भारत एक कृषि प्रधान देश है। इसलिए यहां मौसम का बहुत महत्त्व है, क्योंकि मौसम का कृषि पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। अच्छी फसल पाने के लिए समय से वर्षा और सही मात्र में धूप मिलना जरूरी है।
पोंगल दक्षिण भारत का और खास तौर पर तमिलनाडु का एक महत्त्वपूर्ण कृषि त्योहार है, जो सर्दियों के अन्त वसन्त ऋतु के आगमन पर मनाया जाता है। जब मकर राशि में सूर्य की संक्रान्ति होती है और उत्तरायण पुष्यकाल होता है, तभी इसको मनाया जाता है। एक वर्ष में सूर्य मकर राशि से कर्क राशि तक उत्तरायण (उत्तर में वास करता हुआ) रहता है और कर्क से मकर राशि तक दक्षिणायण। यह अवधि लगभग 6-6 महीने की होती है। उत्तरायण शुभ काल माना जाता है।
यह त्योहार सूर्यदेव को धन्यवाद देने के लिए मनाया जाता है जिनकी कृपा से अच्छी धूप के कारण फसल अच्छी होती है। पोंगल का शब्दिक अर्थ है: ‘उबल जाना’, इसलिए आज के दिन नवधान्य को दूध में उबाला जाता है और यह खास व्यंजन सूर्य को कृतज्ञतास्वरूप भेंट किया जाता है।

तमिल पंचांग के अनुसार, यह ‘थाई’ मास के प्रथम दिन में मनाया जाता है। ‘थाई’ मास लगभग जनवरी मास में ही पड़ता है। दक्षिण भारत में इस चार दिवसीय उत्सव को बड़ी श्रद्धा और उल्लास से मनाया जाता है। तमिल भाषा की एक प्रसिद्ध कहावत-‘थाई पिरांथल वाली पिराक्कुम’ (अर्थात थाई महीने के अन्त तक हर एक के जीवन में सुख, शन्ति और समृद्धि आ जाएगी।) इसी त्योहार के आधार पर बनी है।

पोंगल का इतिहास
दक्षिण भारत में पोंगल अनादिकाल से मनाया जाता रहा है। इस कृषि उत्सव को मनाने की शुरुआत संगम युग (लगभग 200 ई.पू. से 300 ईस्वी) से मानी जाती है। संगम युग में कुंवारी कन्याएं ‘पवाईनोन्बू’ नामक त्योहार एक बड़े उत्सव ‘थाई निरादल’ की अवधि में मनाती थीं, जो पल्लवों के शासन के दौरान बड़े जोर-शोर से तमिल मास ‘मार्गाजी’ (दिसम्बर-जनवरी) में मनाया जाता था।

इस त्योहार के समय में कन्याएं दूध और दूध से बने पदार्थों का परहेज करती थीं। वे अपने बालों में तेल भी नहीं लगाती थीं। भोर में जल्दी उठकर वे नहा-धोकर देवी कात्यायनी की पूजा करती थीं और प्रार्थना करती थीं कि इस वर्ष फसल अच्छी हो। संगम युग के इन्हीं रीति-रिवाजों से पोंगल मनाने की प्रथा का आरंभ हुआ था।

पोंगल उत्सव से कुछ प्रसिद्ध कथाएं भी जुड़ी हैं। उनमें से प्रमुख कथा निम्न प्रकार है-
एक किंवदंती के अनुसार, एक बार भगवान शिव ने अपने प्रिय बैल, ‘वसव’ को आदेश दिया कि वह पृथ्वी पर जाकर मनुष्यों को बताए कि वे सूर्यदेव की अभ्यर्थना करें, जो उन्हें धूप प्रदान करते हैं। भगवान शिव ने कहा था- “इस अवधि में लोगों को रोज अपने शरीर की तेल से मालिश कर स्नान करना चाहिए तथा पूरे महीने सिर्फ एक बार ही भोजन करना चाहिए।”
परन्तु ‘वसव’ (बैल) ने गलती से उल्टा आदेश दे दिया कि लोगों को तेल की मालिश कर पूरे महीने में एक बार ही नहाना चाहिए और रोज भोजन करना चाहिए।
भगवान शिव को जब वसव की यह गलती मालूम पड़ी तो उन्होंने क्रोधित होकर उस बैल को श्राप दे दिया कि वह सदा पृथ्वी पर ही निवास करेगा और लोगों को खेत जोतने में उनकी मदद करेगा जिससे उनकी फसल अच्छी
हो। मान्यता है कि तभी से ये पशु कृषि में महत्त्वपूर्ण सहायक बन कर उभरे हैं।

