Manto story in Hindi: कई दिनों से दोनों तरफ से सिपाही अपने अपने मोर्चे पर जमे हुए थे। दिन में इधर और उधर से दस-बारह गोलियां चल जाती, जिनकी आवाज के साथ कोई इंसानी चीख बुलंद नहीं होती थी। मौसम बहुत खुशनुमा था। हवा जंगली फूलों की महक में बसी हुई थी। पहाड़ियों की ऊंचाइयों और ढलानों पर लड़ाई से बेखबर कुदरत, अपने रोज के काम-काज में व्यस्त थी। चिड़ियां उसी तरह चहचहाती थीं।
फूल उसी तरह खिल रहे थे और धीमी गति से उड़नेवाली मधुमक्खियां, उसी पुराने ढंग से उन पर ऊंघ-ऊंघ कर रस चूसती थीं। जब गोलियां चलने पर पहाड़ियों में आवाज गूंजती तो चहचहाती हुई चिड़ियां चौंक कर उड़ने लगती, मानो किसी का हाथ साज के गलत तार से जा टकराया हो और उनके कानों को ठेस पहुंची हो। सितंबर का अंत अक्तूबर की शुरूआत से बड़े गुलाबी ढंग से गले मिल रहा था।
ऐसा लगता था कि जाड़े और गर्मी में सुलह-सफाई हो रही है। नीले-नीले आसमान पर धनी हुई रूई जैसे पतले-पतले और हल्के-हल्के बादल यों तैरते थे जैसे अपने सफेद बजरों में नदी की सैर कर रहे हैं। पहाड़ी मोर्चों पर दोनों ओर से सिपाही कई दिनों से बड़ी ऊब महसूस कर रहे थे कि कोई फैसलाकुन बात क्यों नहीं होती। ऊब कर उनका जी चाहता कि मौका-बे-मौका एक दूसरे को शेर सुनाएं। कोई न सुने तो ऐसे ही गुनगुनाते रहें। वे पथरीली जमीन पर औंधे या सीधे लेटे रहते और जब हुक्म मिलता, एक-दो फायर कर देते। दोनों मोर्चे बड़े सुरक्षित स्थान पर थे। गोलियां पूरे जोर से आती, और पत्थरों की ढाल से टकरा कर, वहीं चित्त हो जातीं। दोनों पहाड़ियों की ऊंचाई, जिन पर ये मोर्चे थे, लगभग एक ही जैसी थी। बीच में छोटी-सी हरी-हरी घाटी थी, जिसके सीने पर एक नाला, मोटे सांप की तरह लोटता रहता था। हवाई जहाजों का कोई खतरा नहीं था। तोपें न इनके पास थीं, न उनके पास, इसलिए दोनों तरफ खटके आग लगाई जाती थी। उससे धुएं के बादल उठते और हवाओं में घुल-मिल जाते। रात को चूंकि बिल्कुल खामोशी थी, इसलिए कभी-कभी दोनों मोर्चों के सिपाहियों को, किसी बात पर लगाए हुए, एक दूसरे के ठहाके सुनाई दे जाते थे। कभी कोई लहर में आकर गाने लगता तो दूसरी आवाज गूंजती, तब ऐसा लगता, मानो पहाड़ियां सबको दोहरा रही हों।
चाय का दौर खत्म हो चुका था। पत्थरों के चूल्हे में चीड़ के हल्के-हल्के कोयले करीब-करीब ठंडे हो चुके थे। आसमान साफ था। मौसम में खुनकी थी। हवा में फूलों की महक नहीं थी, जैसे रात को उन्होंने अपने इत्रदान बंद कर लिए हों, अलबत्ता, चीड़ के पसीने, यानी बिरोज की बू थी।
पर यह भी कुछ ऐसी नागवार नहीं थी। सब कंबल ओढ़े सो रहे थे, पर कुछ इस तरह कि हल्के-से इशारे पर उठ कर लड़ने-मरने के लिए तैयार हो सकते थे। जमादार हरनाम सिंह खुद पहरे पर था। उसकी रासकोप घड़ी में दो बजे तो उसने गंडा सिंह को जगाया और पहरे पर खड़ा कर दिया। उसका जी चाहता था कि सो जाए, पर जब लेटा तो आंखों से नींद को इतना दूर पाया जितने कि आसमान में सितारे थे। जमादार हरनाम सिंह चित्त लेटा उनकी तरफ देखता रहा…और फिर गुनगुनाने लगा-
कुर्ती लेनी आं सितारेआं वाली….
