भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
फरवरी के आखिर तक अमूमन मौसम गुलाबी हो जाता है। इस बार भी ऐसा ही हुआ। बर्फीली सर्द हवाएँ और सुन्न करने वाली ठंड खत्म हो चुकी थी। दोपहर में धूप बर्दाश्त से बाहर होने लगी। सुबह-शाम की ठंड बाकी रह गई थी। या यूँ कहिए कि रात से सुबह तक मौसम में खुनकी (हल्की ठंडी) बढ़ी रहती थी।
हफ्ते की रात को एजाजुल हसन के दोस्त का वलीमा था। जिस बारात घर में प्रोग्राम था, वो पुराने शहर से कई किलो मीटर दूर नए शहर में वाके (स्थित) था।
कई साल से नया शहर रेलवे लाइन के उस पार बड़ी खूबसूरती से बसाया जा रहा था। पुराना शहर लाइन के इस तरफ घनी आबादी, तंग-गलियों, छोटी सड़कों और घिचपिच वाले बाजारों की शक्ल में था।
अपने शहर के बेफिक्रों में शुमार होता था एजाजुल का। तीन भाइयों और एक बहन में वो सबसे छोटा था। बहन-भाई सब शादीशुदा और बच्चों वाले थे और वो कुँवारा।
रात के तकरीबन आठ बजे उसने सूट पहना, टाई बाँधी और कद-ए-आदम आईने के सामने थोड़ा तिरछे हो-होकर अपने आपको देखते हुए जरा सेंट स्प्रे किया, बाहर आकर मोटर साइकिल निकाली और शादी-घर के लिए रवाना हो गया। मौसम काफी खुशगवार था।
बारात घर का हॉल ए.सी. था। अंदर पहुँचा तो दोस्तों ने हाथों-हाथ लिया। उसके दोस्तों का ग्रुप अलग एक कोने में जमा हुआ था। चुटकुलों, फब्तियों और कहकहों का दौर चल रहा था। वो भी शामिल हो गया। काफी देर तक ये सिलसिला चलता रहा। फिर तरह-तरह के लजीज खानों का लुत्फ उठाया। देर रात दूल्हे की जेब में मुबारकी का लिफाफा लूंसकर वापसी के लिए बाहर निकला तो मौसम बदल रहा था। चाँद और बादलों के बीच आँख-मिचौली शुरू हो चुकी थी। हवा तेज व खुनक हो गई थी। उसने सुरअत (आतुरता) से मोटर साइकिल निकाली और इससे पहले कि मौसम मजीद (अधिक) बिगड़ जाये, वो घर के लिए रवाना हो गया लेकिन मौसम उसकी सोच से ज्यादा तेजी से बदलता चला गया और बारिश शुरू हो गई। लेकिन उसने मोटर साइकिल नहीं रोकी। जल्द से जल्द घर पहुँचने की कोशिश करने लगा। घर पहुँचते-पहुँचते वो तर-बतर हो चुका था और ठंड जैसे उस के आसाब (स्नायुओं) में सरायत (प्रविष्ट) कर गई थी। घर पर बड़ी भाभी जाग रही थीं। उन्होंने फौरन हीटर जलाया और चाय बना दी, ताकि जल्दी से कपड़े बदलकर वो हीटर के सामने बैठ जाये और चाय पी ले। ये सब कुछ हुआ लेकिन भीगना, ठंड और सर्द हवाएँ अपना काम कर चुकी थीं। लर्जिश (कँपकँपी) दूर नहीं हुई। दो-तीन घंटों के अंदर ही उसे तेज बुखार हो गया।
रात जैसे-तैसे कटी। सुबह देर तक पड़ा रहा। ना सिर्फ बुखार और बढ़ गया था बल्कि साथ में शदीद नजला भी हो गया। दोनों बड़े भाइयों ने बारी-बारी मिजाजपुर्सी की (हाल पूछा)। बड़े वाले भाई रियाजुल हसन ने फौरन डॉक्टर को दिखाने का मशवरा दिया। आज इतवार था। घर से निकलते-निकलते ग्यारह से ज्यादा बज गए। बारिश थम गई थी लेकिन बादलों की आवा-जाही और तेज व तुंद हवा बदस्तूर थी। किसी वक्त भी मौसम फिर बदल सकता था।
जिस डॉक्टर को ये लोग अमूमन दिखाते थे, वो उनके घर से बमुश्किल एक किलोमीटर दूर था। हवा की तेजी और ठंड को देखते हुए उन्होंने रिक्शा या ऑटो रिक्शा करना मुनासिब नहीं समझा कि और ज्यादा हवा लगेगी। पैदल ही खिरामाँ-खिरामाँ (धीरे-धीरे) चल दिए। घर से थोड़ी ही दूर चले होंगे कि बराबर वाली गली से इबरार चचा निकल रहे थे।
“मियाँ रियाजुल कैसे हो भई? अरे…एजाजुल को क्या हुआ? इसका तो मुँह लाल हो रहा है। और ये शूँ-शूँ ….?”
