Hindi Motivational Story: सर्दियों की वह रात थी, जब कोहरे ने पूरे कस्बे को सफेद चादर में लपेट लिया था। हवा में ठंडक ऐसी कि सांसें धुएं की तरह दिखतीं।
रेलवे स्टेशन के एक कोने में बूढ़ा गोपाल बैठा था—झुका हुआ, काँपता हुआ, पर आंखों में अब भी एक शांति थी। उसके पास बस एक पुराना कंबल था— जिस पर समय की झुर्रियाँ साफ दिखाई देती थीं।
हर रात वह इसी कंबल में खुद को लपेटता और भगवान से एक ही बात कहता—“हे प्रभु, मेरे हिस्से की गरमी किसी ज़रूरतमंद को दे देना, पर मेरा विश्वास ठंडा मत होने देना।”
गोपाल पहले स्कूल में चौकीदार था। बच्चों की चहक, मास्टरजी की डाँट और छुट्टी की घंटी की आवाज़—यही उसका संसार था। पर वक्त ने धीरे-धीरे सब कुछ छीन लिया—नौकरी, घर, पत्नी… और आखिर में निर्दयी अपनों को भी। अब उसके पास सिर्फ एक चीज़ बची थी— उसका कंबल, जो वर्षों पहले उसकी पत्नी लक्ष्मी ने उसे दिया था और कहा था, “गोपाल, यह कंबल सिर्फ ठंड से बचाने के लिए नहीं है। इसमें मेरा प्यार और स्नेह छुपा हुआ है, जो तुम्हें हमेशा प्रेम और अपनेपन की गर्मी से तर करता रहेगा।”
उसके बाद से वह कंबल ही गोपाल का साथी बन गया—हर रात, हर ठंड में।
उस रात, जब प्लेटफॉर्म पर कोहरा घना हो चुका था, उसने देखा—एक छोटा लड़का कोने में सिकुड़ा बैठा है। नंगे पाँव, फटी बनियान, और आँखों में डर।
गोपाल पास गया और बोला,
“क्यों रे, यहाँ अकेले क्या कर रहा है?”
लड़के ने काँपती आवाज़ में कहा—“घर नहीं है… लोग भगाते हैं… ठंड लग रही है।”
गोपाल कुछ पल चुप रहा, फिर बोला—“ठंड सबको लगती है बेटा, पर सब उसे झेलना नहीं सीखते।”
फिर उसने अपना कंबल दो हिस्सों में मोड़ा और आधा उसके ऊपर डाल दिया।
लड़का घबराकर बोला,
“बाबा, आप क्या करेंगे? आपके पास तो कुछ नहीं बचा।”
गोपाल मुस्कुराया—“अरे, मेरे साथ भगवान है! वो जब ठंड भेजता है, तो गरमी का इंतज़ाम भी कर देता है। और फिर… तू छोटा है, तुझे अभी इसकी जरूरत मुझसे ज्यादा है। मैं तो बूढ़ा हूँ, मुझे अब उतनी ठंड नहीं लगती।”
लड़का उसकी ओर देखता रह गया—पहली बार किसी ने उसे “बेटा” कहा था।
वह धीरे-धीरे गोपाल के पास आकर बैठ गया।
गोपाल ने पूछा—“नाम क्या है तेरा?”
“रामू।”
“ठीक है, रामू। जब भी ठंड लगे, याद रखना—कंबल से ज़्यादा गर्म दिल होना चाहिए।”
रात यूँ ही बीत गई। सुबह जब गोपाल ने आँखें खोलीं, तो रामू कहीं नहीं था। बस उसका आधा कंबल वहीं पड़ा था, और पास में दो बिस्किट रखे थे।
गोपाल मुस्कुराया—“देखा लक्ष्मी, बच्चे ने भी बाँटना सीख लिया।”
उस दिन से गोपाल का कंबल और भी हल्का हो गया, पर मन पहले से कहीं ज़्यादा गर्म।
अगली रात ठंड और बढ़ गई थी। स्टेशन की छत से टपकती ओस की बूँदें उसकी दाढ़ी पर जम गई थीं।
तभी उसने देखा—एक औरत आई, गोद में बीमार बच्चा लिए, खुद काँपती हुई।
गोपाल बोला—“बहू, यहाँ बैठ जा, हवा कम लगेगी।”
वह हिचकिचाई—“नहीं बाबा, आप बैठे रहिए, मैं चली जाऊँगी।”
गोपाल ने कहा—“अरे, स्टेशन सबका होता है, कोई किसी का रास्ता नहीं रोकता।”
कुछ देर बाद जब बच्चा रोने लगा, तो गोपाल ने अपना कंबल उसके ऊपर डाल दिया।
औरत बोली—“नहीं बाबा, आप क्या करेंगे फिर?”