सितारेयां वाली…
वे हरनाम सिंहा, ओ यारा..
भावें तेरी महीं बिक जाए
और हरनाम सिंह का आसमान पर हर तरफ सितारों वाले जूते बिखरे नजर आए जो झिलमिल-झिलमिल कर रहे थे।
जत्ती ले देआं सितारेआं वाली…
सितारेआं वाली…
नी हरनाम कौर, ओ नारे,
भावे मेरी महीं बिक जाए
यह गाकर वह मुस्कराया, फिर यह सोचकर कि नींद नहीं आएगी, उसने उठकर और सबको जगा दिया। नार के जिक्र ने उसके दिमाग में हलचल पैदा कर दी थी। वह चाहता था कि ऊटपटांग बातें हों, जिससे इस गीत की हरनामकौरी कैफियत पैदा हो जाए।
चुनांचे बातें शुरू हुईं, पर उखड़ी-सी ही रहीं। बंता सिंह, जो उन सबमें कम उम्र था और जिसकी आवाज सबसे अच्छी थी, एक तरफ हट कर बैठ गया। बाकी अपनी जाहिरा तौर पर मजेदार बातें करते और जम्हाइयां लेते रहे। थोड़ी देर के बाद बंता सिंह ने एकदम सोज भरी आवाज में हीरा गाना शुरू कर दिया….
हीर आख्या जोगिया झूठ बोले,
कौन रूठड़े यार मनाउंदा ई
‘ऐसा कोई न मिलेया मैं ढूंढ थक्की
जेहड़ा गयां नूं मोड़ लयाउंदा ई
इक बाज तो कांग ने कूज खोही
वेक्खां चुप है कि कुलीउंदा ई दु
क्खां वालेयां नूं गल्लां सुख दियां नी
किस्से जोड़ जहान सुनाउंदा ई
फिर रुक कर उसने हीर की इन बातों को जवाब, रांझे की जबान में गाया.
जेहड़े बाज तो कांग ने कूज खोही
सब्र शुक्र कर बाज फनाह होया
ऐवें हाल है एस फकीर दा नी,
धन माल गया ते तबाह होया
करें सिदक ते कम मालूम होवे
तेरा रब्ब रसूल गवाह होया
दुनिया छड्ड उदासियां पहन लइयां
सैयद वारिसों हुन वारिस शाह होया
बंता सिंह ने जिस तरह एकदम गाना शुरू किया था, उसी तरह वह एकदम खामोश हो गया।
ऐसा लगता था कि खाकी पहाड़ियों ने भी उदासियां पहन ली हैं। जमादार हरनाम सिंह ने थोड़ी देर के बाद किसी अनदेखी चीज को मोटी-सी गाली दी और लेट गया। सहसा रात के आखिरी पहर की उदास-उदास फिजा में एक कुत्ते के भौंकने की आवाज गूंजी। सब चौंक पड़े, आवाज करीब से आई थी। सूबेदार हरनाम सिंह ने उठ कर कहा, यह कहां से आ गया, भौकू?
