गृहलक्ष्मी की कविता
कुछ पल के लिए
खुलकर मुस्कुरा लो
बन जाओ बच्चे और
छोड़कर सारे गम
स्वयं को देख आईने में थोड़ा
इतरा लो
जी लो बचपन तुम भी कभी
कब तक कहोगे हम
बड़े हो गये
देख दूसरों का बालपन
तुम उसको इतराना ही समझोगे वो जी रहा अगर खुलकर तो
तुम क्या कम हो?
बच्चे नहीं है हम अभी
बोल अपनी मासूमियत को
कब तक छुपाओगे!
छोटी सी है जिंदगी
कब तक एकांकी बन
महफ़िल से दूर भागोगे?
एक पल जियो स्वयं के लिए भी
क्या मालूम तुम इसी में रम जाओ
और जाते-जाते दुनिया को
एक नई राह दिखा पाओ।
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