chuni hui jindagi
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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

उसे ऐसा क्यों लग रहा था कि कोई उसे घूर रहा है। उसने गाते-गाते रिकार्डिंग रूम के शीशे के उसपार खड़े तीनों लोगों पर नजर डाली, उसमें से एक आँखें झुकाये रेकार्डर पर अंगुली रखे ध्यान मग्न था, दूसरा घड़ी पर नजरें जमाये था, तीसरा उनसे कुछ बात करने में व्यस्त था, शीशे के उस तरफ उसके हिलते होंठ दिखाई दे रहे थे फिर कौन घूर रहा था उसे?

इन्सान कहीं भी हो, कितना भी व्यस्त हो, अगर कोई उसे घूर रहा होता है तो उसे एहसास हो जाता है। आँखों मे एक चुम्बकीय शक्ति होती है शायद।

उसने चोर निगाहों से अपने आसपास बैठे पाँचों म्यूजिशियंश पर नजर डाली। जोसफ आर्गन बजाने मे मगन था, मजूमदार गर्दन उठाये अधखुली आँखों से तबला बजाने मे व्यस्त था, बिशप बाँसुरी बजाने मे डूबा था, गोवर्धन ढोलक बजाते समय शीशे के उसपार देख रहा था। विश्वनाथ की निगाहें हारमोनियम पर रखे पेपर के संकेतों पर थी। फिर, फिर कौन था? कौन घूर रहा था उसे? ऊंह, उसने लापरवाही से सर झटका, होगा कोई,,,,

उसने अपनी डायरी, पेन, पेपर वगैरह समेटे और रेकार्डिंग रूम से बाहर आ गई। लड़के अपने अपने इन्स्ट्रमेन्ट संभालने मे लगे थे। वह गलियारे से गुजरती हई ऑफिस में अपना आज का चौक लेने चली गई, चौक तैयार ही था, तुरन्त मिल गया। चौक पर्स में रखने के बाद पर्स की चेन बंद करते करते जब वह फिर गलियारे में पहुंची तो वही युवक दिखलाई दिया जो थोड़ी देर पहले रिकार्डिंग रूम में खड़ा बातें कर रहा था। सांवला सलोना बड़ी-बड़ी आँखों वाला युवक एक पल के लिये ठिठका, जैसे विश करना या कुछ कहना चाहता हो पर फिर वह आगे बढ गया। शायद उसने अर्चना के चेहरे का अपरिचित भाव पढ लिया था। अनजान लोगों से अर्चना को बात करना पसंद नहीं था। युवक की बड़ी-बड़ी आँखें उसके जेहन में कई बार उभरी, क्या वही उसे घूर रहा था?

छः माह बाद वह फिर रिकार्डिंग के लिये रेडियो स्टेशन पहुंची। रिकार्डिंग रूम खाली होने मे कुछ समय था। वहां किसी वार्ता की रेकार्डिंग चल रही थी।

वह वेटिंग रूम में अपने म्यूजिशियंश के साथ बैठी थी, तभी उसे फिर वही युवक नजर आया। उसने उसे वेटिंग रूम में बैठे देख लिया था। उसने सोच लिया आज अगर वह रेकार्डिंग रूम में आया तो वह उसे छुपी नजरों से अवश्य वाँच करेगी। इस बीच वह सामने से दो तीन बार गुजरा, उड़ती उड़ती नजर उसने हर बार वेटिंग रूम की तरफ अर्चना पर भी डाली। हाथों में पेपर लिये वह कुछ व्यस्त नजर आया ।

वापसी में लड़के आपस में बात कर रहे थे –‘मस्त आदमी है कृष्ण धर जी’

मजूमदार बोला–‘क्या लक है यार। विश्वनाथ बोला- ‘अपना लक वो खुद बनाते हैं, कितने इन्टेलिजेन्ट है। एक के बाद एक एग्जाम देते जा रहे हैं और प्रमोशन मिलती जा रही है।’

अर्चना सुन रही थी, आखिर में पूछ ही लिया- किसकी बात कर रहे हो तुम लोग?