“जी चचा जान रात ऐसे-ऐसे हआ…।” रियाजल हसन ने पिछली रात का वाकिया सुनाया। “अब डॉक्टर के वहाँ जा रहे हैं।” ये भी कह दिया।
“ये क्या हिमाकत (मूर्खता) है मियाँ? आजकल के नौजवान भी बस कुछ मत पूछो,” इबरार चचा बोले, “जरा-सी छींक क्या आ गई कि फौरन डॉक्टर के वहाँ…अरे भई, क्या तुम्हें नहीं मालूम कि आजकल कुछ डॉक्टर कैसी लूटमार कर रहे हैं? गरीबों को खसोटकर अपने बड़े-बड़े अस्पताल और कोठियाँ बनवा रे हैं। अरे मियाँ, घर में आटे की भूसी होगी। किस घर में नहीं होती? एक-दो रुपए की मुलहठी ले आओ। तीन छटाँक पानी में एक गाँठ मुलहठी छीतकर डालो, थोड़ा नमक, थोड़ी भूसी और छ:-सात काली मिर्च डालकर उबालो और छानकर पी लो। दिन में तीन बार ऐसे ही पकाकर पियो और लिहाफ में लेट जाओ। मियाँ दो दिनों में ठंड, नजला, बुखार सब ना भाग जाएँ तो मेरा नाम बदल देना।”
“जी चचा जान, ठीक है।” रियाजुल हसन बोले और बेसब्री से इबरार चचा के आगे बढ़ जाने का इंतजार करने लगे। फिर खासी नसीहत करने के बाद वो आगे बढ़ गए। गनीमत था कि इबरार चचा को उनसे मुखालिफ सिम्त (विपरीत दिशा) में जाना था।
सुकून की साँस लेकर दोनों भाई आगे बढ़े। थोड़ी ही दूर चले थे कि सुबहान दादा झुके हुए लाठी के सहारे जल्दी-जल्दी सामने से चले आ रहे थे। इन दोनों पर नजर पड़ी तो सीधे उन्हीं के पास आकर रुके।
“भई, आज बहुत दिनों बाद तुम दोनों भाइयों को साथ देखकर बड़ी खुशी हुई। खुदा बेहतर जानता है कि मैं जब भी कहीं भाइयों में खुलूस-ओ-मुहब्बत देखता हूँ तो दिल बाग-बाग हो जाता है। अल्लाह ऐसी मुहब्बत से तमाम भाइयों को नवाजे। आमीन, सुम्मा आमीन… मगर ये एजाजुल को क्या हुआ है? ये मुँह पर रूमाल क्यों रखा हुआ है? और ये आँखों से पानी बह रहा है!”