एक दूसरी किंवदंती के अनुसार, भगवान कृष्ण ने गोकुल गांव के किसानों और ग्वालों को राय दी थी कि उन्हें इन्द्र देवता की पूजा करने के बजाय अपने कृषि-पशु और सूर्य देवता की पूजा करनी चाहिए।
जब इन्द्रदेव को यह बात मालूम पड़ी तो क्रोध में आकर कई दिनों तक उन्होंने उस क्षेत्र में लगातार वर्षा और तूफान से लोगों का जीना दूभर कर दिया। सारा क्षेत्र ही पानी में डूबकर नष्ट होने की कगार पर पहुंच गया, तब भगवान कृष्ण ने पूरा गोवर्द्धन पहाड़ अपनी छोटी उंगली पर उठाकर एक छाता-सा तान दिया और लोगों को नष्ट होने से बचाया था। इन्द्रदेव को शीघ्र अपनी गलती समझ में आ गई और उन्होंने वर्षा का तांडव रोक दिया।
दोनों ही किंवदंतियां सूर्य देव को धन्यवाद देने की प्रथा को उजागर करती हैं तथा पोंगल का महत्त्व समझाती हैं।

पोंगल कैसे मनाया जाता है?
यह चार दिवस तक चलने वाला दक्षिण भारतीय उत्सव आरंभ में सिर्फ कृषक समुदाय द्वारा ही मनाया जाता था, लेकिन बाद में सभी लोग इसे मनाने लगे। वैसे इस उत्सव को मनाने की शुरुआत एक महीने पहले ही हो जाती है। घरों की मरम्मत होती है, साफ-सफाई होती है और उनको सुरुचिपूर्ण ढंग से सजाया जाता है। अतिथियों के सम्मान के लिए हर घर के मुख्य द्वार पर एक पारम्परिक रंगों की कोलम बनाई जाती है। लोग नए वस्त्र और घर का सामान खरीदते हैं तथा अपने रिश्तेदारों, मित्रें एवं पड़ोसियों से मिलकर उनका अभिवादन करते हैं।

ये चार दिन, जब पोगल मनाया जाता है, बड़े पवित्र समझे जाते हैं जिनके दौरान कई कार्यक्रम होते हैं। पोंगल के चारों दिनों की बड़ी महत्ता है।
प्रथम दिवस
प्रथम दिन भोगी त्योहार मनाया जाता है। इस दिन वर्षा और बादलों के राजा इन्द्र की पूजा होती है तथा भक्त लोग इन्द्र देवता के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हैं जिन्होंने उन्हें अच्छी फसल देने हेतु पर्याप्त वर्षा करवाई। इसी दिन भोगी सन्ताल भी मनाया जाता है। कण्डों और लकड़ियों में पैदा की गई आग में लोग अपने घरों में एकत्रित कूड़ा-कबाड़ जलाते हैं और युवा कन्याएं उस आग के चारों तरफ नृत्य करती हुईं लोकगीत गाकर उल्लास प्रकट करती हैं। कहते हैं कि इस कार्यक्रम से हर घर में समृद्धि, वैभव और शांति का साल-भर निवास रहता है।

