पुराने समय की बात है, रुक्कापुर में रहता था एक जुलाहा। उसका नाम था रज्जब अली। वैसे तो वह रोज सुबह-शाम खुदा की इबादत करता था, पर उसमें एक बुराई थी। जो कोई उसके पास कपड़ा बुनवाने आता, उसकी रुई की पूनियों में से कुछ पूनियाँ वह गायब कर देता था।
ज्यादातर लोगों को रज्जब अली पर कोई शक नहीं होता था। वे सोचते थे, इतना धार्मिक आदमी भला ऐसी गड़बड़ क्यों करेगा? कुछ लोगों को पता चल भी जाता तो रज्जब अली कुछ न कुछ बात बनाकर अपनी गलती छिपा लेता था। यों उसका काम मजे में चल रहा था और रुई की पूनियाँ चुराने की उसकी आदत भी साथ ही साथ चल रही थी।
एक बार रज्जब अली के पास उसका पड़ोसी शौकत अली ढेर सारी पूनियाँ लेकर आया। कहा, ”भाई, मेरे लिए एक अच्छी सी चादर बना देना।”
रज्जब अली ने चादर बनाई, पर वह बहुत छोटी और हलकी थी। शौकत अली समझ गया, जुलाहे ने कुछ गड़बड़ की है।
इसके कुछ रोज बाद की बात है, रात सोने से पहले रज्जब अली हमेशा की तरह आँगन में अपनी चारपाई पर लेटा हुआ, बड़े मौज में आकर गा रहा था, ”आ मेरे मौला, आ मिल मुझसे! आ मेरे मौला, आ मिल मुझसे…!”
अचानक उसे बड़ी सुरीली सी आवाज सुनाई दी। कोई प्यार से पुकारता हुआ कह रहा था, ”ओ मेरे बंदे, आ मिल मुझसे! ओ मेरे बंदे, आ मिल मुझसे…!”
रज्जब अली तो मारे खुशी के उछल पड़ा। उसने सोचा जरूर खुदा ने मेरी पुकार सुन ली है। पर आखिर मैं खुदा के पास जाऊँ कैसे? रज्जब अली ने सोचा और गाने लगा, ”ओ मेरे मौला, मैं कैसे आऊँ? ओ मेरे मौला, मैं कैसे आऊँ?”
अभी रज्जब अली की पुकार पूरी हुई भी न थी कि वही मीठी आवाज फिर सुनाई दी, ”ओ मेरे बंदे, मैं रस्सी लटकाऊँ! ओ मेरे बंदे, मैं रस्सी लटकाऊँ…!!”
”अरे वाह! यह तो बड़ी अच्छी बात हुई।” रज्जब अली ने सोचा। अगर अब सचमुच आसमान से रस्सी मेरे लिए लटकती है, तब तो यह बिल्कुल तय है कि खुदा मेरी इबादत से खुश है और मुझे अपने पास बुलाना चाहता है।
और वाकई थोड़ी देर बाद रज्जब अली को अपनी चारपाई के पास रस्सी लटकती दिखाई दी। उसने फौरन रस्सी के आगे एक फंदा बनाया और उसे अपनी गरदन में डाल लिया।
थोड़ी ही देर में रस्सी ऊपर खिंची तो रज्जब अली के गले में फाँस लग गई। उसे लगा, उसकी साँस घुटने ही वाली है। वह पूरी ताकत से चिल्लाया, ”ओ मेरे मौला, तूने फाँसी लगाई! ओ मेरे मौला, तूने फाँसी लगाई!”
उसी समय उसे जवाब भी सुनाई पड़ गया, ”ओ मेरे बंदे, तूने पूनियाँ चुराईं! ओ मरे बंदे, तूने पूनियाँ चुराईं!”
अब रज्जब अली को अपनी भूल पता चली। समझ गया, यह उसे उसके पापों की ही सजा मिल रही है। न वह रुई की पुनियाँ चुराता और न उसे यह सब झेलना पड़ता। वह रोता हुआ पुकार उठा, ”तौबा…तौबा, मेरे मौला, मुझे माफ कर दो! आगे से ऐसा कभी न करूँगा।”
और उसके यह कहते ही रस्सी ढीली पड़ गई।
रज्जब अली ने फौरन गले से फंदा उतारा और जमीन पर बार-बार नाक रगड़कर प्रतिज्ञा करने लगा कि आगे से कभी पूनियाँ नहीं चुराऊँगा। इसके बाद उसने ऊपर गरदन उठाई तो देखा, रस्सी का फंदा वाकई गायब हो चुका था। रज्जब अली बुदबुदाया, ”वाह खुदा! तेरी मेहरबानी!”
वह यह बात कभी नहीं समझ पाया कि यह सारा ड्रामा उसके पड़ोसी शौकत अली का था, जिसकी रुई की ढेर सारी पूनियाँ उसने चुना ली थीं।
