भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
कॉल बेल बजी तो मैने दरवाजा खोला। देखा एक सुंदर-सी महिला खडी है। करीने से पहनी हुई साडी, मैच करता हुआ सुंदर फिटिंग वाला ब्लाउज, तराशी हुई सुंदर सी भृकुटी। शैंपू किये हुए सुंदर से सिल्की बाल, गले में छोटा-सा सोने के लॉकेट वाला मंगलसूत्र, कान में लॉकेट से ही मिलते जुलते डिजाइन वाले छोटे टाप्स। हाथ में सोने के कंगन और दो-दो लाल कांच की चूडियां। पांव में पायल बिछिया। कुल मिलाकर बडी भली लग रही थी वह महिला। नजरों में शालीनता थी उसके।
मुझे बहुत अच्छा लगा, चलो किसी से परिचय तो हुआ। आज पूरा एक सप्ताह हो गया पुणे आये हुए। न किसी से मिलना हुआ न परिचय। इतने बडे अपार्टमेंट में न कोई किसी से मिलने की कोशिश करता न ही परिचय। मुझे बडा अटपटा लग रहा था।
मुझे सबसे मिलना जुलना अच्छा लगता है। बेटा सुबह से ऑफिस निकल जाता सीधे रात को ही घर आता।
यहाँ आकर कोई काम वाली बाई भी नहीं मिल रही थी। फिर मैने गोरखा गार्ड से कहा कि कोई घरेलू काम वाली बाई बताये। मैंने उसे अपनी परेशानी भी बताई।
गार्ड ने मुझे आश्वस्त किया- “मैडम शौब इंतजाम हो जायेगा। दूध, पैपौर, काम वाली बाई। मैं कलीच आपको भेजता।”
आपको कामवाली बाई मांगता क्या। मैंने कहा हां। वह बोली मेरे को वाचमैन ने भेजा। मैच काम करूंगी। मैंने उसे ऊपर से नीचे तक देखा वह कहीं से भी कामवाली बाई नहीं लग रही थी। मैंने पूछा तुम्हारा नाम क्या है?, वह धीरे से बोली, रेखा। सुनकर मैंने कहा अच्छा बडा ही सुंदर नाम है। साड़ी के पल्लू का छोर उंगलियों में घुमाते हुए बोली।
तुम बोलो।
मैने कहा -“सभी काम है झाडू पोछा, बर्तन कपडा। बोलो कितना लोगी?” “वह बोली एक काम का दो सौ।” मैने कहा – “बर्तन कपडे ज्यादा नहीं निकलते। मैं अपने कपडे खुद धो लेती हूँ। पांच सौ दूंगी चलेगा?”
बिना किसी बहस के वह तैयार हो गई और अपना पल्ला खोंस कर झाडू उठा ली। मैने राहत की सांस ली। मुंबई में तो बडे नखरे हैं कामवालियों के। दो बर्तन अधिक होने पर बड़-बड़। दो कपडे ज्यादा होने पर बड़-बड़। मेहमान आने पर कोई न कोई बहाना मार के छुट्टी मारना तो आम बात है। कुछ कहने पर बोलती हैं काम कराना है तो सहनाच पडेगा। वरना कोई दूसरी देख लो। और दूसरी को लगने नहीं देती। मगर यह जाने किस जन्म की पुण्यात्मा है। मैंने उसकी तरफ प्यार से देखते हुए पूछा-
“अच्छा।” मैने कहा और कितने घरों में काम करती हो?
“चार घर।” उसने कहा।
“कितने बजे आओगी?” मैने पूछा ।
वह बोली – “सुबह नौ बजे खाली भांडी करेगी। बाकी सारा काम एक से दो बजे के बीच निपटा देगी। चलेगा?”
