Spiritual Lessons: जो सच्चे धर्म का उदाहरण बनते हैं वे संसार के उत्थान का स्रोत हैं, और वे सदैव के लिए दुख से मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं। सच्चा धर्म उन नियमों में निहित है जिनके द्वारा शरीर, मन एवं आत्मा को परमात्मा में मिलाया जा सकता है।
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नकली सोने के होने से असली सोने के मूल्य में कमी नहीं आती। इसी प्रकार नकली धर्म सच्चे धर्म के
मूल्य को कम नहीं करता। जो लोग धर्म की शक्ति का दुरुपयोग करते हैं अथवा अपनी निजी उन्नति के लिए धार्मिक रीतियों का पालन करने का ढोंग करते हैं, वे पाखंड अर्थात् बगलेभक्त बनते हैं और कभी-कभी अपराधी बनते हैं। वे ही अपराधी हैं, न कि धर्म। जो सच्चे धर्म का उदाहरण बनते हैं वे संसार के उत्थान का स्रोत हैं, और वे सदैव के लिए दुख से मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं। सच्चा धर्म उन नियमों में निहित है जिनके द्वारा शरीर, मन एवं आत्मा को परमात्मा में मिलाया जा सकता है। अंत में यही एकमात्र रक्षक है जो मानव को संसार की सभी बुराइयों से बचा सकता है। वर्तमान समय में मानव की शांति की आशाएं नये शिखरों तक पहुंच चुकी हैं, जो दशाब्दियों में अनुभव नहीं की गई थी। यह विश्व के अनेक सकारात्मक सूत्रपातों द्वारा हुआ- उदाहरणार्थ निरस्त्रीकरण वार्तालाप में प्रगति, सर्वसत्तात्मक साम्यवादी सरकारों की ओर से एक नई उदारनीति, यूरोपीय
देश-सीमाओं का एक साझे बाजार में खुलना, संसार में दुख को कम करने तथा अपराध रोकने हेतु कई स्तरों पर अंतर्राष्ट्रीय सहयोग। परन्तु धर्म पर यह एक दुखपूर्ण टिह्रश्वपणी है कि जहां अभूतपूर्व राजनीतिक पैमाने पर शांति फूट पड़ी है, धार्मिक अधिकारों के नाम पर दूषित झगड़े चल रहे हैं। अंधविश्वासी धर्म के उपमार्ग अथवा कभी-कभी बन्द गलियां होती हैं, जो मानव को किसी लक्ष्य तक नहीं पहुंचातीं। परन्तु फिर भी, एक अच्छा अंधविश्वासी धर्म के सच्चे जिज्ञासु को किसी सच्चे धर्म के राजमार्ग तक पहुंचा सकता है, जो फिर उसे ईश्वर तक ले जाता है। भगवद्गीता में योग को सभी अन्य मार्गों से महान बताया गया है, अर्थात् भक्ति, ज्ञान एवं पुण्यकर्म के मार्गों से श्रेष्ठतर। योग वह विज्ञान है कि मनुष्य ईश्वर से नीचे उतर कर शरीर में कैसे आया तथा शरीर, इसकी इन्द्रियों एवं सम्पति के साथ कैसे तन्मयता को प्राप्त हुआ, और वह पुन ईश्वर तक कैसे पहुंच सकता है। सत्य का वह अनुभव अथवा ज्ञान, जो योगाभ्यास से उपलब्ध होता है, सभी धर्मों में निहित एकता को प्रमाणित करता है जो उनके एक सर्वहर (शिव) ईश्वर के प्रत्यक्ष बोध से प्राप्त होती है। संगठित धर्म एक छत्ता है, अनुभूति मधु है। परन्तु प्राय: ऐसा होता है कि जब संगठित धर्म बाह्यï सिद्धान्तों तथा औपचारिक पक्षों पर केन्द्रित रहता है तो यह एक हठधर्मिता रूपी खाली छत्ता बन जाता है। इसके विपरीत चरमसीमा पर हिमालय में कुछ योगी, संगठित धर्म के छत्तों को, जिनके द्वारा दूसरे लोग भी अमृत के भागी बन सकते हैं उन्हें उपलब्ध करवाए बिना ही अपने हृदय में ईश्वरानुभूति रूप मधु संचित करते हैं। यह स्वार्थ पूर्ण है। यदि संगठित धर्म को ऋषियों का समर्थन प्राप्त हो तो इससे संसार में बहुत भलाई नहीं होती और यह बहुधा लोगों को बहुत हानि पहुंचाता है। ईश्वर नए आध्यात्मिक जिज्ञासुओं के साथ खुलकर बात नहीं करते, जब तक उनका अन्तर्ज्ञान विकसित नहीं होता, अत:
आन्तरिक मार्गदर्शन अचूक नहीं होता।

इसलिए ईश्वर किसी गुरु की शिक्षा के माध्यम से, जो उनके साथ सम्पर्क बनाए होता है, मार्गदर्शन करते हैं। गुरु का ईश्वर के साथ अंर्तसम्पर्क अवश्य होना चाहिए
अन्यथा अंधे द्वारा अंधे का मार्गदर्शन वाली बात होगी।