जोसफ बोला- वही मैडम काली शर्ट वाला, बड़ी बड़ी आँखों वाला लड़का। पाँच साल में असिस्टेंट स्टेशन डायरेक्टर हो गया।

अर्चना बोली-‘असिस्टेंट डायरेक्टर तो कोई कृष्ण धर दीवान है न?’

‘उसी की बात कर रहे हैं हम लोग’ मजूमदार बोला। फस्ट फ्लोर में एक आफिस के सामने।

अर्चना ने इस नाम की नेम प्लेट लगी देखी थी पर उसे नहीं पता था यह उसी काली शर्ट वाले लड़के का नाम है।

साल में दो-तीन बार वह रेकार्डिंग के लिये रेडियो स्टेशन जाती रही। कृष्ण धर से भी अक्सर सामना होता रहा पर न तो आमने-सामने कभी परिचय हुआ न ही कभी बातचीत हुई पर हर बार उससे सामना होते ही पता नहीं क्यों ऐसा लगता जैसे एक पल के लिये सब कुछ थम-सा गया हो, जैसे नदी बहते-बहते रुक गई हो, आसमान में उड़ते-उड़ते पक्षियों के पंख एक पल के लिये जैसे उड़ान भरना भूल गये हों, और दिल, दिल की धड़कन भी जैसे एक पल को थम-सी जाती।

कभी-कभी अचानक उसका दिखाई देना कुछ वर्षों के लिये बंद हो जाता, पता चलता उसका ट्रांसफर हो गया है। तब रेकार्डिंग के लिये जाते हमेशा ऐसा लगता जैसे वह यहीं आसपास है, उसकी आँखें कहीं से उसे घूर रही हैं।

जिन्दगी अपनी रफ्तार से दौड़ती रही। समय की रफ्तार तो मानों जिन्दगी की रफ्तार से भी अधिक तेज थी। जिन्दगी से अर्चना ने बहुत कुछ पाया और बहुत कुछ पाकर खोया। नाम, शोहरत, घर, परिवार, पति का प्यार, बच्चे,,,,,, फिर एक-एक कर सब खोता चला गया, पति का वियोग, बच्चों से अलगाव,,,,,, बचा रहा जीवन में बस सम्मान, यश और आवाज, वह अपने टटे हए दिल के टकडे समेटे हए अक्सर उदास मन लिये सोचती रहती और कितने दिन साथ देगी यह आवाज? एक दिन तो सब कुछ खोना ही है। आँखों की रोशनी, कान, हाथ, पाँव और एक दिन यह आवाज भी खो जायेगी। जिस दिन यह आवाज खो गई, धीरे धीरे यश, सम्मान, और इर्द गिर्द नजर आने वाली लोगों की भीड़ भी छंट जाएगी फिर और घना हो जायेगा ये अकेलापन, और उस अकेलेपन मे ही एक दिन चुपचाप सब खतम हो जायेगा। लोगों को भी कई दिन बाद खबर होगी,, कि अर्चना,,,,, आने वाले दिनों की कल्पना कर वह काँप उठती।

आजकल उसका कहीं आने-जाने का मन नहीं होता, मन मारकर जब वह तैयार होकर निकलती है, दस लोगों से मेल मुलाकात होती है, तब उसे अच्छा ही लगता है। अपने प्रति लोगों का सम्मान देख उसे अपना कुछ अस्तित्व नजर आने लगता है, पर घर आकर वह फिर उन्हीं अन्धेरों मे डूबने लगती है।

मुम्बई में बहुत बड़ा सेमिनार था, आने-जाने रहने खाने का सारा इंतजाम संस्था ने किया था। दो दिन के लंबे कार्यक्रम के अंत मे दूरदर्शन के कोई बहुत बड़े ऑफिसर शायद एम. डी. का जो शायद इस कार्यक्रम के अध्यक्ष थे. बडे ताम-झाम लाव लश्कर के साथ आगमन हआ। उन्हें ससम्मान माइक पर आशीर्वचन के लिये निमंत्रित किया गया । वह उनकी गुरुगंभीर आवाज को ध्यान पूर्वक सुन रही थी। यह,,, आवाज,,,

  • ‘आदरणीया अर्चना जी की आवाज का, उनकी कला का, मैं पिछले चालीस वर्षों से मूक प्रशंसक रहा हूँ जब वो लखनऊ आकाशवाणी से सुगम संगीत गाती थीं।’

अब अर्चना ने गर्दन उठाकर ध्यान से एम.डी. साहब की ओर देखा-

-‘कृष्ण धर?’