मुझे तो कामवाली की सख्त जरूरत थी। तुरंत हाँ कर दी। बेचारी शेफाली को ज्यादा ही काम हो जाता। मैं नन्हें के पीछे व्यस्त रहती किचन भी देखती। कामवाली के बिना पूजापाठ भी नियम से नहीं हो पा रहा था।
रेखा के आने से राहत मिली। शेफाली भी खुश हुई। रेखा यथासमय आती और चुपचाप बडी सफाई से सारा काम निपटाती।
मैं तो बहुत ही प्रभावित हुई उसके व्यक्तित्व से। यहाँ हफ्ते दस दिन काम करना पड़ा तो हम दोनों सास बहू पर जैसे भारी तूफान आ गया हो। शेफाली को कंघी चोटी करने की फुर्सत नहीं मिलती।
मैं कभी-कभी सोचती हूँ कि हमे हमेशा हर किसी से कुछ न कुछ सीखना चाहिये। गरीबी से मजबूर होकर वह पांच घरों का काम करती है पर है तो आखिर नारी देह ना।
मैं तो रेखा से रोज ही कुछ न कुछ बात करती रहती। वह ज्यादा बातूनी नहीं है। बस जितना पूछो उतना ही जवाब देती है।
मैने एक दिन पूछा- “तू कहाँ रहती है रेखा?”
“बावधन।” उसने संक्षिप्त सा उत्तर दिया।
“तेरा अपना घर है?” मैंने पूछा।
“नहीं भाडे की खोली है सात सौ भाडा पटाती।” उसने कहा।
रेखा को मैं रोज एक कप चाय देती हूँ। कभी-कभी रोटी या परांठा भी दे देती हूँ। वह चाय पी लेती है रोटी या परांठा लपेटके रख लेती है। मैं उससे पूछती हूँ – “तुम खाती क्यों नही रेखा?” तो कहती है घर में दो बच्चे हैं ना।”
“वह बोली बडा बेटा बारह साल का है सिक्स क्लास में पढता है और बेटी आठ साल की है थर्ड स्टेंडर्ड में है।”
“उनका स्कूल बावधन में ही होगा ना।” मैंने कहा ।
“वहाँ स्कूल तो है माँ जी पर ढंग की पढाई नहीं होती। मेरे बच्चे औंध पब्लिक स्कूल में पढ़ते हैं। इंग्लिश मीडियम में। स्कूल बस आती है।”
मुझे बडा आश्चर्य हुआ गजब की महिला है यह। एक घरेलू काम करने वाली नौकरानी। बच्चों को पब्लिक स्कूल में पढा रही है। कौन कहता है देश ने प्रगति नहीं की है।
खर्चा तो बहुत आता होगा । मैंने कहा।
“आता तो है माँ जी। बच्चों के भविष्य के लिये ही मैं इतनी मेहनत करती।” तेरा आदमी क्या करता है? मैने पूछा। वो केवल मुस्कुरा दी। कोई उत्तर नहीं दिया। अच्छा मैं चलती” कहकर वह चली गई ।
रेखा तो चली गई पर मेरे मन में मानो रेखा रच बस गई। मैं उसी के बारे में सोचने लगी।
फिर एकाध हफ्ते मेरी रेखा से कोई बातचीत नहीं हुई। वो यथासमय आती और अपना काम करके चली जाती।
एक दिन मैंने देखा वह न्यूज पेपर ठीक करते करते बड़े ध्यान से पढने बैठ गई। मैंने कहा- “रेखा तू अंग्रेजी पढ लेती है?” तो वह थोडा शरमाते हुए बोली- “जी थोडा बहुत।”
मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने पूछा- “तू कहाँ तक पढी लिखी है?”
