ek akela deeya moral story
ek akela deeya moral story

एक थे राजा गंगाधर। वे बड़े कलाप्रेमी थे। चाहते थे कि उनका राज्य गंगापुर दुनिया का सबसे सुंदर राज्य हो। इसके लिए वे समय-समय पर कई प्रतियोगिताएँ करते रहते थे।

एक बार की बात, दीवाली को केवल तीन दिन ही बचे थे। तभी राजा गंगाधर ने अचानक घोषणा करवाई कि वे पूरे राज्य में घूमकर लोगों के घर, दीयों की सजावट देखेंगे। जिसके दीए सबसे सुंदर होंगे, उसे पुरस्कार के रूप में एक हजार स्वर्ण मुद्राएँ दी जाएँगी।

सुनते ही राज्य में अनोखी चहल-पहल नजर आने लगी। हर कोई एक से एक सुंदर दीए लाकर अपने घर की अनोखी सजावट में जुट गया। पूरा गंगापुर ऐसे लगने लगा, जैसे तारे धरती पर उतर आए हों!

दीवाली वाले दिन राजा गंगाधर मंत्री और प्रमुख दरबारियों के साथ दीवाली की सजावट देखने निकले। एक दरबारी ने कहा, ”देखिए महाराज, सेठ लक्खामल की कोठी। इन्होंने पूरे एक लाख दीए जलाकर कोठी की सजावट की है।”

किसी और ने कहा, ”महाराज, इधर देखें। व्यापारी लाभचंद्र के भवन में चाँदी के दीए जल रहे हैं। पुरस्कार इन्हीं को मिलना चाहिए।”

राजा गंगाधर शांत थे। चुपचाप सारी सजावट देखते हुए, आगे बढ़ते जा रहे थे। चलते-चलते वे राजधानी के बाहर नदी तट पर आ गए। सामने गुरु सोमदेव का आश्रम था। वहाँ सिर्फ एक मिट्टी का दीया जल रहा था।

एक बुजुर्ग दरबारी विष्णुदास ने कहा, ”महाराज, यहाँ तक आए हैं, तो जरा आचार्य सोमदेव जी के दर्शन करने चलें।”

राजा गंगाधर दरबारियों के साथ आचार्य सोमदेव के आश्रम के पास पहुँचे। भीतर से सोमदेव जी की आवाज आ रही थी, ”आज मेरे इक्कीस शिष्यों ने शिक्षा पूर्ण कर ली। मुझे लगता है, आज दीवाली के दिन मेरे आश्रम में इक्कीस दीपक जल गए हैं। आप जाकर दुनिया में ज्ञान का प्रकाश फैलाइए। दुखियों के दुख दूर कीजिए। जो अनपढ़ हैं, उन्हें शिक्षा देकर जीवन की सही राह बताइए। दीप से दीप जलाइए। यही मेरी गुरु दक्षिणा होगी।”

सोमदेव जी की बात पूरी होते ही सभी शिष्यों ने एक साथ कहा, ”ऐसा ही होगा गुरुदेव!”

इसी बीच राजा गंगाधर आचार्य सोमदेव के आगे आ खड़े हुए। उनके आगे सिर झुकाकर कहा, ”दीवाली के दीए तो बहुत देख आया हूँ आचार्य, पर जो दीए आपने जलाए हैं, वे अनोखे हैं। मुझे गर्व है, कि मेरे राज्य में आचार्य सोमदेव जैसे विद्वान हैं। फिर तो सचमुच पूरे गंगापुर में ज्ञान के दीए जल उठेंगे।”

राजा गंगाधर ने एक हजार स्वर्ण मुद्राओं की थैली आचार्य सोमदेव के चरणों में रख दी। कहा, ”आप इसे स्वीकार करें तो मुझे अच्छा लगेगा।”

आचार्य सोमदेव हँसकर बोले, ”ठीक है, मैंने इसे हाथ लगा दिया। अब इसे आप ही रखें। हाँ, आश्रम को किसी मदद की जरूरत हुई तो मैं आपसे कहूँगा।”

राजा गंगाधर ने एक बार फिर आचार्य सोमदेव को प्रणाम किया और प्रसन्न मन से राजधानी की ओर लौट चले।