अपना पराया भाग-1 - Hindi Upanyas

फरसा चलाते-चलाते थक गया था वह। मस्तक पर पसीने की बूंदें उभर आई थीं। बदन पर की निमस्तीन भीग कर लता हो रही थी, फिर भी वह काम करने की धुन में मस्त था।

अभागे गरीब किसानों का जीवन परिश्रम पर ही तो निर्भर है।

नाम था उसका भीखम। वहीं खेत के किनारे एक छोटी सी मड़ैया में रहता था वह। चालीस वर्ष की अवस्था थी। दूर-दूर तक किसानों में उसका नाम था, क्योंकि उसकी फसल बहुत अच्छी हुआ करती थी। वह जाति का काछी था।

फरसा चलाना बंद करके उसने पुकारा—‘बिटिया…! ओ बिटिया…!’

‘आई काका!’ झोंपड़ी में से आवाज आई और मैली-कुचैली साड़ी पहने हुए एक सुंदर सी बालिका झोंपड़ी से बाहर आकर बोली—‘क्या है काका? तमाकू पीओगे क्या?’

‘हां बिटिया एक चिलम भर ला!’ कहकर भीखम खेत की मेंड़ पर बैठकर सुस्ताने लगा।

वह भीखम की बेटी थी। नाम था घटा। घटा जैसे उसके काले केश पैर की एड़ी को चूमते थे। उसके मुख की प्रफुल्लता पौधों की हरियाली को भी मात करती थी। उसके दांत भुट्टे के दानों जैसे चमकते थे, चमाचम! उसकी बड़ी-बड़ी आंखों में शराब जैसी मादकता थी, वाणी में ईख के रस जैसा मिठास था। वह ग्रामीण बाला थी, ग्राम्य-सौन्दर्य की अद्वितीय प्रतिमा थी।

‘लो काका!’ हाथ में भरी हुई चिलम लिए खड़ी थी वह। उसकी आंखों में समुद्र जैसी गम्भीरता थी और ओठों पर फूलों की-सी मुस्कान।

‘लाओ, बिटिया!’ भीखम ने घटा के हाथों से चिलम ले ली। तमाकू पीते हुए बोला—‘इस साल बरखा ऐसी बे-वक्त हुई कि खेत जोतने का बखत नहीं मिला। बित्ता भर घास खेतों में रम रही है, अगर आज भी खेत ठीक करके भांटे का बेहन न लगा सका, तो परमेश्वर ही सहाय हैं।’

‘मैं फरसा चलाती हूं काका…।’ घटा ने कहा—‘बेहन आज ही लगेगा…।’

‘रहने दे बिटिया! तू जाकर बैले को सानी दे दे। आज तेलिन खरी भी नहीं दे गया। वे ससूरे बैल ऐसे हैं कि बिना खरी के मुंह नाद में नहीं मारने के।’

घटा झोंपड़ी में चली गईं। भीखम बैठा-बैठा तमाकू पीता रहा। एकाएक वह चौंक पड़ा और हाथ की चिलम रखकर झटपट उठ खड़ा हुआ। उत्तर की ओर से एक दीर्घकाय हाथी आ रहा था जिस पर कोई सवार था। हाथी के पीछे पांच लठैत, लंबी लाठियां लिए हुए चले आ रहे थे।

‘तनिक मचिया उठा लाना, बिटिया!’ भीखम ने पुकारा।

घटा तुरंत मचिया ले आकर बोली—‘मचिया क्या करोगे काका?’

वह देख, बड़े ठाकुर आ रहे हैं। आज कई महीनों पर इधर मुंह किया है।’ भीखम ने कहा।

‘ठाकुर का हाथी देखकर मुझे बड़ा डर लगता है, काका!’