जी ट्वैल्थ साइंस लेकर
मैंने आश्चर्य चकित होकर कहा- “हेएएं तू साइंस की स्टूडेंट रह चुकी है? इतना पढ़ लिखकर तेरी क्या मति मारी गई। जो तू दूसरों की जूठन माजती है। कपडे धोती है। अरेए चार बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती तो आराम से तेरा गुजारा हो जाता।”
अब तो मैं रेखा को लेकर और परेशान होने लगी।” जी बात तो आपने सही कही। पर मांजी मैं तो एम. पी. की हिंदी मीडियम से पढ़ी हूँ। एक सबजेक्ट होता था अंग्रेजी का। उसमें भी मैं कमजोर ही रहा करती थी। पास मार्क्स आ जांय बहुत।
पर यहाँ तो मराठी मीडियम चलता है। अपुन को ठीक से मराठी कहाँ आती है? बस काम चलाऊ बोल लेते हैं।”
तू एम. पी. से यहाँ कैसे पहुँच गई? शादी हो कर आई क्या? मैंने अपनी उत्सुकता जताई।
“जी ऐसा ही समझिये।” वह सिर झुकाकर बोली।
खैर …… “नहीं बताना चाहती तो कोई बात नहीं। तू भी सोचती होगी, माँ जी तो पीछे ही पड गई मेरे। बुरा नहीं मानना बेटा मैने तो यूं ही पूछ लिया यहाँ कोई बात करने वाला नहीं है ना कुछ न कुछ बोलने बताने की आदत है मेरी।”
“अरे नहीं, नहीं माँ जी ऐसी कोई बात नहीं है। मेरे . अच्छा लगता आप बात करती तो मैं बताऊंगी कभी। “कहकर वह हाथ पोंछती हुई चली गई। ऐसे ही दो तीन महीने निकल गये। एक दिन शाम के समय अचानक डोर बैल बजी। इस समय कौन होगा सोचकर मैंने दरवाजा खोला तो देखा रेखा खड़ी है।
मैंने कहा- “अरे रेखा अभी कैसे? सब ठीक तो है ना।”
“जी माँ जी सब ठीक है। आज ऊपर वाली मैम साहब लोग बाहर गये। दो तीन दिन छुट्टी। इसलिए मैं आपके पास आ गई। आप मेरे बारे में जानना चाहती हैं ना आज मैं आपको सब बतायेगी।” वह अपनी साड़ी का छोर उंगली में लपेटती हुई बोली।
अरे मैं तो यूं ही कुछ भी पूछती रहती हूँ मैंने कहा। “आ बताती है तो बता शाम कट जायेगी।”
वह अंदर आ गई और उसने बताना शुरू किया- “माँ जी मैं एम. पी. की ब्राह्मण घर की बेटी हूँ। मेरे पापा रायपुर मे बिजली ऑफिस में एकाउटेंट के पद पर थे। मेरी माँ एक बहुत ही धार्मिक महिला थी। वह एक से एक भजन गाती थी। सुंदरकांड का पाठ उसे कंठस्थ था जब वह पाठ करती थी तो लोग मंत्रमुग्ध हो कर सुनते। ढोलक ऐसा बजाती थी कि नाचने को मन हो जाये। वहाँ भजन मण्डली में अव्वल नाम था उनका। मेरी दादी बिल्कुल आप की जैसी थी उस समय, अब पता नहीं हैं भी कि नहीं। वह एक दीर्घ निश्वास छोड़ती है उसका गला भर आता है वह कुछ देर चुप हो गई और आँखो से अविरल अश्रु धारा बह निकली। पल्लू से मुंह ढककर सुबकने लगी। मैं हतप्रभ रह गई।
मैं उठी और एक गिलास पानी ले आई और गैस पर चाय चढा दी। शेफाली नन्हे को लेकर गहरी नींद में सोई थी। चाय बनाकर मैंने शेफाली को उठाया। एक कप रेखा को दी और जी माँ जी जरूरी हो गया था इन आँसुओं का बहना। मैंने आज तक किसी को अपनी व्यथा कथा नहीं सुनाई आज सुना ही डालूँ।”
मै भी गंभीर हो गई। सुनने को उत्सुक भी।