द्वितीय दिवस
दूसरे दिन पारम्परिक तरीके से उबले हुए दूध में चावल डालकर पोंगल पकाया जाता है। इस व्यंजन को मिट्टी के घड़ों में ही पकाने का विधान है। जब पोंगल तैयार हो जाता है तो सूर्यदेव को अर्पित किया जाता है और कृतज्ञ भक्त पर्याप्त धूप देने के लिए सूर्य देवता को धन्यवाद देते हैं। इस दिवस को इसीलिए ‘सूर्य पोंगल’ भी कहा जाता है। इसी दिन लोग अपने पारम्परिक पोशाक पहनकर लोगों से मिलते हैं तथा स्त्रियां श्वेत चावल के चूर्ण का लेप बनाकर अपने घर के दरवाजों के सामने बड़े कलात्मक रूप से कोलम बनाती हैं।

तृतीय दिवस
पोंगल उत्सव में तीसरे दिन को ‘मत्तू पोंगल’ कहा जाता है। यह दिन घर के पालतू पशुओं को समर्पित होता है। कृषक के लिए अच्छी फसल पाने में गाय-बैलों की बड़ी महत्ता होती है। आज के दिन वे अपने पशुओं को अच्छी तरह नहलाते-धुलाते हैं, उनके सींग रंगते हैं, गले में तरह-तरह की घंटिया, धागे इत्यादि डालकर उन्हें खूब सजाते हैं। इसके बाद वे लोग उनकी बाकायदा पूजा करते हैं और पोंगल नामक व्यंजन उनको खिलाते हैं। फिर वे अपने सजे-धजे पशुओं को सारे गांव में घुमाते हैं। सारा माहौल उनके आने-जाने और घंटियों की आवाज से गूंजता रहता है। कुछ जगहों पर बड़े समारोहपूर्वक पशुओं की दौड़ों का भी आयोजन किया जाता है। इस दिन पशुओं को बुरी नजर से बचाने के लिए विशेष आरती भी की जाती है।
मदुराई, तिरुचिरापल्ली और तंजावुर में खास वृष उत्सव आयोजित किए जाते हैं। अपने विशाल और भयावह लगने वाले बैलों के गलों में नोटों के बन्डल बांध दिए जाते हैं और उनसे फिर रुपयों को लेने का प्रयास किया जाता है। प्रायः इस दिवस का समापन एक बड़े प्रीतिभोज से होता है।

चतुर्थ दिवस
पोंगल उत्सव का आखिरी दिन कन्नूम पोंगल कहा जाता है। इस दिन स्त्रियां एक खास आयोजन करती हैं। सबसे पहले हल्दी के पौधे की एक पत्ती धरती पर रखी जाती है जिस पर लाल और पीले रंग से रंगे चावल के दाने रखे जाते हैं और अन्त में आरती की जाती है। घर की महिलाएं अपने परिवारों की समृद्धि, सुख और शांति के लिए प्रार्थनाएं करती हैं तथा अपने भाइयों के कल्याण की कामना भी करती हैं।
दक्षिण भारत के मंदिरों में इस उत्सव का आगमन ढोल-नगाड़ों, तुरहियों, शंखों और घंटियों के उद्घोष से किया जाता है। पोंगल पर विशेष पूजा-प्रार्थना की जाती है। पोंगल व्यंजन, गन्ने और मसालों का मंदिरों में भोग लगाया जाता है। बड़ी संख्या में भक्तगण मंदिरों में एकत्रित होते हैं और प्रसाद प्राप्त करते हैं।

चारों दिन देवताओं और प्रकृति को समर्पित रहते हैं जिनकी कृपा से प्राकृतिक संसाधनों इत्यादि की प्राप्ति होती है, इनके बिना अच्छी फसल प्राप्त करना संभव नहीं होता। हमें इन दिनों पूरी निष्ठा और विश्वास से प्रकृति और देवताओं के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करनी चाहिए। फसलों का यह त्योहार हमारे जीवन में समृद्धि, वैभव, सौभाग्य, शांति और सुख का संदेश लेकर आता है।