रियाजुल हसन ने नागवारी (अरुचिपूर्वक) से माथे पर हाथ रखा लेकिन फौरन ही हटा लिया क्योंकि ये बेजारी जैसी हरकत बुजुर्गों से ब-जाहिर बदतमीजी दाखिल हो सकती थी। उन्होंने एक बार और सारा माजरा सुबहान दादा को हत्तलइमकान (यथासंभव) मुख्तसर (संक्षिप्त) करके बताया।
“तो फिर अब कहाँ जा रहे हो?” दादा ने पूछा।
“डॉक्टर को दिखाने। आज इतवार है और डॉक्टर दोपहर तक ही मिलते हैं।” रियाजुल-हसन ने बताया ताकि दादा जल्दी से पीछा छोड़ दें।
“ओहो….ओहो…अरे भई डॉक्टर-वॉक्टर क्या करेगा इसमें? ये भी कोई तकलीफ है भला? लाहौल (लानत) तो भेजो डॉक्टर पर। रियाजुल बेटा तू इतना बड़ा हो गया, बच्चों वाला हो गया मगर तेरी ये पैसा फूंकने की बुरी आदत अभी तक नहीं गई। अरे, नालायको, पैसे को पैसा समझो और उसकी कदर करना सीखो। फुजूलखर्ची से हमेशा बचो। जिंदगी का कुछ पता नहीं कि कितनी बड़ी है? फिर अक्सर जाने कितनी जरूरतें अचानक सामने आकर खड़ी हो जाती हैं। मैं तुम्हें ऐसा घरेलू नुस्खा बताता हूँ जो जिंदगी भर तुम्हारे काम आएगा। गिरह (गाँठ) में बाँध लेना। लसोड़े के पत्ते तोड़ लाओ, एक तोला पत्ते, ढाई छटाँक पानी में अच्छी तरह पकाओ। दिन में दो बार खाली पेट पियो और देखो इस मुफ्त की दवाई का कमाल। अगर कुछ काहिली मुसल्लत (हावी) हो या ये दिल ना चाहे तो बाजार से लऊक सपिस्ताँ ले आओ। तोला भर लऊक दो छटाँक गर्म पानी में मिलाकर सोते वक्त पीना और फिर बाहर हवा में मत निकलना। दो-तीन दिन में ही देखना। कैसी सर्दी, कैसा नजला-बुखार, सब गायब। तब मुझे दुआएँ देना।” फिर परहेज की नसीहतों के साथ उसकी अहमियत भी समझाई।
जी दादा, मैं समझ गया। जरा देर सुस्ता लें फिर लऊक सपिस्ताँ खरीदते हुए सीधे घर जाएँगे..” ये कहते हुए रियाजुल हसन ने छोटे भाई को इशारा किया और दोनों वहीं एक दुकान के लिंटर पर बैठ गए। कनखियों से देखा तो सुबहान दादा कुछ दूर निकल चुके थे। सुकून की साँसें लेते हुए दोनों उठ खड़े हुए और डॉक्टर की जानिब चल पड़े। धीरे-धीरे चलते हुए कुछ दूर निकले थे कि…
“अरे एजाजुल… ओ लल्ला… अरे ओ खिलंडरे…” पीछे से भूरिया ताऊ तेज-तेज कदमों से चलते हए आ रहे थे। नाम तो उनका भरे लाल था मगर भूरिया ताऊ के नाम से ही ज्यादा जाने जाते थे। पुरखों से अनाज की आढ़त करते चले आ रहे थे। उनके मरहूम वालिद के जिगरी दोस्त भी थे, सो दोनों ने ऊपर मुँह करके ठंडी साँसें भरी और रुक गए।
“बेटा रियाजुल तू बिलकुल अपने पिता पर गया है। तुझे देखते ही मेरा मन व्याकुल हो जावे। पर यो तो अभी खिलंडरा ही है। अब इसका भी ब्याह-सादी करवा दे तो यो भी सुधर जावेगा। पर यो…यो क्या? यो तो काँप रहा है…क्या बात है बेटा? तेरा स्वास्थ्य तो ठीक है ना?”
रियाजुल-हसन ने दास्तान-ए-साबिका शब (बीती रात का किस्सा) जहाँ तक हो सका इखतिसार (संक्षेप) के साथ सुनाई। ये भी बता दिया कि हम लोग डॉक्टर के यहाँ जा रहे हैं और आज इतवार है।
“रियाजुल बेटा, देख बुरा मत मानिये। इस समय के बच्चों को जाने क्या हुआ है कि जरा-सा माथा क्या गर्म हुआ कि चलो डॉक्टर पे, मेरे घर भी यो ही हाल है। देख बेटा, मैं तुम में और अपने बच्चों में कोई अंतर नहीं समझता। तो ऐसा कर लल्ला, मेरे घर चला जा। अपनी ताई को अपना दुख बताकर तुलसी के पत्ते माँग लाओ। मेरा नाम मत लीओ वरना वो साँझ को मेरा पीछा ले लेवेगी। तुम्हारी ताई तुलसी का पौधा किसी को छूने ना देती। पर दवा के नाम पे दे देवे। पच्चीस ग्राम पत्ते और सात काली मिर्च जरा से पानी में बारीक पीस कर चने के बरोबर गोलियां बना लियो। एक-एक गोली ताजे पानी संग सुबह-शाम लीओ। तुम खुदी डॉक्टर को भूल जाओगे।” फिर एहतियात की लंबी वार्निंग देने लगे।
