवाज आ रही हैं, ”हाय-हाय! हाय-हाय चुनमुन, तुमने मेरी क्या हालत कर दी! तुम तो बहुत गंदे हो चुनमुन।”
चुनमुन दुखी और शर्मिंदा था। अब भला वह साइकिल कैसे चलाए? जैसे-तैसे उसे घसीटता हुआ घर तक लाया और रोते हुए बोला, ”पापा, मेरी साइकिल…!”
पापा उसी समय गए और चुनमुन की साइकिल ठीक कराकर ले आए।
साइकिल अब ऊपर से देखने में ठीक-ठाक लग रही थी। फिर भी न जाने क्यों उसकी कराह नहीं गई। चुनमुन को ऐसे लगता, जैसे साइकिल से कराहती हुई शिकायती आवाज आ रही हैं, ”देखो, देखो चुनमुन! देखो, मैं कितनी सुंदर थी और तुमने मुझे बदसूरत बना दिया। अगर तुम ठीक से चलाते, तो मेरी शक्ल क्या ऐसी होती? मुझे अंदर तक चोट…!’
साइकिल जब कराह-कराहकर अपनी बात कह रही थी, तो उसकी बात घंटी ने भी सुनी। उसने कहा, ”तुम चिंता न करो प्यारी बहन, मैं कुछ करूँगी।”
”तुम…! तुम कैसे करोगी भला? मुझे तो यकीन नहीं आ रहा।” साइकिल ने कहा।
”तुम देखती जाओ।” घंटी टुनटुनाकर हँसते हुए बोली।
अगले दिन चुनमुन साइकिल पर बैठकर कुछ दूर आगे गया ही था कि एकाएक घंटी बजी। उसमें से आवाज आई, ”सँभल के चलो चुनमुन, सँभल के! अरे भई चुनमुन, सँभल के!”
चुनमुन को समझ में नहीं आया, कहाँ से आ रही है यह घंटी जैसी टुनटुनाती आवाज! क्या घंटी से? उसने घंटी को बजाकर देखा, पर घंटी तो ट्रिन-ट्रिन-ट्रिन बोल रही थी। तो फिर किसने अभी-अभी कहा, ”सँभल के भई, सँभल के!’
कुछ देर बाद चुनमुन यह सब भूलकर फिर मस्ती से साइकिल चलाने लगा। आगे एक तीखा मोड़ था, गोलाई वाला। चुनमुन को मोड़ पर तेजी से साइकिल चलाने में मजा आता था, जिससे साइकिल तेज-तेज घूमती थी हवा से बातें करते हुए। पर इस बार जैसे ही उसने मोड़ पर साइकिल की स्पीड बढ़ाई, उसे आवाज सुनाई दी, ”सँभलकर साइकिल चलाना चुनमुन, सँभलकर चलाना, वरना पड़ेगा बहुत पछताना!”
सुनकर चुनमुन हक्का-बक्का रह गया। पर यह बात सिर्फ चुनमुन ने ही नहीं, सड़क पर चलते लोगों ने भी सुनी। वे जोरों से हँस पड़े। उन्हें यों तालियाँ पीट-पीटकर हँसते देखा, तो चुनमुन को बड़ी शर्म आई।
आखिर चुनमुन को समझ आ गई और उसने सँभलकर साइकिल चलाना शुरू किया। पर आज तक वह समझ नहीं पाया कि किसने उसे आवाज देकर कहा था, ”सँभल के साइकिल चलाना चुनमुन, सँभल के!”
लेकिन साइकिल की घंटी मन ही मन हँसती है। आखिर उसने होशियारी से चुनमुन को सही राह दिखा दी थी।
