कविता ने रसोई साफ करते हुए मुंह बनाया और उसके तेवरों से घबराये हुए दो गिलास झन्न से नीचे फर्श पर आ गिरे। झल्लाती हुई कविता ने झुककर गिलास उठाये और करीब-करीब पटकने वाले अन्दाज में सिंक पर गिरा दिये।

कविता हमेशा से नाखुश थी वो ग्यारह साल पहले भी इतनी ही नाखुश थी जब उसके भाई ने इस घर में रिश्ता तय होने की बात बतायी थी। कविता को यों बंधन तो बिल्कुल भी पसन्द नहीं थे। फिर जब उसे पता लगा कि उसके होने वाले दूल्हे का अपना व्यवसाय है इसलिए पुश्तैनी घर में माता-पिता के साथ ही रहना होगा। उसका मन विद्रोही हो चला था। अपनी प्रिय सहेली ममता से उसकी खूब बहस हुई। ममता उसकी इस बगावत से सहमत नहीं थी और उसे यही सलाह दे रही थी कि तीस वर्ष की ढलती उम्र में बगैर माता-पिता की कविता को ऐसा आदर्श रिश्ता थाली में परोसा हुआ मिल रहा है तो मना करना एकदम वैसा ही होगा जैसा आयी किस्मत की तरफ पीठ कर लेना।

कविता की व्याकुलता वैसी की वैसी ही थी। ममता की बात का असर यह हुआ कि कविता ने बहुत दिनों तक उसे अपना दुश्मन माना। उसे शक भी हुआ कि कहीं उसके भैया ने तो ममता को सिखा पढ़ाया नहीं था कि वो उसे समझाये बुझाये।

खैर! बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाती। हफ्ते दो बाद हफ्ते बाद कविता को रिश्ते पर हामी भरनी ही पड़ी। उसके बाद हबड़-तबड़ में भैया ने पन्द्रह दिन बाद की ही मुहूर्त निकलवाया और चट मंगनी पट शादी करके कविता मिसेज गुंजन शर्मा हो गयी।

तब का दिन और आज का दिन बस जंजाल ही जंजाल । कविता ने खौलते पानी में चाय की पत्तियाॅं डालीं और उसकी उंगलियाॅं उस डिब्बे को टटोलने लगीं जिसमें सासू माॅं और ससूर जी का पसन्दीदा चाय मसाला था।

माॅं, बाबूजी को चाय थमाकर एक ओढ़ी हुई विनम्रता से वो वापस अपने कमरे में लौटी। चाय का घूंट भरते हुए उसने अपनी बिटिया को याद दिलाया कि गणित की कोचिंग का समय हो चुका है। बेटी दूध-बिस्किट खाकर कोचिंग को रवाना हुई और कविता ने अपने पति गुंजन को फोन करके कुछ पूछा और जवाब हाॅं में मिला तो कविता ने चट माॅं-बाबूजी को सूचना दी और अपना पहले से पैक किया हुआ बैग लेकर बाहर आयी। बच्चा करीब आठ-दस वर्ष का था और वो भी पूरी सीट पर बैठ गया।

कविता का मन भावुक और संवेदनशील तो था इसलिए पांच दस मिनट प्रतीक्षा करने के बाद उसने आगे बढ़कर अपनी सहयात्री से बच्चे की बीमारी के बारें में पूछ लिया। कविता का प्रश्न इतना सच्चा था कि पूरे रास्ते उस महिला ने अपनी राम-कथा कविता को विस्तार से सुना दी।

वह महिला एक अच्छे घर से सम्बन्ध रखती थी, मगर थोड़ी स्वच्छन्द प्रवृति के कारण वह बारहवीं की पढ़ाई छोड़कर एक नवयुवक से प्यार की नादानी में पूणा से भाग कर यहाॅं जबलपुर आ गयी थी और कुछ ही महिनों में जीवन का कड़वा सच सामने आने लगा। विवाह के दो वर्ष बाद हालात ऐसे हो गये कि वो पति जिस पर सब न्यौछावर कर दिया था वो आर्थिक तंगी से हारकर जीवन समाप्त कर बैठा। फिर रह गयी वो यानि लीला और उसका नन्हा सा बेटा। हालात के आगे झुकना पड़ा और एक मिल में कुछ उपकरण आदि छांटने का काम करने लगी। बस इसी तरह जीवन चल रहाथा। कट रहा था। बीत रहा था।