कुत्ता फिर भौंका। अब उसकी आवाज और भी नजदीक से आई थी। कुछ पलों के बाद दूर झाड़ियों में आहट हुई। बंता सिंह उठा और उसकी तरफ बढ़ा। जब वापस आया तो उसके साथ एक आवारा-सा कुत्ता था, जिसकी दुम हिल रही थी। वह मुस्कराया, जमादार साहब! मैं ‘हुकम्ज इधर’ बोला तो कहने लगा, ‘मैं हूं चपड़ झुनझुन।’ सब हंसने लगे।
जमादार हरनाम सिंह ने कुत्ते को पुचकारा, ‘इधर आ, चपड़ झुनझुन’
कुत्ता दुम हिलाता, हरनाम सिंह के पास चला गया और यह समझ कर कि शायद खाने की कोई चीज फेंकी गई है, जमीन के पत्थर सूंघने लगा। जमादार हरनाम सिंह ने थैला खोल कर एक बिस्कुट निकाला और उसकी तरफ फेंका। कुत्ते ने उसे सूंघ कर मुंह खोला, लेकिन हरनाम सिंह ने लपक कर उसे उठा लिया, ‘ठहर कहीं पाकिस्तानी तो नहीं।’
सब हंसने लगे। सरदार बंता सिंह ने आगे बढ़ कर कुत्ते की पीठ पर हाथ फेरा और जमादार हरनाम सिंह से कहा, नहीं जमादार साहब, चपड़ झुनझुन हिंदुस्तानी है।
जमादार हरनाम सिंह हंसा और कुत्ते से मुखातिब हुआ, ‘निशानी दिखा ओए।’
कुत्ता दुम हिलाने लगा। हरनाम सिंह जरा खुल कर हंसा, ‘यह कोई निशानी नहीं। दुम तो सारे कुत्ते हिलाते हैं।’
बंता सिंह ने कुत्ते की कांपती दुम पकड़ ली, ‘शरणार्थी है बेचारा।’
जमादार हरनाम सिंह ने बिस्कुट फेंका, जो कुत्ते ने झट दबोच लिया। एक जवान ने अपने बूट की एड़ी से जमीन खोदते हुए कहा, ‘अब कुत्तों को भी या तो हिंदुस्तानी होना पड़ेगा या पाकिस्तानी।’
जमादार ने अपने थैले से एक और बिस्कुट निकाला और फेंका, ‘पाकिस्तानियों की तरह पाकिस्तानी कुत्ते भी गोली से उड़ा दिए जाएंगे।’
एक ने जोर से नारा लगाया, ‘हिदुस्तान जिंदाबाद।’
कुत्ता जो बिस्कुट उठाने के लिए आगे बढ़ा था, डर कर पीछे हट गया। उसकी दुम टांगों के अंदर घुस गई। जमादार हरनाम सिंह हंसा, ‘अपने नारे से क्यों डरता है चपड़ झुनझुन…खा….ले, एक ओर ले।’ उसने थैले से एक और बिस्कुट निकाल कर उसे दिया।
बातों-बातों में सुबह हो गई। सूरज निकलने का इरादा ही कर रहा था कि चारों ओर उजाला हो गया। जिस तरह बटन दबाने से एकदम बिजली की रोशनी होती है, उसी तरह सूरज की किरणें देखते ही देखते, उस पहाड़ी इलाके में फैल गई जिसका नाम टिटवाल था।
इस इलाके में काफी देर से लड़ाई चल रही थी। एक-एक पहाड़ी के लिए दर्जनों जवानों की जाने जाती थीं, फिर भी कब्जा गैर यकीनी होता था। आज यह पहाड़ी उनके पास है, कल दुश्मन के पास, परसों फिर उनके कब्जे में। इसके दूसरे दिन वह फिर दूसरों के पास चली जाती थी।
जमादार हरनाम सिंह ने दूरबीन लगाकर आसपास का जायजा लिया। सामने पहाड़ी में धुंआ उठ रहा था। इसका मतलब यह था कि चाय वगैरह तैयार हो रही है। इधर भी नाश्ते की फिक्र हो रही थी। आग सुलगाई जा रही थी। उधर वालों को भी निश्चय ही उधर से धुएं उठता दिख रहा होता था। नाश्ते पर सब जवानों ने थोड़ा-थोड़ा कुत्ते को दिया, जो उसने खूब पेट भर के खाया। सब उसमें दिलचस्पी ले रहे थे, जैसे वे उसका अपना दोस्त बनाना चाहते हों। उसके आने से काफी चहल-पहल हो गई थी। हर आदमी उसको थोड़ी-थोड़ी देर बाद पुचकार का चपड़ झुनझुन के नाम से पुकारता और उसे प्यार करता।
शाम के करीब दूसरी तरफ पाकिस्तानी मोर्चे में सूबेदार हिम्मत खां अपनी बड़ी-बड़ी मूंछों, जिनके साथ बेशुमार कहानियां, जुड़ी थीं, मरोड़े दे-देकर, टिटवाल का नक्शा बड़े ध्यान से देख रहा था। उसके साथ ही वायरलैस आपरेटर बैठा था और सूबेदार हिम्मत खां के लिए प्लाटून कमांडर से निर्देश प्राप्त कर रहा था। कुछ दूर, उक पत्थर से टेक लगाए, और अपनी बंदूक लिए बशीर धीमे-धीमे गुनगुना रहा था-
चन्न कित्थे गवाई आई रात वे….