डिनर के समय अर्चना भीड़ से अलग खड़ी थी। किसी ने नैपकिन सहित प्लेट उसकी तरफ बढाई। उसने संकुचित होकर नजरें ऊपर उठाई । कृष्ण धर थे- ‘इतने वर्षों बाद भी आप वैसी ही हैं’

अर्चना ने धन्यवाद कहकर प्लेट ले ली – ‘कैसी?’

– ‘जैसी तीस वर्ष पहले संकोची थी। आगे बढकर खुद विश करने या परिचय करने में आप हमेशा से ही कतराती रहीं।’

  • ‘हाँ, कई लोग इसी वजह से मुझे घमंडी भी समझ बैठते हैं पर ऐसा नहीं हैं,,,,,, आपने सही समझा,,, मै इस मामले में जरा संकोची ही हूँ।
  • ‘आप तो शायद आज भी बात न करतीं अगर मै ही आगे बढकर पहल न करता,,,।’ कृष्ण धर हँसे,,
  • ‘शायद’ वह संकुचित हो गई। सोचने लगी क्या कहे,,,,?

इस बीच उनसे बात करने लोग लगातार आते रहे,, जिन्हें उन्होंने हाथ के इशारे से रोक दिया —- ‘डिनर के बाद मिलते हैं यार,, उनका सारा ध्यान अर्चना की तरफ था।

  • ‘हाँ, और बताइये आप कैसी हैं?

– ‘अब और कैसी हो सकती हूँ। बस, सब समापन की ओर है’ अर्चना ने उदासी से कहा।

  • ‘मुझे तो ऐसा नहीं लगता आपको देखकर, आप अभी भी वैसी की वैसी यंग और खूबसूरत हैं।’
  • ‘साठ साल की यंग??’ वह मुस्कराई,
  • देखिये मैं आपसे दस साल छोटा हूँ पर मैं लग रहा हूं साठ साल का, आप नहीं, मुझे सब पता है, आपके साथ जो जो घटा है। मुझे जानकर बहुत ही दुख हुआ,,
  • ‘आप, आप कैसे जानते हैं??’ वह चकित थी, कृष्ण धर हंसा,
  • ‘आपने तो कभी हमपर नजर ही नहीं डाली। हम तो शुरू से ही आपकी आवाज के और आपके दीवाने रहे हैं।’ अर्चना अकबका गई,,,
  • ‘ये,,, कैसी बातें कर रहें है आप?’ वह अपने आसपास देखने लगी। जैसे कोई सहारा ढूंढ रही हो।
  • ‘अब इस उम्र में पहुंच कर ही तो सच बोला जा सकता है। ट्रांसफर मेरा चाहे जहाँ हुआ हो। मै अपने सूत्रों से आपके बारे में हर जानकारी रखता रहा हूँ। आपका अकेलापन,,,, आपकी दुश्वारियां,,,
  • ‘बस अब चंद महीने और साल बचे हैं, वह भी निकल जायेंगे,,, उसने लंबी सांस लेकर कहा,,,
  • ‘सब से पहले तो आप अपनी निगेटिव सोच बदलिये। आप खुद को साठ साल का प्रचारित कर रही हैं क्यों भई? किसलिये? आप यह कहना बंद करिये,,,,, अब से यंग और खुशमिजाज लोगों के बीच बैठिये,,,,,,उनसे दोस्ती रखिये…. हंसिये हंसाइये ….कष्ण ने हाथ आगे बढ़ाया।
  • ‘मैं हाजिर हूँ दोस्ती के लिये, अभी भी,,,, आज भी,,, चालीस साल पहले जो संकोचवश खोया आज नहीं खोना चाहता। “पता नहीं कब अर्चना का हाथ कृष्ण धर के हाथ मे चला गया। उसने देखा कृष्ण धर के सांवले सलोना चेहरे पर सफलता की चमक के साथ-साथ एक निखार भी आ गया है। बदन पहले की अपेक्षा थोड़ा भर गया है। आँखें वैसी ही बड़ी बड़ी पर आत्म विश्वास से लबरेज हैं । इसीलिये तो तीस वर्ष बाद भी अर्चना ने उसे पहचानने में कोई भूल नहीं की। बस वह पहले से जरा बेतकल्लुफ नजर आया। कृष्ण के कहेनुसार यह उम्र के कारण था या फिर हो सकता है पद और सफलता इसका कारण हो।

