देश की सेवा करनेवालों के चरणों पर जनता पाई जाती है, सुरक्षा करनेवाली पुलिस के चरणों पर कानून पाया जाता है,  धर्म के सेवकों के तले धर्म और साहित्य के सेवकों के चरणों में साहित्य। ऐसे लोग जब भी उठते हैं तो चरणों के आस-पास पड़ी चीजें हिल जाती हैं और वे उन्हें चरणों तले दबाते चलते हैं, जिससे दबी चीजें अपनी औ$कात जान सकें और चरणों-तले ही रहें। इसी दबाव तंत्र को संत लोग ‘प्रगति’ भी कहते हैं। जो जितना दबा सकता है, उतना ही प्रगति-पथ पर आगे बढ़ता है।

अब चाहे यह दबाव लेखक को पुरस्कार दिलाने का हो, दूसरे देशों पर आॢथक प्रतिबंध लगाने का हो,  भेड़ों की सेवा करने के लिए चुनाव जीतकर ‘सेवा’ करने का हो अथवा अपहृत नारी का थाने में बुलाकर बयान लेने का हो।

ये हिंदी के सेवक हैं, सो प्रजातंत्रीय सेवावृत्ति से अलग कैसे रह सकते हैं। अपने चरणों में पड़ी हिंदी को वे निरंतर इस अंदाज में सहलाते रहते हैं,  जैसे अपने किसी कूं-कूं करते पालतू कुत्ते को सहला रहे हों। लोग अंग्रेजी के ज़माने के जेलर होते हैं, वे अंग्रेजों के ज़माने के $कैदी हैं। यह कैद उनके लिए सोने के पिंजरे जैसी सुखद है। जीवन में कुछ भी अच्छा होता है तो वह या तो अंग्रेज करता है या अंग्रेज़ी करती है। कुछ वर्ष पहले जब उन्हें पता चला था कि लंदन में विश्व हिंदी सम्मेलन हो रहा है और मैं जा रहा हंू तो वे तुरंत मेरे पास आ गए थे और मुझ व्यंग्यकार पर व्यंग्य करते हुए बोले, ‘क्यों लंदन जा रहे हैं? हिंदी का सम्मेलन अटेंड करने अंग्रेज़ों के देश में जा रहे हैं? देख लिया, बिना अंग्रेज़ और अंग्रेज़ी’ के हिंदी की प्रोग्रेस नहीं हो सकती है। अब आपकी हिंदी भी इंटरनेशनल हो गई।

‘हिंदी तो पहले से ही अंतर्राष्ट्रीय है। इससे पहले त्रिनिदाद और मॉरीशस में विश्व हिंदी सम्मेलन हो चुका है।’  

ये नाम सुनकर जैसे उनके मुंह में कंकड़ आ गया। बोले, ‘किनकी बात करते हैं? ये दोनों भी तो इंडिया की तरह हैं- आपका छोटा भारत, मजदूर मेंटलिटीवाला। सम्मेलन लंदन में होगा तो प्योरिली इंटरनेशनल होगा। उसे अंग्रेजों का ब्लेसिंग मिलेगा। जब अंग्रेज टूटी-फूटी हिंदी में बोलेगा तो पूरा हॉल गद्गद् हो जाएगा, आप देखना। अंग्रेज़ी अ$खबारों में जब हिंदी के बारे में कुछ छपेगा तो आपके हिंदीवाले ही गद्गदाए घूमेंगे।’

मैंने कहा, ‘सम्मेलन अंग्रेज नहीं कर रहे हैं, लंदन के हिंदी प्रेमी हिंदुस्तानी कर रहे हैं। देखिएगा, ये हिंदुस्तानी लोग लंदन में कितना धाकड़ आयोजन करते हैं।’   