चन्न कित्थे गवाई आई….
बशीर ने मजे में आकर आवाज जरा ऊंची की तो सूबेदार हिम्मत खां की कड़कदार आवाज बुलंद हुई, ‘ओए, कहां रहा है तू रात-भर?’
बशीर ने सवालिया नजरों से हिम्मत खां को देखना शुरू किया, जो बशीर की बजाय किसी और से मुखातिब था, ‘बता ओए।’
बशीर ने देखा कि कुछ फासले पर वह आवारा कुत्ता बैठा था, जो कुछ दिन हुए उनके मोर्चे में बिन बुलाए मेहमान की तरह आया था और वहीं टिक गया था। बशीर मुस्कराया और कुत्ते को संबोधित कर बोला-
चन्न कित्थे गंवाई आई रात वे
चन्न कित्थे गंवाई आई….
कुत्ते ने जोर से दुम हिलाना शुरू किया जिससे पथरीली जमीन पर झाडू सी फिरने लगी।
सूबेदार हिम्मत खां ने एक कंकर उठा कर कुत्ते की तरफ फेंका, ‘साले को दुम हिलाने के सिवा और कुछ नहीं आता।’
बशीर ने कुत्ते की तरफ गौर से देखा, ‘इसकी गर्दन में क्या है?’ यह कहते हुए वह उठा, पर इससे पहले एक और जवान ने कुत्ते को पकड़ कर उसकी गर्दन में बंधी हुई रस्सी उतारी। उसमें गत्ते का एक टुकड़ा पिरोया हुआ था, जिस पर कुछ लिखा था। सूबेदार हिम्मत खां ने यह टुकड़ा लिया और अपने जवानों से कहा, ‘तुम में से कोई पढ़ना जानता है?’
बशीर ने आगे बढ़ कर गत्ते का टुकड़ा लिया, ‘हां….कुछ-कुछ पढ़ लेता हूं।’ और उसने बड़ी मुश्किल से अक्षर जोड़-जोड़ कर यह पढ़ा ‘चप…चपड़ झुन…झुन….चपड़ झुनझुन…..यह क्या हुआ?’
सूबेदार हिम्मत खां ने अपनी बड़ी बड़ी ऐतिहासिक मूंछों को जबर्दस्त मरोड़ दिया, कोडवर्ड होगा कोई।’ फिर उसने बशीर से पूछा, कुछ और लिखा है बशीरे?’
बशीर ने, जो अक्षर जोड़ने में लगा था, जवाब दिया, ‘जी हां….यह…यह हि…हिन्दु…हंदुस्तानी….यह हिंदुस्तानी कुत्ता है।’
सूबेदार हिम्मत खां ने सोचना शुरू किया, ‘मतलब क्या हुआ इसका? क्या पढ़ा था तुमने चपड़…?’
बशीर ने जवाब दिया, ‘चपड़ झुनझुन।’
एक जवान ने बहुत होशियार बनते हुए कहा, ‘जो बात है, इसी में है।’
सूबेदार हिम्मत खां ने वायरलैस सेट लिया और कानों पर हैडफोन लगा कर प्लाटून कमांडर से खुद उस कुत्ते के बारे में बातचीत की। वह कैसे आया था, किस तरह उसके पास कई दिन पड़ा रहा, फिर एकाएक गायब हो गया और रात भर गायब रहा। अब आया है तो उसके गल में एक रस्सी नजर आई, जिसमें गत्ते का एक टुकड़ा था। उस पर जो इबारत लिखी थी, वह उसने तीन-चार बार दोहरा कर प्लाटून कमांडर को सुनाई, पर कोई नतीजा हासिल न हुआ।
बशीर अलग कुत्ते के पास बैठ कर उसे कभी पुचकार कर, कभी डरा धमका कर पूछता रहा कि वह रात कहां गायब रहा था और उसके गले में वह रस्सी और गत्ते का टुकड़ा किसने बांधा था, पर कोई मनचाहा जवाब न मिला।
वह जो सवाल करता, उसके जवाब में कुत्ता अपनी दुम हिला देता। आखिर गुस्से में आकर बशीर ने उसे पकड़ लिया और जोर का झटका दिया। कुत्ता तकलीफ के कारण ‘चाऊ-चाऊं’ करने लगा।
वायरलैस से निपट कर सूबेदार हिम्मत खां ने कुछ देर नक्शे को गौर से देखा फिर निर्णयात्मक भाव से उठा और सिगरेट की डिबिया का ढकना खोल कर बशीर को दिया, ‘बशीरे, लिख इस पर गुरमखी में….उन कीड़े-मकौड़ो में….’