मगर वो जबलपुर से यहाॅं सुरपुरा कस्बे यानि कविता के पीहर क्यों आयी होगी यह सवाल कविता के मन में कुलबुला ही रहा था कि उस महिला ने खुद ही बता दिया उसका पुत्र किसी चर्म रोग का शिकार था और इधर सुरपुरा में एक वैद्य निःशुल्क चिकित्सा करते हैं बस इसीलिए दो माह में एक बार यहाॅं बच्चे को लेकर आना पड़ता है।

इसके बाद कविता ने उससे और भी कुछ बातें की जैसे उसकी उम्र तो ज्यादा नहीं थी फिर उसने पढ़ाई करके कोई परीक्षा क्यों नहीं दी किसी सरकारी नौकरी के लिए प्रयास क्यों नहीं किया आदि आदि और इस सबका जवाब लीला ने यह दिया कि उसका उत्साह, इच्छा-शक्ति करीब-करीब मुरझा से गये थे फिर ऐसा लगता था कि बस दिन कट जाये यह बच्चा पल जाये बस।

कविता ने उसे साहस बंधाया और अपने पति का कार्ड देकर कहा कि वह अवश्य उसे कोई ठीक-ठाक काम दिलवा देगी। उसके ससुर जी किसी संस्था से जुड़े थे जो गरीब बच्चों के पढ़ने, पहनने, खाने में व नौकरी दिलवाने में सहायता करती है। कविता ने लीला को विश्वास दिलवाया कि वो चिन्ता न करे उसका बच्चा खूब अच्छी तरह पढ़ेगा और नौकरी भी करेगा।

बातों-बातों में रास्ता तय हो गया। बस रुकी। लीला को अलविदा कहकर कविता अपने रास्ते मुड़ी और किसी आॅटोरिक्शा की प्रतिक्षा करने के लिए रूकी। कुछ ही सेकेंड गुजरे होंगे कि गुंजन के स्वर से वो ठिठक गयी। उसके पति उसे लेने आये थे। कार की डिक्की में बैग रखकर कविता उत्साह से पति पास सटी सीट पर बैठ गयी। आज तो कविता पूरी उर्जा से चहक रही थी। घर तक पहुंचते पहुंचते उसने लीला की नौकरी और उसके बच्चे के इलाज व पढ़ाई की बात भी पक्की कर ली। गुंजन को भला क्या ऐतराज था। उन्होंने वादा किया कि एक सप्ताह के भीतर कविता की ये दोनों इच्छायें पूरी कर जायेंगी।

अब घर आ गया। बिटिया व सास ससुर गेट पर ही चहलकदमी कर रहे थे। दो दिन कविता के घर में न रहने से घर एकदम सूना-सूना सा हो गया था। अभी कविता कार से उतरी भी न थी कि गुंजन ने उसकी कलाई थाम कर उससे प्यार से कहा तो मैडम मेरी भी एक गुजारिश मानोगी क्या? कविता के हाॅं कहने पर गुंजन ने मीठी सी आवाज में कहा ‘‘अब बस से पीहर जाने की जिद्द छोड़ दोगी और कार से जाओगी।” कविता ने चट से हामी भरी। बड़े स्नेह से गुंजन की कलाई छोड़ी और घर के भीतर दाखिल हो गयी।

एक घंटे के भीतर कविता अपनी उसी लय पर वापस थी। घर में फिर रौनक थी मगर उससे ज्यादा चमक थी कविता के चेहरे पर। अचानक उसके पीहर से फोन आया। मोबाइल कान में लगाकर कविता ने भाभी को बताया कि वो अपने घर पर आराम से पहुॅंच गयी है। आज कविता और गुंजन दोनों बहुत खुश थे। कविता खुश थी और संतुष्ट महसूस कर रही थी कि उसकी वजह से लीला की आने वाली जिंदगी में मुश्किलें कुछ कम जरूर होंगी। गुंजन भी ये समझ रहे थे कि कविता खुश है, लेकिन उन्हें ज्यादा खुशी इस बात की थी कि लीला के बहाने ही सही कविता को अपनी गृहस्थी और किस्मत से अब नाराज़गी नहीं रहेगी।

 

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