अर्चना ने कृष्ण के हाथ से अपना हाथ अलग करना चाहा, पर कृष्ण ने इस तरह उसके हाथ को थाम रखा था कि उसे हाथ छुड़ाने के लिये एक तरह से अपना हाथ खींचना पड़ा – ‘अब चलूँगी,, साढे दस बजे ट्रेन है।’

  • ‘आज मत जाओ प्लीज,, कल चली जाना, कितनी बातें बची हैं अभी।’ कृष्ण की आवाज का प्रेमपूर्ण आग्रह लगभग गिड़गिड़ाहट मे बदल गया,—- ‘तीस सालों के तीस घंटे ही दे दो मुझे।’
  • ‘रिजर्वेशन है, जाना ही होगा, सारी बातें समाप्त हैं, अब क्या बचा है? अब तो केवल दोहराव है,,,,अपने अधूरेपन से उबरने की कोशिश मात्र है,,, उसने लंबी सांस लेकर कहा।
  • ‘फिर वही बात, मेरी बातों पर गौर करना। कुछ भी समाप्त नहीं हुआ है। शुरूआत तो कभी भी की जा सकती है। संपूर्ण होने की संभावनाएं अपने आसपास ही रहती हैं।’ कृष्ण ने धीमी आवाज में कहा, उसकी आवाज में पता नहीं ऐसा क्या था कि एक पल को अर्चना का सारा अस्तित्व ही मानो विचलित हो उठा, दूसरे ही पल वह फिर स्थिर होकर बोली— ‘यह जो कुछ भी मुझ में है, वह मैने उत्पन्न नहीं किया, न ही वह एक दिन में मेरे भीतर निर्मित हुआ है। इस समाज, संस्कृति, और परंपराओं ने जो कुछ मेरे भीतर भरा है, मैं उसी की नियति हूँ। किसी निश्चय पर पहुंचने के लिये दिल और दिमाग का एक साथ खडे रहना जरूरी है।

वह विदा लेकर चल दी। आज फिर इतने वर्षों बाद उसे लगा कोई उसे लगातार घर रहा है। दो आँखे मानों उसकी पीठ में गडी जा रही थीं. जिसकी चभन और गर्मी उसे अपनी पीठ से दिल मे उतरती महसस हो रही थी। उसका दिल बार-बार चाहा एक बार पलट कर देख ले, बीच मे गुजरे तीस वर्षों को भूलकर कृष्ण की खुली बाहों में समा जाए, उसकी नशीली आँखों मे डूबकर उसके सीने पर सर रख दे, पर वह बिना पलटें सीधी चलती रही। पलटकर वह अब कुछ भी देखना या तलाशना नही चाहती। अब तो वह जानती है उन आँखों को,,, ऐसा नहीं कि कृष्ण उसके अंतर से बिना कोई निशान छोड़े गुजर गया हो। वह सोचने लगी अगर जीवन एक पड़ाव है तो हमारी यात्रा एक ही समय में आगे और पीछे कैसे चलती है? आज वह अपने लिये चुनी गई जिन्दगी के अर्थों को समझ कर संतुष्ट है।

वह अपने मान और मर्यादा में जकड़ी चुपचाप धीर कदमों से अकेली स्टेशन की ओर चल दी।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’