जगन्नाथ पुरी की विश्वप्रसिद्ध रथ यात्रा का उत्सव हर वर्ष बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है। लाखों देशी-विदेशी भक्त एवं दर्शक रथ यात्रा को देखने पुरी आते हैं। तीन किलोमीटर लंबी यात्रा वाले इस रंगारंग उत्सव के प्रमुख आकर्षण होते हैं तीन भव्य रथ। तीनों रथ अलग-अलग नामों से विभूषित हैं। ‘नंदिघोष’ नामक प्रमुख रथ पर भगवान जगन्नाथ विराजमान होते हैं तो अन्य दो रथों तालध्वज तथा दर्पदलन पर क्रमश: बलभद्र एवं देवी सुभद्रा सवार होती हैं ।

प्रतिवर्ष किया जाता है नये रथों का निर्माण

भारत के अन्य सभी प्रसिद्ध मंदिरों के रथोत्सवों के विपरीत यहां प्रतिवर्ष नये रथों का निर्माण किया जाता है जिस पर भगवान जगन्नाथ की यात्रा संपन्न होती है। इन तीन दिव्य रथों का निर्माण परंपरागत तरीके से होता है। ये रथ छोटी-छोटी बारिकी का ख्याल रखते हुए पूरी निष्ठा, श्रद्धा और गहन परिश्रम के बाद छह महीने में बन कर तैयार हो पाते हैं। सरकार ने 1952 से मंदिर की व्यवस्था अपने हाथ में ले ली है, तब से रथ निर्माण कार्य की निगरानी के लिए एक कार्यकारी अभियंता की नियुक्ति की गयी है। रथ बनाने के लिए हर वर्ष दो पूर्व शाही राज्यों दासापल्ला तथा बानापुर के जंगलों से साल या सखुआ की लकड़ी के 1072 टुकड़े लाये जाते हैं।

रथ निर्माण शिल्पकारों का पुश्तैनी कार्य

इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि संकलित लकड़ियों की संख्या न कम हो और न अधिक। रथोत्सव से ठीक पांच माह पूर्व सरस्वती पूजा के दिन से ही लकड़ी काटने तथा जमा करने का काम शुरू कर दिया जाता है। इन सभी टुकड़ों को अलग-अलग विभाजित करके तीनों रथों में लगाया जाता है। वैसे लकड़ी चुनने और एकत्र करने का काम केवल अनुभवी शिल्पकारों की ही टोली अंजाम देती है। रथ निर्माण उन शिल्पकारों का पुश्तैनी कार्य है। किसी समय इनमें से अनेक शिल्पकार अथवा उनके वंशज नामी जागीरदार थे।

लोहे के औजारों का प्रयोग वर्जित

इन रथों का निर्माण मंदिर मार्ग स्थित महाखाला नामक विशेष स्थान पर किया जाता है। जो राजमहल के मुख्य द्वार के सामने, जगन्नाथ मंदिर के मुख्य द्वार से 100 गज की दूरी पर है दस अनुभवी कर्मकारों का एक दल जिन्हें ‘सारी बंधा महाराना’ कहा जाता है, इन्हीं के नेतृत्व में कर्मकारी, मूर्तिकारों, शिल्पकारी, लकड़ी काटने वालों, चित्रकारों एवं कढ़ाई करने वालों को अलग-अलग टोलियां रथ निर्माण के पुण्य कार्य में जुट जाती हैं। एक प्राचीन नियमानुसार निर्माण कार्य 53 दिनों या 59 दिनों में पूरा होना चाहिए। इस पुण्य कार्य में योगदान देने वाले सभी कलाकारों का नाम मंदिर की ‘पंजी’ में दर्ज रहता है। इस प्रकार सैकड़ों वर्ष पहले के कलाकारों के नाम भी पंजी में मिल जाते हैं। इस तथ्य को बहुत कम लोग जानते हैं कि रथ निर्माण में लोहे के औजारों का प्रयोग वर्जित है।

लकड़ी के विशेष औजार से बनाये जाते हैं रथ

वेदों के अनुसार लोहा अशुद्ध है। इसीलिए मंदिर अधिकारियों की ओर से लकड़ी के विशेष औजार दिये जाते हैं। शिल्पकार अपना तन-मन लगाकर बड़ी तेजी से रथ बनाने का काम करते हैं। मूर्तिकारों द्वारा पहियों में अनेक देवी-देवताओं की प्रतिमाएं उकेरी जाती हैं। चित्रकारों द्वारा सपाट स्थानों पर विभिन्न प्रकार के भाव परक धार्मिक चित्र बनाये जाते हैं।

रथों के निर्माण का निश्चित विधान

तीनों रथों में चारों ओर से अलंकृत रेलिंग के साथ चबूतरेनुमा लकड़ी के मजबूत बोर्ड लगाये जाते हैं। इन रथों के ऊपरी भाग को ढंकने के लिए सज्जा वस्त्रों या आभूषणों का प्रयोग कर आकर्षक आकृतियां बनायी जाती हैं। इन रथों के निर्माण का निश्चित विधान है। भगवान जगन्नाथ का रथ लगभग 13.55 मीटर ऊंचाई को छूता हुआ चमकीले पीले रंग से अलंकृत होता है। इसमें पूरे सोलह पहिए लगाये जाते हैं। देवी सुभद्रा के रथ में बारह पहिए तथा ऊंचाई लगभग 12.90 मीटर होती है। इसे गहरे लाल रंग से अलंकृत किया जाता है। बलभद्र के रूप में अलंकरण के लिए गहरे चटकीले रंग का प्रयोग होता है। इसकी ऊंचाई लगभग 13.20 मीटर होती है, जिसमें चौदह पहिए लगाये जाते हैं। इन सभी रथों में लगे बड़े पहिए का आकार एक आदमी की ऊंचाई का होता है। प्रत्येक रथ को चार-चार बड़े-मोटे रस्सों से खींचा जाता है। जूट से बने प्रत्येक रस्से की लंबाई लगभग 250 फीट और मोटाई आठ इंच व्यास की होती है। इन रस्सों की लागत करीब एक लाख रुपये होती है। रथोत्सव के दिन मात्र रस्सी को छू लेने के लिए भक्तजन अपनी पूरी शक्ति लगाते हैं।

रथोत्सव की समाप्ति के बाद पहले रथ की लकड़ियों को नीलाम किया जाता था पर अब नीलामी की प्रथा समाप्त कर दी गयी है। आजकल इन्हें विखंडित कर मंदिर की रसोई में महाप्रसाद बनाने में जलाया जाता है। इससे मंदिर को जलावन मिल जाता है। प्रत्येक वर्ष मंदिर के वार्षिक बजट में रथ निर्माण के लिए 10 लाख रुपये रखे जाते हैं।

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