आप अपने बचपन के बारे में कुछ बताइए।
Sudha Arora: कलकत्ता में बीते बचपन की पुरानी स्मृतियों में एक चार तल्ले का मकान उभरता है। चौथे तल्ले पर मुख्य सड़क की ओर खुलते हुए बरामदे वाला एक कमरा था, जहां की सींखचों को अपनी हथेलियों में थामे मैं बड़ा बाज़ार की उस बेहद व्यस्त सड़क पर चलती मोटरगाड़ियां, ट्रामें और लोगों को देखा करती थी। कलकत्ता के उस मकान का बड़ा अजीब नाम था- चूहामल की बाड़ी।
मकान के बीचोबीच बड़ा सा खुला आंगन था, जहां एक ओर बच्चों की पाठशाला लगी होती थी। इसी पाठशाला में सभी बच्चों के साथ मैं भी लयबद्ध पहाड़े सीखती जाती, जिनकी आवाज़ चौथे तल्ले तक गूंजती थी। वे पहाड़े इस कदर कर्णप्रिय लगते थे कि वहां से जब मैं भवानीपुर में शंभूनाथ पंडित स्ट्रीट के रतन भवन वाले फ्लैट में चली गई तो उन पचास-साठ बच्चों के लयबद्ध पहाड़े अक्सर बहुत याद आते थे।

घर में पढ़ने-लिखने की दृष्टि से वातावरण कैसा था?
हमारा परिवार एक सामान्य मध्यमवर्गीय और पुरानी मान्यताओं को मानने वाला परिवार था। उस समय में लड़कियों की शादी बारह से पंद्रह-सोलह साल की उम्र तक कर दी जाती थी। हालांकि मेरी मां की शादी जब अठारवें वर्ष में की गई तो वे लाहौर की वैदिक पुत्री पाठशाला से हिन्दी में प्रभाकर की डिग्री पास कर चुकी थीं और साहित्य रत्न, जो कि वर्तमान में एम.ए. के बराबर था, कर रही थीं। पढ़ाई में मेधावी होने के साथ-साथ कविताएं लिखने में भी मां की बहुत दिलचस्पी थी, लेकिन अपनी इस रुचि को वे सबसे छिपाकर अपनी किताबों के बीच में रखती थीं। पिताजी की भी साहित्य में गहरी रुचि थी। कलकत्ता में पापा के दोस्त थे, वरिष्ठ साहित्यकार स्वर्गीय श्री राजेन्द्र यादव। हमारे घर उनका निरंतर आना-जाना था। हर रविवार को वे बीजी के हाथ के आलू-सोया के परांठे खाने आते। उन्हें वे बड़े प्रेम से भाभी कहते थे और उसी नाते पापा को भी मज़ाक में साला कहकर ही संबोधित करते थे। वे अक्सर मुझे नई-नई किताबें पढ़ने को प्रेरित करते रहते थे।
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आपके बेहद कम उम्र में लिखना शुरू कर देने का कारण क्या यही साहित्यिक वातावरण था?
नहीं, इसके कारण बिल्कुल दूसरे थे। बचपन में मैं काफी बीमार रहती थी, जिससे स्कूल में भी कई-कई दिन अनुपस्थित रहना पड़ता था। हर दस दिन बाद खांसी, सर्दी, बुखार और सांस की तकलीफ हो जाती। तेरह साल की उम्र में वह तकलीफ तो अपने-आप ठीक हो गई, पर उसके बाद एक अजीब सी बीमारी ने मुझे जकड़ लिया। हर पन्द्रह-बीस दिन में मेरे बाएं हाथ की कोहनी सूज जाती और मैं उसके दर्द से जूझती रहती थी। मां के पास इतना समय नहीं था कि वे पूरे समय मेरे सिरहाने ही बैठ पातीं। मेरे अलावा मुझसे छोटे छह भाई-बहन थे। सो एक दिन मां ने मेरे हाथ में एक खाली डायरी थमा दी। उसमें मैं कभी संस्मरण लिख देती तो कभी कोई कविता। यहीं से मेरे लेखन की शुरुआत हुई।
लेखन आपका शौक है या ज़रूरत?
सतरह-अठारह साल की उम्र में किया गया वह लेखन एक अपरिपक्व मस्तिष्क की उपज था। पर उस लेखन ने भी मुझे जो पहचान दी, उसने धीरे-धीरे मुझे इस विधा को गंभीरता से लेने पर मजबूर कर दिया, मगर कई कारणों से यह सिलसिला बीच में ही कुछ समय के लिए थम गया। फिर जब तेरह-चौदह साल बाद मैंने दोबारा लिखना शुरू किया था, तब तक मैं इस बात को समझ चुकी थी कि लेखन मेरे लिए एक चिकित्सा है।
लेखक होने में आपको किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा?

