Gurupurab festival
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सिक्ख धर्म में कुछ विशेष दिनों को ‘गुरुपर्व’ का नाम दिया गया है। ‘गुरुपर्व’ का अर्थ है गुरु का त्योहार। यह त्योहार गुरु की स्मृति में मनाया जाता है। सिक्ख धर्म में दस गुरु हुए हैं।

गुरुओं के विशेष दिनों में गुरु नानकदेव व गुरु गोविंद सिंह का जन्मदिवस तथा गुरु अर्जुनदेव व गुरु तेगबहादुर का शहीदी दिवस उल्लेखनीय हैं। सभी सिक्ख त्योहारों की तिथियां नानकशाही कैलेंडर के अनुसार तय की जाती हैं। ये सभी त्योहार पूरे देश में, भक्ति-भाव से मनाए जाते हैं।

गुरु नानक देव दस सिक्ख गुरुओं में से पहले थे। वे सिक्ख धर्म के संस्थापक भी है। वे एक महान मनीषी, संत और रहस्यवादी दार्शनिक थे। उन्होंने अपने उपदेशों के माध्यम से प्रेम, शांति व सत्य का संदेश दिया।

गुरु नानकदेव का जन्म वर्ष 1469 में पंजाब के छोटे-से गांव (अब लाहौर, पाकिस्तान में) हुआ था। उनका जन्मस्थान ‘नानक साहिब’ के नाम से जाना जाता है जो सिक्ख धर्म के लिए एक आदरणीय स्थल है। उनके दिव्य उपदेश ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ में संकलित हैं। यह सिक्ख धर्म का पवित्र ग्रंथ है।

उनका जन्मदिन ‘गुरु नानक जयंती’ – सबसे महत्त्वपूर्ण गुरुपर्व है। उनका जन्म कार्तिक माह की पूर्णिमा को हुआ था। यह दिन नवंबर में आता है, किंतु प्रतिवर्ष तिथि बदलती रहती है।

गुरु नानकदेव की महान स्मृति में सिक्ख लोग बड़ी उमंग व श्रद्धा से उनका जन्मदिवस मनाते हैं।

Gurupurab festival
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गुरु नानक देव के जन्म दिवस का समारोह तीन दिन तक चलता है – जन्म दिवस के दिन और उसके दो दिन बाद भी। समारोह के पहले दो दिन प्रभात फेरी से पर्व का शुभारंभ किया जाता है। लोग सुबह-सुबह मिलकर जुलूस निकालते हैं और गुरु की वंदना करते हैं।

प्रभात फेरियां कीर्तन करते हुए मुहल्लों से निकलती हैं तो लोग उन्हें अपने घरों में चाय व

मिठाइयों का प्रसाद देते हैं।

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इसके बाद गुरुद्वारों में अखंड पाठ आरंभ होता है। इसमें पूरे 48 घंटे तक बिना रुके गुरु ग्रंथ साहिब का पाठ होता है। दूसरे दिन एक भव्य शोभा यात्र निकाली जाती हैं। पंज प्यारे (पांच प्रिय) इसका

नेतृत्व करते हैं। वे शस्त्रधारी पांच व्यक्ति होते हैं, जो निशान साहिब (सिक्ख धर्म का चिह्न) को लेकर चलते हैं। पालकी में गुरु ग्रंथ साहिब को जतन से रखा जाता है। पालकी के आस-पास भजन-कीर्तन करने वाली मंडली चलती है। बैंड वाले तरह-तरह की धुनें बजाते हैं। गदका (पारंपरिक युद्धकला) दल वाले अपने जौहर दिखाते हैं। भक्त भी मिल कर इसमें हिस्सा लेते हैं व मिलकर कीर्तन करते हैं।

यह शोभायात्र नगर की सड़कों से निकलती है, जो रंग-बिरंगे बंदनवारों व लड़ियों से सुसज्जित होती है।

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जन्मदिवस के दिन, असा-दी-वार के पाठ के साथ ही समारोह आरंभ हो जाता है और उसके बाद कथा होती है, फिर कीर्तन होता है। अरदास के बाद कड़ा प्रसाद (हलवा) वितरित किया जाता है।

सभी गुरुद्वारों में दोपहर को लंगर का आयोजन होता है। परंपरा के अनुसार, लोग गुरुद्वारों में स्वयंसेवा करते हैं।

वे सफाई, खाना पकाने, परोसने व बर्तन धोने में मदद देते हैं। इसे ‘कार सेवा’ कहा जाता है। यहां सभी जातियों के लोग पूरे भक्ति भाव से हिस्सा लेते हैं। अमीर-गरीब, अपने सभी भेद-भाव भुलाकर भक्तों की सेवा करते हैं। माना जाता है कि सच्चे हृदय से सेवा करने वाला भक्त प्रभु के निकट हो जाता है।

सूर्यास्त के समय सांध्य प्रार्थनाएं की जाती हैं और देर रात तक कीर्तन होता है। आधी रात को गुरु नानकदेव का जन्म हुआ था। अतः उस समय गुरुवाणी का पाठ किया जाता है। गुरुवाणी सुनने से मन को शांति मिलती है। यह समारोह रात को करीब 2 बजे समाप्त होता है।

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इस दिन लोग घरों में भी अरदास व कीर्तन के बाद कड़ा प्रसाद बनाते हैं। शाम को घरों व गुरुद्वारों में मोमबत्तियों व बिजली के बल्बों से रोशनी की जाती है।

अमृतसर के ‘स्वर्ण मंदिर’ की सजावट दर्शनीय होती है। लोग अपने परिजनों, मित्रें और पड़ोसियों को बधाई देते हैं। इस अवसर पर विशेष ग्रीटिंग कार्डों का आदान-प्रदान किया जाता है।