‘बड़ा जबर हाथी है, बिटिया! पैरों में देखो, कितने मोटे सांकड़े लिपटे हैं। जब बिगड़ जाता है, तो सिवा बड़े ठाकुर के और किसी की नहीं सुनता। आखिर जमींदार का हाथी है न’

घटा मचिया रखकर पुनः झोंपड़े में चली गईं। हाथी धीरे-धीरे पास आता जा रहा था। उस पर बैठे थे दाढ़ीराम गांव के सुप्रसिद्ध जमींदार, ठाकुर दीप नारायण सिंह। लम्बे डील-डोल के कद्दावर आदमी थे ठाकुर साहब! बढ़ाती में भी खासा बल था उनके बदन में। सीधे-सादे लिबास में रहते थे। कभी-कभी अपने हाथी पर चढ़कर जमींदारी की देख-रेख करने निकलते थे। उनकी वेशभूषा में ग्राम्य जीवन की झलक थी।

भीखम के खेत के पास आकर महावत ने हाथी बैठा दिया।

ठाकुर साहब नीचे उतरे। रौबीले चेहरे पर बड़ी-बड़ी मूंछें गजब ढा रही थीं।

भीखम ने आगे बढ़कर सलाम किया—‘जुहार, ठाकुर!’

‘जुहार, भीखम चौधरी।’ ठाकुर मचिया पर बैठ गये। लठैत उनके पीछे अदब से खड़े हो गये।

भीखम हाथ जोड़कर सामने बैठ गया।

‘बहुत दिनों पर सरकार ने इधर पांव रखा।’ भीखम बोला।

‘बड़ी झंझट रहती है, चौधरी। कहो तुम अच्छे तो हो?’

‘सब आपकी दया है, सरकार! मजूरी मसक्कत करके किसी तरह दिन काट रहा हूं।’

‘भांटा लगाने की मंसा है क्या?’ ठाकुर ने पूछा।

‘हां ठाकुर, अब की तो भांटा ही लगाऊंगा। देखूं, भगवान क्या देते हैं?’

‘घटिया तो अच्छी है न चौधरी?’ ठाकुर का मतलब भीखम की लड़की घटा से था।

‘अच्छी ही है, ठाकुर! छोटे ठाकुर शहर से आये या नहीं?’ छोटे ठाकुर ने भीखम का तात्पर्य था ठाकुर के इकलौते बेटे, आलोक नारायण सिंह से।

‘अब उसकी पढ़ाई खत्म हो चुकी है, परसों वह घर आ गया है।’

ठाकुर साहब दाढ़ीराम गांव के जमींदार थे। दाढ़ीराम मिर्जापुर शहर से चौदह मील पूर्व की ओर जंगलों और पहाड़ों से घिरा हुआ गांव है। आसपास के सभी गांव ठाकुर साहब के ही हैं। ठाकुर साहब का व्यवहार अपने आसामियों से अत्यंत निर्मम था। सभी डर से कांपते रहते थे। जिस समय ठाकुर की सवारी आने लगती थी, उस समय कोई भी उनके सामने पड़ने का साहस न करता था। ठाकुर साहब बड़े ही क्रोधी एवं जिद्दी स्वभाव के थे, मगर भीखम चौधरी से उनकी पटती थी।

भीखम चौधरी ने ठाकुर को उठते हुए देखकर, उनके हाथ पर दो रुपये रख दिये। यह नजराना था। ठाकुर जिसके पास भी जाएं, उसके लिए यह आवश्यक था कि वह या तो कुछ रुपये या कुछ सामान ठाकुर की नजर करे। यह पुश्तैनी रीति थी।

ठाकुर हाथी पर जा बैठे। भीखम ने जुहार की। हाथी आगे की ओर चल पड़ा।

ठाकुर दीपनारायण सिंह की हवेली दाढ़ीराम गांव में थी और भीखम का घर था सेहटा गांव में। दोनों गांवों की दूरी छः फरलांग थी। इन दोनों गांवों के अतिरिक्त बीस अन्य गांव भी ठाकुर की जमींदारी में थे।

एक टूटे-फूटे घर के पास जाकर ठाकुर का हाथी खड़ा हुआ, तो लठैत ने पुकारा—‘मनराखन।’

पुकारते ही एक जर्जर बूढ़ा किसान झोंपड़े से बाहर निकला। ठाकुर को आया देख वह सिर से पैर तक कांप उठा। किसी तरह उसके मुख से निकला—‘जुहार ठाकुर!’

