तुम कहते हो मुझे पत्नी से प्रेम है, में उसे बहुत चाहता हूँ, मैं बिना उसके रह नहीं सकता। मैं कहता हूँ, यह सब झूठ है। तुम्हें पत्नी से प्रेम है ही नहीं।
तुम पत्नी के बिना रह नहीं सकते, उसे रिझाने के लिए हर चीज लाकर देते हो, रात-दिन उसी की कामना में डूबे रहते हो-इनमें से एक भी प्रेम की निशानी नहीं है। प्रेम की निशानी तो और ही होती है।
क्या तुम अपनी पत्नी का आदर करते हो?
क्या यह मानते हो कि कौटुंबिक जीवन में जितना अधिकार तुम्हारा है, उतना ही उसका भी है?
क्या यह स्वीकार करते हो कि यदि उसका सती सीता-जैसा होना जरूरी है, तो तुम्हारा भी एक पत्नी व्रतधारी राम होना जरूरी है?
यदि तुम ऐसा मानते हो, तो मैं स्वीकार करूँगा कि तुम्हें अपनी पत्नी से प्रेम है। यदि तुम्हारे हृदय में ऐसी भावना नहीं है, तो मैं समझूँगा कि तुम अपनी पत्नी के प्रेमी नहीं, बल्कि मालिक हो, अपने आनंद के लिए उसे सजाते हो, फिर रिझाते हो। जिसे तुम प्रेम कहते हो, वह तुम्हारी दुर्वृत्तियों को छिपाने का लुभावना नाम मात्र है।
प्रेम और मालिकी, प्रेम और असमानता, प्रेम और अनुदारता, प्रेम और भोग-वृत्ति-ये साथ-साथ निभ ही नहीं सकते। भले ही तुम ऐसा न कर सको, पर कृपा करके अपने आपको और ईश्वर को ठगो मत। जो प्रेम नहीं है, उसे प्रेम के नाम से न जानो और न दूसरों को ही उस नाम से जताओ।
ये कहानी ‘ अनमोल प्रेरक प्रसंग’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानियां पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं–Anmol Prerak Prasang(अनमोल प्रेरक प्रसंग)
