महाराजा प्रियव्रत राजकाज से संन्यास लेने और शेष जीवन को ईश्वर प्राप्ति के निमित्त कठोर साधनाओं में नियोजित करने का निश्चय कर चुके थे। वह घड़ी आई। संन्यास दीक्षा सम्पन्न हुई। राज पुरोहित ने संन्यास
धर्म की गरिमा बताई। राजकुमार आग्नीध्र भी दीक्षा स्थली पर उपस्थित थे। जीवन का सर्वाेच्च लक्ष्य है-ईश्वर प्राप्ति। इस उद्बोधन से राजकुमार के मन में हलचल मच गई। भोग-विलास से युक्त राजपाट छोड़कर पिता श्री आत्मोत्थान का श्रेष्ठ मार्ग अपना रहे हैं। मुझे भी उसी मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। विनीत स्वर में उन्होंने महाराज से निवेदन किया। सुख संपन्नता राज्य वैभव का परित्याग करके आप जीवन मुक्ति के लिए तप करने जा रहे हैं। फिर मेरे ही पैरों में राज्य वैभव का बंधन क्यों डाल रहे हैं? मुझे भी अपना अनुगमन करने की आज्ञा दीजिए। उन्होंने समझाया कि तुम्हारे लिए यही उचित है कि तुम प्रजा की सेवा करते हुए अपनी वृत्तियों पर नियंत्रण करो। योग और तप के लिए इंद्रियों पर विजय पाना आवश्यक है।
इसके अभाव में अपरिपक्व मनःस्थिति का साधक कभी भी साधना मार्ग से भटक सकता है। राज्य सुखों के बीच रहते हुए मैंने दीर्घकाल तक आत्म संयम की साधना की है। तुम्हें भी गृहस्थ जीवन में कर्मयोगी की तरह रहते हुए परिष्कार की साधना करनी चाहिए। कहकर महाराज प्रियव्रत ने राजकुमार का राज्याभिषेक किया, स्वयं संन्यास धर्म का निर्वाह करने के लिए चल पड़े। उस क्षण तो आग्नीध्र चुप रहे, पर उनके जाते ही एक रात्रि चुपके से उठकर मन्दयाचल पर्वत पर तप करने चल पड़े। आग्नीघ्र ने उग्र तपश्चर्या आरंभ की।
ईश्वर चिंतन और ध्यान में एकाग्रता होने लगी। एक दिन मन्दयाचल पर्वत की सौंदर्यमयी छटा कुछ अधिक लुभावनी लग रही थी। आग्नीघ्र की एकाग्रता भंग हो गई। दमित इंद्रियावेश आज दूने वेग से उभर उठा। नेत्र खोला तो सौंदर्य की प्रतिमूर्ति एक कामिनी सामने खड़ी परिहास कर रही थी। योग और तप का लक्ष्य भूल गया। दमित कामवासना अपने पूरे वेग से भड़क उठी। मंत्र मुग्ध बने आग्नीध्र आसन से उठकर कामिनी के पीछे-पीछे चल पड़े। थोड़ी ही दूरी पर जाकर वह विलुप्त हो गई। सामने मुस्वफ़ुराते हुए खड़े थे-महात्मा प्रियव्रत, राजकुमार के पिता श्री। यह परीक्षा उन्हीं के द्वारा कराई गई थी। उन्होंने समझाया! गृहस्थ जीवन में रहते हुए और राज्य के प्रति उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हुए आत्म परिष्कार की साधना करो। इसी से तुम्हें जीवन लक्ष्य की प्राप्ति होगी। तत्वदर्शी पिताश्री की आज्ञा शिरोधार्य करके वे कर्मयोग की साधना में जुट गए।
ये कहानी ‘इंद्रधनुषी प्रेरक प्रसंग’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानियां पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं– Indradhanushi Prerak Prasang (इंद्रधनुषी प्रेरक प्रसंग)