वे मुझ अज्ञानी पर फिर व्यंग्य से मुस्कराए। बोले, ‘हो तो लंदन में रहा है और मैं आपको बता दूं, लंदन इंडिया में नहीं है हिंदी वाले जी। कॉन्फ्रेंस धाकड़ होगी।  देखिएगा, इसके बाद पूरे वर्ल्ड में हिंदी का फ्लैग दिखाई देगा, बट बिकॉज ऑ$फ लंदन। कितना भी सम्मेलन-वम्मेलन कर लें,  इंग्लिश के सामने हिंदी इज ज़ीरो। अगर हिंदी को राइज़ करना है तो अंग्रेजों और अंग्रेज़ी का ब्लेसिंग लेना ही होगा।’

लोग सावन के अंधे होते हैं, वे अंग्रेजी के अंधे हैं और ऐसे ‘अंधों के सामने रोए तो अपने नैन खोए’ वाला मुहावरा मुझे रास्ता दिखाता है और मैं अक्सर उन्हें छोड़ दूसरे रास्ते पर चल देता हूं, पर आप कितना भी दूसरे, तीसरे या चौथे रास्ते पर चलें, छोटी-सी दुनिया के पहचाने रास्तों पर अंधे मिल ही जाते हैं।  इनका मुख्य उद्देश्य अपने को बड़ा और आपको छोटा सिद्ध करना होता है। ऐसे अंधों को आपका कुछ भी नज़र नहीं आता है और ये अपनी दुकान, अपने मकान, अपनी कार, अपने बच्चों, अपनी विदेशी क्रॉकरी आदि के सामने आपको बौना सिद्ध करके परमानंद सुख को प्राप्त करते हैं।

इस बार जब उन्हें पता चला कि सम्मेलन सूरीनाम में हो रहा है तो सुबह-सुबह की जगह शाम-शाम को मेरे घर आ गए।  जब वे अकड़ाए मूड में होते हैं तो मुझसे मिलने टाई-कोट पहनकर सुबह-सुबह आते हैं, परंतु जब अवसाद के मूड में होते हैं तो गाउन पहने, मुंह में पाइप दबाए शाम ढलते ही मेरे पास आते हैं। वैसे शाम ढलते ही वे अक्सर अवसाद के मूड में होते हैं और किसी के घर में होते हैं। अवसाद के समय वे अपने घर में अकेले हाला और प्याला का साथ पसंद नहीं करते हैं। उनके हाथ में जब तक गिलास न आ जाए, तब तक जिस काम की बात को करने वे आए होते हैं, करते नहीं हैं, बस पाइप पीते रहते हैं। यदि आपने हाथ में प्याला न दिया तो वे एक सच्चे संत की तरह अपना पाइप पीकर बिना कुछ कहे दूसरे हातिमताई की तलाश में चल देते हैं। उनके ‘मित्र’ उनकी इस आदत को जानते ही हैं और शाम को मनोरंजन के लिए फिल्म देखने पर पैसा न खर्चा करके, इनकी मनोरंजनकारी बातों को ही सुन लिया करते हैं।

अंग्रेज़ के अंदाज़ में गिलास से सिप लेते हुए बोले, ‘जानते हैं, आपकी हिंदी प्रोग्रेस क्यों नहीं कर रही है?’

‘क्यों?’

‘वो इसलिए कि टुम हिंदीवाला अंग्रेज़ीवालों से दूर हो रहा है। हमने सोचा था कि टुम हिंदीवाला को थोड़ा इंटैलीजेंट आ गया है। हम बहुत हैप्पी हुआ,  जब टुमने लंदन में अपना कॉîन्फ्रेंस किया, कितना सक्सेजफुल था। इसके बाद टुम आगे जाने के बजाय बैक मारता, सूरीनाम जाता! जानता, वहां गुलाम लोग रहता।’

‘वहां तो भारतवंशी बहुसंख्या में हैं और हिंदी से प्यार करते हैं।’ 

‘व्हाट भारतवंश! यू नो दे वर लेबरर… मज़दूर था सब… बड़ी डिफिकल्टी से सब हिंदी छोड़ा… कुली से आदमी बना… अब तुम उनको फिर कुली बनाता… वेरी सैड… हम वहां नहीं जाएगा।’

‘आपको कोई वहां ले जा रहा है?’