फिर थोडा संयत होकर वह बोली – “अपुन की मति मारी गई थी माँ जी। उम्र का तकाजा। घर वालों की सिधाई का मैंने गलत फायदा उठाया। और आज तक सजा भोग रही हूँ। जिंदगी भर भोगनी है।” इस आदमी से मेरा परिचय वहीं हुआ। फिल्मी स्टाइल में कब हम एक-दूसरे के करीब हो गये पता ही नहीं चला। मैं स्कूल के बाद ट्यूशन क्लास जाती थी। कभी-कभी क्लास गोल करके हम किसी रेस्तरां में जाते। कभी-कभी गार्डन में मिलते। ये वहाँ एक कंपनी में नौकरी करता था। मैं इसके प्रेम जाल में फंस गई। इसने मुझे सब्जबाग दिखाये। एक दिन मौका देखकर हम लोग घर से भाग निकले और मंदिर में जाकर शादी कर ली। पता नहीं घर वालों पर क्या बीती होगी। इसके झूठे वादों पर मैं विश्वास करती चली गई।
ये मुझको लेकर गाँव आ गया। यहाँ से बहुत दूर है नासिक रोड में। इसकी माँ ने खूब खरी खोटी सुनाई और धक्के देकर घर से बाहर निकाल दिया। ये मुझको लेकर पूना आ गया और बावधन में एक खोली भाड़े पर ली। उस समय इसके पास थोडे बहुत पैसे थे। थोड़ा बहुत जरूरी सामान लाया। कुछ पहले से था इसके पास।
इसने अपनी माँ से नाता नहीं तोडा। बाप है नहीं। भाई बहिन हैं।
ये इधर ही कुछ काम करने लगा। कभी गाँव जाता कभी मेरे पास रहता। थोडा बहुत अनाज लाता जिससे मैं केवल अपनी भूख मिटा सकती थी। थोड़ा बहुत गहना भी पहनाया। उसने गले और कान में हाथ लगाया। पैर की पायल मुझे दादी ने मेरे जन्मदिन पर दिये थे। जब मैं ट्वैल्थ पास हुई थी। आगे की तैयारी के लिये भी ट्यूशन का पैसा दादी ही देती थी। मैंने उनका सपना चकनाचूर कर दिया सजा तो भुगतनी ही पडेगी माँ जी। कहकर वह फिर अपनी पुरानी स्मृतियों में डूबने तैरने लगी। और उदास हो गई।
मेरी भी आँखे भर आईं। वह फिर संयत होकर बोली- “ये मुझको बोलता सब ठीक हो जायेगा रेखा थोड़े दिन की तकलीफ है। गाँव में खेती बाड़ी है हम दोनों पढे लिखे हैं माँ कब तक नाराज रहेगी मैं मना लूंगा।”
ऐसे ही दिन बीतते रहे। और मैं दो बच्चों की माँ बन गई। मैं इसी आस मैं दिन काट रही थी कि अब अच्छे दिन आने ही वाले हैं।”
वह फिर उदास हो गई और अश्रुधारा बह निकली। मेरा हृदय द्रवित हो उठा। मानो कोई फिल्म देख रही हूँ।
मुझे उसकी हिम्मत पर भी गर्व हो रहा था। वरना तो आत्महत्या जैसा कदम उठा लेते हैं कुछ लोग।
वह फिर बताने लगी। माँ जी मुझे तो अपनी नादानी का फल भोगना था ना। अब तो वह आता भी नहीं खर्चा पानी भी नहीं देता। आज छः सालों से मैं घरों में खट रही हूँ। पहले एक दो घर पकडे थे अब पांच-पांच घर हैं। मराठी बोलना सीख गई हूँ। पर पढ़ना-लिखना नहीं सीख पाई। कोशिश भी नहीं की।”
उसने एक दीर्घ निश्वास छोडा। और बोली, “माँ जी मैं सोचती हूँ मैंने तो अपना जीवन अपने हाथों से नष्ट कर दिया क्या से क्या बन गई। अच्छे खाते-पीते ब्राह्मण घर में जन्म लेकर करनी का फल भोग रही हूँ। अब इन नन्हे-नन्हे मासूमों का क्या कसूर। मैं इनकी जिंदगी नर्क नहीं बनाना चाहती। इनके लिये जी रही हूँ माँ जी।” कहकर वह उठ खड़ी हुई।
“चलती हूँ माँ जी” कह कर वह चली गई।
रेखा तो चली गई पर मेरे मन में एक प्रश्न छोड़ गई। आखिर नारी की मर्यादा क्या है? और मर्यादा तोड़ने पर क्या उसके जीवन में इसी प्रकार की विसंगतियां उत्पन्न होती हैं? रेखा अपने माता-पिता के घर से भी वंचित हुई और पति से भी।
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
