Hindi Katha: प्रसेनजित इक्ष्वाकु वंश के एक प्रसिद्ध राजा थे। उनके यौवनाश्व नामक एक प्रतापी पुत्र हुए। राजा यौवनाश्व धार्मिक, सत्यवादी, शूरवीर, दानवीर और प्रजाप्रिय राजा थे। उनकी सौ रानियाँ थीं, किंतु दैव-योग से उनमें से किसी से कोई संतान उत्पन्न नहीं हुई। इस कारण यौवनाश्व सदैव चिंतातुर रहते थे। अंत में इस दुःख से संतप्त होकर वे वन में चले गए और ऋषियों के पवित्र आश्रम में रहकर उनकी सेवा करने लगे।
आश्रम में अनेक ऋषि-मुनि तपस्या में लगे रहते थे। राजा यौवनाश्व को चिंतित देखकर एक बार कुछ ऋषि-मुनि दया से भर उठे। उन्होंने राजा यौवनाक्ष से पूछा – ” राजन ! आप इतने चिंतित क्यों हैं? आपको क्या कष्ट है ? हमें सारी बात बताएँ। हम आपकी सहायता करना चाहते हैं । ‘
यौवनाश्व ने हाथ जोड़कर कहा – “हे मुनिवरो ! मेरे पास राज्य, धन और भोग-विलास के सारे साधन मौजूद हैं। महल में सैकड़ों साध्वी रानियाँ हैं । सेवा के लिए अनेक सेवक-सेविकाएँ हैं। तीनों लोकों में मेरा कोई शत्रु भी नहीं है। मंत्री और सामंत – सभी मेरी आज्ञा – पालन के लिए सदा तैयार खड़े रहते हैं । हे कृपालुओ ! निःसंतान होना ही मेरा एकमात्र दुःख है। इसके अतिरिक्त दूसरा कोई भी दुःख नहीं है। मुनिवरो ! आप ने कठिन तपस्या करके वेद और शास्त्रों के रहस्यों को समझा है। आप मेरी इस समस्या का कोई उचित समाधान बताने की कृपा करें। मैं सदैव आपका ऋणी रहूँगा।
महाराज यौवनाश्व की बात सुनकर ऋषिगण बोले – ” हे राजन ! आपके सेवा-भाव से हम अत्यंत प्रसन्न हैं। आपकी इच्छापूर्ति के लिए हम एक यज्ञ का आयोजन करेंगे, जिसके परिणामस्वरूप आपको एक सुंदर, वीर और पराक्रमी पुत्र प्राप्त होगा। “
शुभ मुहूर्त में सभी ऋषि-मुनियों ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया। देवराज इन्द्र को उस यज्ञ में प्रधान देवता के रूप में प्रतिष्ठित किया गया। यज्ञ वेदी के निकट जल से भरा एक सुंदर कलश स्थापित किया गया और उसे वैदिक मंत्रों द्वारा अभिमंत्रित कर दिया। वह यज्ञ अनेक दिनों तक निरंतर चलता रहा।
एक रात यौवनाश्व को प्यास लगी। जल ढूँढ़ते हुए वे यज्ञशाला में चले गए। किंतु उन्हें कहीं भी जल नहीं मिला। तब प्यास बुझाने के लिए वे उस अभिमंत्रित जल को ही पी गए। ऋषियों ने वह अभिमंत्रित जल उनकी रानी के लिए रखा था, जो अज्ञानवश ही राजा के उदर में चला गया था।
जब ऋषियों को इस बात की जानकारी हुई तो उन्होंने इसे दैवइच्छा मानकर यज्ञ की पूर्णाहूति कर दी। मंत्र के प्रभाव से राजा के उदर में गर्भ स्थापित हो गया। उचित समय आने पर यौवनाश्व ने एक पुत्र को जन्म दिया, फिर उनकी मृत्यु हो गई। उस बालक की रक्षा का भार इन्द्र ने अपने ऊपर ले लिया। युवा होने पर यही बालक प्रतापी और पराक्रमी राजा मान्धाता के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