‘हां, अपना एक एमपी जानता। बोला, लंदन गया… सूरीनाम भी जाओ। फाइव स्टार में ठहरो… दारू पियो और घूमकर आ जाओ। पर यू नो,  हम स्लेव्स के देश में नहीं जाना मांगता।’

‘पर स्लेव्स के देश में रह सकते हैं।’

‘यू मीन इंडिया… स्लेव कंट्री।’

‘जी हां’ भारत, आज भी आप जैसे लोगों के कारण कई अर्थों में परतंत्र है।’

‘टुम पता नहीं कैसा बात करता… हम जाता।’

उन्होंने गटागट गिलास $खाली किया और 

चल दिए। 

एक दिन उनका $फोन आया, ‘बहुत देर से $फोन कर रहा था, एंगेज जा रहा था, किससे बात करता?’  

‘बात नहीं कर रहा था, इंटरनेट पर था।’

‘आपके पास कंप्यूटर है?’

मैं अनुभव कर सकता था कि अविश्वास के कारण उनकी आंखें प्रश्नवाचक चिह्नï बन गई होंगी,  जैसे सांपों और साधुओं के देश भारत की सॉ$फ्टवेयर प्रगति को देखकर पश्चिम की आंखें बन जाती हैं।’

‘हां, कुछ महीने पहले ही $खरीदा है।’

‘कौन सा?’

मैंने जब उनको अपने कंप्यूटर के बारे में बताया तो बोले, ‘ओह! पेंटियम-2 है। हमारे पास पेंटियम-3 है, आपका आउटडेटिड है।  (मैं जानता हूं कि अगर मैं उनसे तीन बताता तो वे चार बताते और चार बताता तो वे पांच बताते।) पर आप हिंदीवालों के लिए ठीक है। अभी तो आपका बेटा ही करता होगा कंप्यूटर पर काम। आपके लिए तो बेकार है।’

‘नहीं, मैं भी करता हूं। अपना लेखन आजकल इसी पर कर रहा हूं।’

‘आप कंप्यूटर पर हिंदी में काम कर लेते हैं! (उन्होंने ऐसे ही चौंककर प्रश्न किया,  जैसे एक बार जब मैंने किसी अंग्रेज़ी ज्ञानी को बताया कि मैं आजकल कंप्यूटर पर अपना हिंदी लेखन कर रहा हंू तो उसने पूछ लिया, क्या बाज़ार में हिंदी का कंप्यूटर भी आ गया?) मैंने कभी सुना नहीं कि कोई हिंदी वाला कंप्यूटर इस्तेमाल करता हो।’

‘आपने नहीं सुना, यह हम हिंदीवालों का दुर्भाग्य है। मैं अपने समेत हिंदी के उन तमाम लेखकों से- नरेंद्र कोहली, अशोक चक्रधर, ज्ञान चतुर्वेदी, दिविक रमेश, तेजेंद्र शर्मा, संज्ञा उपाध्याय, प्रकाश हिंदुस्तानी आदि- जो कंप्यूटर पर हिंदी में काम करते हैं, कहूंगा कि आपको अपनी प्रगति सुनाते रहें।  मैं आज ही उनको हिंदी और अंग्रेजी दोनों में ई-मेल लिखता व भेजता हूं।’

‘ई-मेल हिंदी में लिखी और भेजी जा सकती है?’ अंग्रेज़-भक्त कंप्यूटर ज्ञानी ने हिंदीवाले कंप्यूटर अज्ञानी से जानना चाहा। 

‘हां।’

‘कैसे?’