बशीर ने सिगरेट की डिबिया का गत्ता लिया और पूछा, ‘क्या लिखूं सूबेदार साहब?’
सूबेदार हिम्मत खां ने मूंछों को मरोड़े देकर सोचना शुरू किया, ‘लिख दे…..बस, लिख दे।’ यह कह कर उसने जेब से पेंसिल निकालकर बशीर को दी, ‘क्या लिखना चाहिए?’ उसने जैसे खुद से पूछा।
बशीर पेंसिल की नोक को होंठ से लगाकर सोचने लगा, फिर एकदम सवालिया अंदाज में बोला, ‘सपड़ सुनसुन….’ अपनी सोच से संतुष्ट होकर उसने निर्णय भरे लहजे में कहा, ‘चपड़ झुनझुन का जवाब सपड़ सुनसुन ही हो सकता है…..क्या याद करेंगे अपनी मां के सिखड़े।’
बशीर ने पेंसिल सिगरेट की डिबिया पर जमाई, सपड़ सुनसुन!
‘सोला आने। लिख….सप…सपड…सुनसुन।’ यह कह कर सूबेदार हिम्मत खां ने जोर का ठहाका लगाया, ‘और आगे लिख, यह….पाकिस्तानी कुत्ता है।’
सूबेदार हिम्मत खां ने गत्ता बशीर के हाथ से ले लिया। पेंसिल से उसमें एक छेद किया और रस्सी में पिरोकर कुत्ते की तरफ बढ़ा, ले जा, यह अपनी औलाद के पास।’
यह सुनकर सब जवान खूब हंसे। सूबेदार हिम्मत खां ने कुत्ते के गले में रस्सी बांध दी। वह इस बीच अपनी दुम हिलाता रहा। इसके बाद सूबेदार ने उसे कुछ खाने को दिया और नसीहत करने के अंदाजा में कहा, ‘देखो दोस्त, गद्दारी मत करना… याद रहे, गद्दारी की सजा मौत होती है।’
कुत्ता दुम हिलाता रहा। जब वह अच्छी तरह खा चुका तो सूबेदार हिम्मत खां ने रस्सी से पकड़ कर उसका रुख पहाड़ी की इकलौती पगडंडी की तरफ फेरा और कहा, ‘जाओ, हमारा खत दुश्मनों तक पहुंचा दो….मगर देखो, वापस आ जाना…यह तुम्हारे अफसर का हुक्म है, समझे?’
कुत्ते ने अपनी दुम हिलाई और आहिस्ता-आहिस्ता पगडंडी पर, जो बल खाती हुई, नीचे पहाड़ी के दामन में जाती थी, चलने लगा। सूबेदार हिम्मत खां ने अपनी बंदूक उठाई और हवा में फायर किया।
फायर और उसकी गूंज दूसरी तरफ हिंदुस्तानियों के मोर्च से सुनी गई। इसका मतलब उनकी समझ में न आया। जमादार हरनाम सिंह पता नहीं किस बात पर चिड़चिड़ा हो रहा था, यह आवाज सुनकर और भी चिड़चिड़ा हो गया। उसने फायर का हुक्म दे दिया। आधे घंटे तक दोनों मोर्चा से गोलियों की बेकार बारिश होती रही। जब इस शगल से उकता गया तो जमादार हरनाम सिंह ने फायर बंद कर दिया और दाढ़ी में कंघी करनी शुरू कर दी।
इससे छुट्टी पाकर उसने जाली के अंदर सारे बाल बड़े सलीके से जमाए और बंता सिंह से पूछा, ‘ओय बंता सिंह! चपड़ झुपझुन कहां गया?’