एक स्त्री रचनाकार के लिए सबसे बड़ी रुकावट उसकी अपनी सेल्फ सेंसरशिप है। वर्ष 1999 में दिल्ली के संस्कृति ग्राम में विभिन्न भाषाओं की महिला रचनाकार जब एकजुट हुईं तो बहुत सी स्त्रीगत असुविधाएं और समानताएं सामने आईं। यह भी पता चला कि कुछ दिक्कतें सभी की साझा हैं। बहुत कुछ ऐसा है, जो वे लिखना चाहती हैं, लेकिन अनगिनत सामाजिक दबावों के चलते लिख नहीं पातीं। अपने जीवन में जिस तरह से एक स्त्री को कदम-कदम पर समझौते करने पड़ते हैं, वैसी ही बंदिशों का सामना उसे लेखन में भी करना पड़ता है। यहां तक कि कई भाषाओं की महिला रचनाकारों ने छद्म नामों से जी खोलकर लिखना शुरू कर दिया था, क्योंकि अपने नाम से लिखने-छपने पर बाहरी लोगों के साथ-साथ अपने ही परिवार की आलोचनाओं को भी झेलना पड़ता था। यह स्थिति उन रचनाकारों तक की थी, जिनकी रचनाओं ने आगे चलकर अपना विशेष महत्व और उपयोगिता दर्ज कराई। मेरे लिए भी यह स्थिति बहुत ज़्यादा अलग नहीं थी। मेरा अपना प्रतिबंध ही मेरे लेखन पर हावी रहा। उस समय की चुप्पी ने ही मुझे अब साठ साल की उम्र तक बेखौफ होकर लिखने का रास्ता दे दिया।
आपकी दृष्टि में वास्तविक स्त्री विमर्श क्या है?
स्त्री विमर्श उसके सशक्तीकरण और जागरुकता के लिए एक कारगर औज़ार है। आज भी आधुनिकता और उदार सोच के तमाम दावों के बावजूद स्त्री की सामाजिक स्थिति या उत्थान में कोई बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं आया है। हर क्षेत्र में स्त्रियां अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ रही हैं। कथा साहित्य में भी तथाकथित स्त्री विमर्श इतने ऊंचे बौद्धिक स्तर पर है कि यह उन तक तो पहुंच ही नहीं पाता, जिन्हें सही मायनों में उसकी ज़रूरत है। महिला उत्थान का यह काम साहित्य के स्त्री विमर्शकारों से कहीं अधिक जमीनी स्तर पर काम कर रहे महिला संगठन कर रहे हैं। कथा साहित्य की अपनी सीमाएं हैं ।
स्त्री ही स्त्री विमर्श पर आधारित लेखन करे, यह क्यों ज़रूरी है?
बिल्कुल ज़रूरी नहीं है, लेकिन इसमें भी संदेह की गुंजाइश नहीं है कि भुक्त भोगी ही अपनी बात ज्यादा प्रामाणिकता के साथ कह सकता है। अब मैं अगर अपने लेखन की ही बात करूं तो मैं उन्हीं विषयों को उठाती हूं, जो मेरे मन के करीब हैं या जिन पर मैं प्रामाणिकता से लिख सकती हूं, लेकिन मेरी भी अपनी सीमाएं हैं और इस मामले में मुझे कोई मु$गालता नहीं है।
ग्लोबलाइज़ेशन से स्त्री मुक्ति की लड़ाई आसान हुई है या कठिन?
ग्लोबलाइज़ेशन ने स्त्री मुक्ति की लड़ाई में भी उतनी ही मुश्किलें खड़ी की हैं, जितनी दूसरे शोषित वर्गों के वर्चस्व और अधिकारों की लड़ाई में। स्त्री मुक्ति का मुद्दा भी दलित, विस्थापित, आदिवासी और अल्पसंख्यकों के शोषण के साथ ही जुड़ा है।
आजकल आप क्या लिख रही हैं?
अब मैं वह लिख रही हूं, जिसे लिख पाने की इच्छा एक लंबे अर्से से दबी पड़ी थी। उम्र के इस पड़ाव पर अब मैं अपने ही बनाए दायरों से मुक्त हूं। ऐसा हो तो बहुत पहले ही चाहिए था, लेकिन ‘बेटर लेट देन नेवर!Ó ठ्ठ
साहित्य की दुनिया में सुधा अरोड़ा एक ऐसा नाम हैं, जिनके लेखन को जितनी प्रसिद्धि-प्रशंसा और सम्मान पुरस्कारों के रूप में मिला, उससे भी कहीं अधिक सराहना पाठकों की प्रतिक्रिया देती रहीं। प्रस्तुत है उनसे विविध विषयों पर हुई बातचीत के कुछ अंश-