बच्चों में सांस्कृतिक मूल्य विकसित करने के लिए माता-पिता उन्हें गुरु नानकदेव की जीवनी सुनाते हैं। बच्चों को गुरुद्वारों जाना अच्छा लगता है। वे कड़ा प्रसाद तथा लंगर छकते हैं। स्कूलों में बच्चे अपने हाथों से ग्रींटिंग कार्ड बनाकर एक-दूसरे को देते हैं।

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गुरु गोविंद सिंह सिक्ख धर्म के दसवें गुरु थे। उनका जन्म 22 दिसंबर, 1666 में बिहार के पटना शहर में हुआ था। उनका जन्म स्थल – पटना साहिब के नाम से जाना जाता है जो सिक्ख धर्म के आदरणीय व पूजनीय स्थलों में से एक है।

नौ वर्ष की आयु में गुरु गोविंद सिंह सिक्ख धर्म के दसवें गुरु बनें, उनके पिता गुरु तेगबहादुर नवें गुरु थे। गुरु गोविंद सिंह एक महान योद्धा, नेता, कवि व दार्शनिक थे।

1699 में उन्होंने ‘खालसा पंथ’ की नींव रखी। यह सिक्ख धर्म के इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना है।

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इस दिन उन्होंने कहा था:

“वाहे गुरुजी दा खालसा ते वाहे गुरुजी दी फतह।”

यानी खालसा वाहे गुरु (ईश्वर) से संबंध रखता है तथा वाहे गुरु ही उसे विजय देंगे।

तभी से ये शब्द सिक्ख धर्म में खास माने जाते हैं।

उन्होंने मुगल शासकों व उनके सहायकों से अनेक युद्ध लड़े। वे सिक्ख धर्म के अंतिम देहधारी गुरु थे। 1708 में उन्हें गुरु ग्रंथ साहिब का अंतिम गुरु घोषित किया गया।

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गुरुजी का जन्मदिवस प्रतिवर्ष जनवरी में आता है। यह दिन भी पूरी श्रद्धा से मनाया जाता है। इसके अनुष्ठान भी गुरु नानक जयंती जैसे ही होते हैं, बस भजन-कीर्तन व पाठ अलग होते हैं।

अनुष्ठानों में प्रभात फेरी, अखंड पाठ, अरदास, कीर्तन, गुरुवाणी, लंगर व कड़ा प्रसाद आदि शामिल हैं। शाम को गुरुद्वारों में सजावट की जाती है।

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लोग घरों में सजावट के बाद भी कड़ा प्रसाद बनाते हैं। घरों में भी अखंड पाठ रखे जाते हैं। लोग परस्पर भेंट करके बधाइयां देते हैं। इस दिन गुरु गोविंद सिंह की शिक्षाओं का स्मरण किया जाता है।

गुरु तेगबहादुर सिक्ख धर्म के नवें गुरु थे। उनका शहीदी दिवस एक खास गुरुपर्व के रूप में मनाया जाता है। 1675 में उन्हें मुगल बादशाह औरंगजेब के हुक्म से बंदी बना लिया गया क्योंकि उन्होंने मुसलमान बनने से मना कर दिया था। 11 नवंबर, 1675 को दिल्ली में उनका सिर धड़ से अलग कर दिया गया तभी से यह दिन गुरु तेग बहादुर की शहीदी व धर्म के प्रति श्रद्धा के सम्मान में मनाया जाता है।

इस गुरुपर्व में गुरुद्वारों में अखंड पाठ, कीर्तन, अरदास, लंगर व प्रसाद वितरण आदि होता है। भक्तिभाव से कीर्तन करते हुए लोग, गुरु की शिक्षा दोहराते हैं।

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गुरु अर्जुनदेव का शहीदी दिवस भी महत्त्वपूर्ण गुरुपर्व है। वे सिक्खों के पांचवें गुरु थे। मई, 1606 में उन्हें मुगल बादशाह जहांगीर ने लाहौर में मरवा दिया था, तभी से यह दिन उनके शहीदी दिवस के रूप में मनाया जाता है।

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इस दिन भी गुरुद्वारों में अखंड पाठ, कीर्तन, अरदास, लंगर व प्रसाद वितरण आदि होता है। इस दिन छबीलें लगती हैं, जहां ठंडा मीठा दूध बांटा जाता है। गुरुद्वारों में भी छबीले लगती हैं। गुरु अर्जुनदेव को स्मरण करते हुए उनकी शिक्षा दोहराई जाती हैं।

इन गुरुपर्वों के अलावा इस दिन अमृतसर के हरमंदर साहिब में गुरु ग्रंथ साहिब की स्थापना हुई थी, उसे भी एक महत्त्वपूर्ण गुरुपर्व माना जाता है। खालसा पंथ का स्थापना दिवस ‘बैसाखी’ और गुरु गोविंद सिंह के युवा पुत्रें का ‘शहीदी दिवस’ भी गुरुपर्व के रूप में मनाए जाते हैं।

सभी गुरुपर्व धार्मिक आस्था व श्रद्धा भाव से मनाए जाते हैं। सिक्ख धर्म के सभी गुरुओं के श्रद्धा और त्याग को भुलाया नहीं जा सकता।

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हमें इन गुरुओं के जीवन से शिक्षा से लेकर उन्हें अपने जीवन में उतारना चाहिए।

हमें सच्चे दिल से प्रार्थना करनी चाहिए ताकि गुरुओं का आशीर्वाद मिल सकें। उनके आशीर्वाद से ही हम मानसिक शांति व दूसरों के प्रति स्नेह का भाव पा सकते हैं।