‘सरल है। पहले आप लिख लें, फिर उसकी कॉपी कर पेंट ब्रश में पेस्ट कर दीजिए। उसे जीपीजी फाइल में सुरक्षित कर लीजिए।  आपका टैक्स्ट चित्र में परिवॢतत हो जाएगा। अब उस $फाइल को अटैचमेंट के रूप में इ-मेल कर दीजिए। वैसे इ-पत्र जैसी साइट हिंदी में इ-मेल भेजने की सुविधा देती है। आप वेब दुनिया पर हिंदी की पहली पत्रिका भी पढ़ सकते हैं। नेट जाल पर ‘अभिव्यक्ति’, ‘अनुभूति’, ‘काव्यालय’, ‘बोलोजी’ जैसी अनेक वेब पत्रिकाएं हैं। यदि आपके पास तथा आपके मित्र के पास हिंदी के वही फोंट हैं तो आप दोनों याहू मैसेंजर तथा चैट पर हिंदी में लिखित बातचीत कर सकते हैं।’

उनकी अंधी आंखों में मेरे लिए अविश्वास झलक रहा था। उन्हें लग रहा था, जैसे मेरा धर्म-परिवर्तन हो गया है। मेरे धर्म- परिवर्तन को प्रशंसनीय दृष्टि से देखते हुए बोले, ‘आप तो भई, कमाल के इंटेलीजेंट हैं। मैं तो आपको केवल हिंदीवाला ही समझता था, आप तो अंग्रेजीवाले निकले। मा$फ कीजिए।’

‘मा$फ तो आप कीजिएगा, मैं अभी भी हिंदीवाला हूं और हिंदी ने कंप्यूटरवालों को विवश किया है कि वे हिंदी का महत्त्व समझें।’ 

इस कंप्यूटर ने ज्ञानी और अज्ञानी की परिभाषा ही बदल दी है।

पहले अंग्रेजी के जानकार को पढ़ा-लिखा, समझदार (हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को अंग्रेजी क्या) और सभ्य समझा जाता था।  आजकल कंप्यूटर जाननेवाले को समझा जाता है। कंप्यूटर ने संबंधों की परिभाषा भी बदल दी है। अंग्रेजी के मुहावरे-बच्चा आदमी का पिता है- के कारण पहले अंग्रेजी पढ़े-लिखे बच्चे स्वयं को बाप समझने लगे। पब्लिक स्कूलों में पढ़ कर आने के बाद हिंदी बोलनेवाले माता-पिता उनको गंवार लगते थे। अपने हमउम्र मित्रों को बताते शर्म आती कि ये उनके मां-बाप हैं। मां-बाप ने अपना पेट काटकर इस इरादे से अपने जिगर के टुकड़े को पब्लिक स्कूल में पढ़ने के लिए डाला था कि वह ज़माने से पीछे नहीं रहेगा और कुछ बनेगा, पर वह इतना आगे बढ़ा कि मां-बाप पिछड़ गए। अंग्रेजी शिक्षा के सामने ईमानदारी, मानवता, सच्चाई, सेवा, प्यार आदि की बातें बेकार लगती हैं।

इधर कंप्यूटर ने बच्चे को बाप का बाप बना दिया है। कंप्यूटर-ज्ञानी पुत्र अपने पिता से अक्सर यह कहते सुना जाता है, ‘आप तो कुछ भी नहीं जानते हैं।’ 

पिता शॄमदगी से सिर झुकाकर स्वीकार करता है कि मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था के कारण वह आधुनिक व्यक्तिवाद के प्रति अज्ञानी ही है। 

मंत्रमुग्ध माता अपने कंप्यूटर-कन्हैया की लीला देखती है। पहले बच्चा पिछड़ न जाए, इसलिए मां-बाप पेट काटकर कंप्यूटर खरीदते हैं। जैसे- जैसे समाज ‘प्रगति’ करेगा, संतान को प्रगति कराने की विशता में मां-बाप का पेट कटेगा ही। अगर पेट कटने से बचाना है तो पश्चिमी प्रगति के अनुकरण में मां-बाप भी पश्चिमी हो जाएं। न संतान की चिंता होगी, न पेट कटने का भय। पर अभी तो कंप्यूटर ने लोगों को भयभीत किया हुआ है। नई चीज़ से डरना, जैसे हमारी नियति हो गई है। पहले लोग भाषा से डराते थे, आजकल तकनीक से डरा रहे हैं।