गोपाल ने हल्की हँसी में कहा—
“मुझे अब ठंड नहीं लगती, बेटी। जब किसी और को राहत मिलती है न, तो शरीर खुद गरम हो जाता है। ये ईश्वर की फितरत है।”
वह औरत कुछ नहीं बोली, बस उसकी आँखों से आँसू बह निकले। अनायास ही उसके मुंह से निकला—“आप जैसे लोग भगवान से भी ज़्यादा सच्चे लगते हैं।”
गोपाल हँस पड़ा—“नहीं बेटी, भगवान तो मुझ जैसे लोगों के बहाने ही काम करता है। असली कंबल तो वही है, जो सबको ढँक सुबह जब सूरज की किरणें प्लेटफॉर्म पर पड़ीं, तो गोपाल उसी जगह शांति से बैठा था—मुस्कुराता हुआ, पर अब उसकी सांसें थम चुकी थीं।
उसके पास कोई कंबल नहीं था, पर चेहरे पर अजीब-सी गरमी थी—जैसे उसे ठंड नहीं, मुक्ति मिली हो।
थोड़ी देर बाद वही छोटा रामू स्टेशन पर लौटा।
अब उसके हाथ में एक नया ऊनी कंबल था।
उसने स्टेशन मास्टर से कहा— “बाबा को ये देना था… मैंने उनके लिए खरीदा है। उन्होंने मुझे सिखाया था—कंबल बाँटने से ठंड नहीं बढ़ती, कम होती है।”
स्टेशन मास्टर कुछ पल उसे देखता रहा, फिर धीरे से बोला—“बेटा, बाबा अब कहीं और चले गए हैं, जहाँ ठंड नहीं होती।”
रामू की आँखें भर आईं। उसने कंबल प्लेटफॉर्म पर रख दिया और बोला—“तो ये यहीं रहेगा, ताकि किसी और को ठंड न लगे।”
स्टेशन मास्टर ने वही कंबल उठा कर स्टेशन के एक कोने में रख दिया। उस दिन से वह जगह “गोपाल कंबल कोना” कहलाने लगी। अब जो भी ठंड में वहाँ आता, उसे कोई न कोई कंबल मिल जाता—और एक सीख भी कि गरमी कपड़ों में नहीं, करुणा में होती है।
लोग कहते हैं—गोपाल के पास तो एक ही कंबल था, पर उसने सौ दिलों को गर्म कर दिया। क्योंकि सच्ची ऊष्मा आग से नहीं, प्रेम से मिलती है और शायद यही है—ईश्वर का सबसे मुलायम कंबल।ले।”
रात बीत गई। सुबह जब सूरज की किरणें प्लेटफॉर्म पर पड़ीं, तो गोपाल उसी जगह शांति से बैठा था—मुस्कुराता हुआ, पर अब उसकी सांसें थम चुकी थीं।
उसके पास कोई कंबल नहीं था, पर चेहरे पर अजीब-सी गरमी थी—जैसे उसे ठंड नहीं, मुक्ति मिली हो।
थोड़ी देर बाद वही छोटा रामू स्टेशन पर लौटा।
अब उसके हाथ में एक नया ऊनी कंबल था।
उसने स्टेशन मास्टर से कहा— “बाबा को ये देना था… मैंने उनके लिए खरीदा है। उन्होंने मुझे सिखाया था—कंबल बाँटने से ठंड नहीं बढ़ती, कम होती है।”
स्टेशन मास्टर कुछ पल उसे देखता रहा, फिर धीरे से बोला—“बेटा, बाबा अब कहीं और चले गए हैं, जहाँ ठंड नहीं होती।”
रामू की आँखें भर आईं। उसने कंबल प्लेटफॉर्म पर रख दिया और बोला—“तो ये यहीं रहेगा, ताकि किसी और को ठंड न लगे।”
स्टेशन मास्टर ने वही कंबल उठा कर स्टेशन के एक कोने में रख दिया। उस दिन से वह जगह “गोपाल कंबल कोना” कहलाने लगी। अब जो भी ठंड में वहाँ आता, उसे कोई न कोई कंबल मिल जाता—और एक सीख भी कि गरमी कपड़ों में नहीं, करुणा में होती है।
लोग कहते हैं—गोपाल के पास तो एक ही कंबल था, पर उसने सौ दिलों को गर्म कर दिया। क्योंकि सच्ची ऊष्मा आग से नहीं, प्रेम से मिलती है और शायद यही है—ईश्वर का सबसे मुलायम कंबल।
कंबल- गृहलक्ष्मी की कहानियां