‘जुहार!’ ठाकुर की आवाज में बादलों जैसी गरज थी और बूढ़े किसान के पैरों में जूड़ी बुखार-सी कंपकंपी थी।

‘तुम्हारे रुपये अभी तक हमें नहीं मिले, मनराखन! मेरे तकादे तुम तक पहुंचे थे न?’

‘पहुंचे थे बड़े ठाकुर! बड़ी तकलीफ में हूं, सरकार! अगर आपकी दया न हुई तो मर जाऊंगा।’

‘मरो या जियो, मुझे इससे कोई मतलब नहीं, मुझे तो मेरे रुपये चाहिए। तुम्हारे मरने-जीने का हुज्जत करने हम नहीं आये हैं।’ ठाकुर क्रोध से बोले।

‘बस एक महीने की मुहलत और चाहता हूं ठाकुर…। पाई-पाई का चुका दूंगा। इस बखत कोई बन्दोबस्त नहीं हो सका है, सरकार!’ किसान पत्ते की तरह कांपता हुआ बोला।

‘मैं तुम हरामखोरों की नस-नस जानता हूं—।’ ठाकुर गरजे—‘सीधे से दोगे या और कोई इंतजाम करूं?’

‘कैसे दूं सरकार! कहां से दूं?’ किसान बोला—‘कुहड़े की फसल खड़ी थी, सौ-पचास रुपये का आगम था। उस दिन आपका हाथी मतवाला होकर इधर-उधर भाग-दौड़ मचा रहा था। एक पौधा भी खेत में साबुत नहीं बचा, ठाकुर! कोहड़े की एक बतिया भी मेरे काम न आई।’

‘मुझे दोष देने चला है? कमीना कहीं का…।’ ठाकुर की ठोकर खाकर बेचारा किसान तड़प उठा। ठाकुर गरजे—‘घरह। सम्पत! बिरजू! सूरज! बाबा!’ (ये नाम ठाकुर के पांचों लठैतों के थे)—‘देखो तो इसके घर में जाकर। ससुरे घर में गांजे रखते है और हमसे कहते हैं कि ठाकुर एक बतिया भी नहीं बची।’

पांचों लठैत घर में घुस पड़े। भीतर से औरतों के चीखने-चिल्लाने की आवाज सुनाई पड़ीं। खोज-खोजकर एक बोरी गेहूं बाहर निकाल लाये वे लठैत।

‘क्या है?’ ठाकुर ने पूछा।

‘गेहूं हैं, गरीब परवर।’ एक लठैत ने कहा।

‘गेहूं है—’ ठाकुर चिल्लाकर बोले—‘हम जौ खा रहे है और ये सब गेहूं खाते हैं।’

‘अगहनी के लिए रख छोड़ा था, ठाकुर! बोने का मसौदा था। खाने-पीने की तकलीफ बहुत झेली, सरकार! मगर इस गेहूं को मैंने हाथ नहीं लगाया था। पैरों पड़ता हूं, बड़े ठाकुर! गरीब किसान का यही सोना है, इसे न ले जाइये।’ किसान अत्यंत दीन स्वर में बोला।

‘चुप रे—।’ एक लठैत बोला और उसकी लम्बी वजनी लाठी गद्द से किसान की पीठ पर जा पड़ीं। ठाकुर हाथी पर जा चढ़े। हाथी आगे बढ़ा। किसान बिलखता रहा। उसका सोना लुट गया था।

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