बंता सिंह ने चीड़ की सूखी लकड़ी से बिरोजे को अपने नाखूनों से अलग करते हुए कहा, ‘पता नहीं।’
जमादार हरनाम सिंह ने कहा, ‘कुत्ते का घी हजम नहीं हुआ।’
बंता सिंह इस मुहावरे का मतलब नहीं समझा, ‘हमने तो उसे घी की कोई चीज नहीं खिलाई थी।’
यह सुनकर जमादार हरनाम सिंह बड़े जोर से हंसा, ‘ओए अनपढ़। तेरे साथ तो बात करना, पंचानवे का घाटा है।’
तभी वह सिपाही, जो पहरे पर था और दूरबीन लगाए, इधर-उधर देख रहा था, एकदम चिल्लाया, ‘वह…..वह आ रहा है।’
सब चौंक पड़े। जमादार हरनाम सिंह ने पूछा, ‘कौन?’ पहरे के सिपाही ने कहा, ‘क्या नाम था उसका…चपड़-झनझुन!’
‘चपड़ झुनझुन?’ यह कह कर जमादार हरनाम सिंह उठा, क्या कह रहा है वह?’
पहरे के सिपाही ने जवाब दिया, ‘आ रहा है।’
जमादार हरनाम सिंह ने दूरबीन उसके हाथ से ली और देखना शुरू किया, उधर ही आ रहा है। …रस्सी बंधी हुई है गले में… ‘लेकिन वह तो उधर से आ रहा है, दुश्मन के मोर्चे से’ कह कर उसने कुत्ते की मां को बहुत बड़ी गाली दी। इसके बाद उसने बंदूक उठाई और निशाना बांध कर फायर कर दिया। निशाना चूक गया। गोली कुत्ते के कुछ फासले पर पत्थरों की किरचें उड़ाती, जमीन में दफन हो गई। कुत्ता सहम कर रुक गया।
दूसरे मोर्चे में सूबेदार हिम्मत खां ने दूरबीन में से देखा कि कुत्ता पगडंडी पर खड़ा है। एक और फायर हुआ तो वह दुम दबा कर उल्टी तरफ भागा-सूबेदार हिम्मत खां के मोर्चे की तरफ।
सूबेदार ने जोर से पुकारा, ‘बहादुर डरा नहीं करते….चल वापस।’ और उसने डराने के लिए एक फायर किया। कुत्ता रुक गया।
उधर से जमादार हरनाम सिंह ने बंदूक चलाई। गोली कुत्ते के कान के पास से सनसनाती हुई गुजर गई। उसने उछल कर जोर-जोर से दोनों कान फटफटाने शुरू किये।
उधर से सूबेदार हिम्मत खां ने दूसरा फायर किया। गोली उसके अगले पंजों के पास पत्थरों में धंस गई। बौखला कर कभी वह इधर दौड़ा, कभी उधर। उसकी इस बौखलाहट से हिम्मत खां और हरनाम सिंह दोनों बहुत खुश हुए और खूब ठहाके लगाते रहे।
कुत्ते ने जमादार सिंह के मोर्चे की तरफ भागना शुरू किया। वह देखते ही हरनाम सिंह ने बड़े ताव में आकर मोटी-सी गाली दी और अच्छी तरह निशाना बांध कर फायर किया। गोली कुत्ते की टांग में लगी। आसमान को चीरती हुई एक चीख बुलंद हुई।
कुत्ते ने अपना रुख बदला। वह लंगड़ा-लंगड़ा कर सूबेदार हिम्मत खां के मोर्चे की तरफ दौड़ने लगा तो उधर से भी फायर हुआ, पर वह सिर्फ डराने के लिए किया गया था। हिम्मत खां फायर करते ही चिल्लाया, ‘बहादुर…बहादुर परवाह नहीं किया करते जख्मों की। खेल जाओ अपनी जान पर…जाओ…जाओ।
कुत्ता फायर से घबरा कर मुड़ा। उसकी एक टांग बिल्कुल बेकार हो गई थी। बाकी तीन टांगों की मदद से उसने खुद को चंद कदम दूसरी ओर घसीटा था कि जमादार हरनाम सिंह ने निशाना ताक तक गोली चलाई, जिसने उसे वहीं ढेर कर दिया। सूबेदार हिम्मत खां ने अफसोस के साथ कहा, ‘च…च…च..! शहीद हो गया बेचारा।’
जमादार हरनाम सिहं ने बंदूक की गर्म-गर्म नाली अपने हाथ में ली और कहा, ‘वही मौत मरा, जो कुत्ते की होती है।’
