क्रोध करने वाले सोचते हैं जैसे वह कोई महान कार्य कर रहे हैं। क्रोध करते समय लोग अपने चेहरे व भाव-भंगिमाओं को दर्पण में नहीं देखते। यदि वे ऐसा करें तो संभवतः धीरे-धीरे क्रोध से दूर होते जाएं, उनके क्रोध करने की आदत भी मिट जाए। एक बार रामकृष्ण परमहंसजी और उनके गुरु तोतापुरीजी बातचीत कर रहे थे। इतने में एक सेवक आया और अपनी चिलम में अंगारे रखकर उठ खड़ा हुआ। पहले तो तोतापुरीजी का ध्यान उस सेवक की ओर नहीं गया। बाद में जब ध्यान।
गया तो वे क्रोधित होकर चिमटा लेकर उसे मारने दौड़े। यह देखकर स्वामी रामकृष्ण परमहंस को हंसी आ गई। वे हंसते हुए कहने लगे- “वाह! वाह! शाबास, शाबास। ‘तोतापुरीजी ने आश्चर्य से कहा- ‘वह’ शुद्र मेरी पवित्र अग्नि को अपवित्र कर गया। वह उसे अपने हाथों से स्पर्श कर गया। तुम हो कि इस बात पर हंस रहे हो। “रामकृष्ण परमहंस विनम्रता से बोले-” गुरुजी, अपराध तो उसने बड़ा भारी किया है लेकिन आप तो ब्रह्मज्ञानी हैं, सर्वत्र परमात्मा के दर्शन करते हैं।
आपकी दृष्टि में कैसा शूद्र, कैसी अग्नि और कहाँ का स्पर्श!” तोतापुरीजी को तुरंत ही आत्मज्ञान हुआ। वे बोल उठे- “इस दुष्ट क्रोध में तो सभी की बुद्धि क्षीण हो जाती है। अब मैं पूरी तरह ध्यान रखूंगा।” जिस प्रकार पीतल का पात्र बिना माँजे हुए काला पड़ जाता है, ठीक वैसे ही बिना आत्मशोधन के पहुँचा हुआ सिद्धसाधक भी पथ से भटक सकता है।
ये कहानी ‘ अनमोल प्रेरक प्रसंग’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानियां पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं–Anmol Prerak Prasang(अनमोल प्रेरक प्रसंग)