“ठीक है ताऊजी। हमें क्या पता था कि आप इतना बढ़िया इलाज जानते हैं। हम ऐसा ही करेंगे। आप बेफिक्र रहें।” दोनों रुककर खड़े हो गए और ताऊजी को आगे जाने दिया। जब ताऊ खासे आगे निकल गए तो वो चल पड़े। कुछ दूर चैन से चले तो उन्होंने सुकून की साँसें लीं। अच्छा खासा वक्त खराब हो चुका था। लेकिन ये सुकून भी ज्यादा देर कायम नहीं रह सका। पता नहीं किधर से उधारू काकी आ टपकीं।
“ओ, कमबख्तों ये कैसे इतरा-इतराकर चल रहे हो?” अपनी ओढ़ी हुई चादर सँभालकर एजाजुल का खवा (कंधा) हिलाते हुए बोलीं। वो मजाहन (चुहल में) अक्सर ऐसे ही बोलती थीं। ये उनका अंदाज था। इन लोगों के दूर-दराज रिश्ते की खाला भी होती थीं। उधारू काकी शायद उन्हें इसलिए कहते थे कि वो जगह-जगह से उधार ले लेती थीं और गलती से भी अदायगी का सवाल ही पैदा नहीं होता था। ताहम (फिर भी) लोग अमूमन उन्हें माफ कर देते थे क्योंकि औलाद ना होने की वजह से उनके शौहर ने दूसरी शादी कर ली थी और उन पर किसी किस्म की तवज्जो देनी कतई बंद कर दी थी। इन्होंने सारी उम्र ऐसे ही हँस-बोलकर काट दी और बूढ़ी हो गईं। शौहर या किसी और से कभी कोई शिकायत नहीं की। इस सबको अपना नसीब जान लिया लेकिन वो लोगों के दुख-दर्द में अपनों की तरह बड़े खुलूस से काम आती थीं और जरूरत खत्म होते ही ऐसे गायब हो जाती थीं, जैसे गधे के सिर से सींग। सारा इलाका उनका अपना था। सब उन्हें जानते थे।
“जवानमरे, ये तेरा हाथ मुँह पे क्यों धरा हुआ है? वो कलाई पकड़कर हाथ हटाने लगीं जो एजाजुल ने रूमाल से अपनी नाक ढकने के लिए रखा हुआ था, जिससे नजला बह रहा था। “अरे बदजात, तेरा तो पंडा फुक रहा है और तो तू लरज रहा है।” उन्होंने मुँह से हाथ हटाने के लिए कलाई पकड़ी थी, फिर फौरन ही कलाई छोड़कर माथा छूकर देखा। “इतने बुखार में तू इसे लेकर हवा में क्यों फिर रहा है? चलो दोनों फौरन घर जाओ। मैं अभी नीम की कोंपलें लेकर आती हूँ। तुझे पकाकर पिलाऊँगी। डरना मत, शक्कर से मीठा करके दूंगी। मैं बस गई और आई। तुम दोनों सीधे घर जाना।”
“जी… काकी जी।”
एजाजुल चला तो उसे सर चकराता हुआ-सा महसूस हुआ। एजाजुल मजीद एक ठंडी साँस लेते हुए बोला, “भाई मुझे कुछ चक्कर-सा आ रहा है।”
“तू फिक्र मत कर। अपना बोझ मुझ पर डाल दे।” रियाजुल हसन ने उसकी दूसरी बगल में हाथ डालकर कस के पकड़ लिया और ले चले। सामने मेन रोड था। जिस पर बाएँ जानिब मुड़ना था। कुछ ही दूर चलकर सड़क के उस पार डॉक्टर पी.के. अवस्थी (एम.डी. मेडीसिन) का बोर्ड लगा हुआ था। अभी वो आगे बढ़ ही रहे थे कि मेन रोड से गणपत बाबू अपनी तरफ को मुड़ते हुए दिखाई दिए। जिस डिग्री कॉलेज में एजाजल पढता था, उसमें वो क्लर्क थे और उसे अच्छी तरह जानते थे। देखते ही लपककर उनकी तरफ आए। आते ही गोया हुए-
“अरे एजाजुल क्या हुआ? कल तक तो तू अच्छा-भला था। फिर छूकर देखा, “ओहो…यार तुझे तो तेज बुखार है, पर जा कहाँ रहे हो तुम लोग और ये सब कैसे हो गया?”
मजबूरन मुख्तसर रूदाद-ए-शब-ए-गुजिश्ता (बीती रात का विवरण), ब-मय (सहित) सर्दी-ओ-बुखार, होटल ता खाना (होटल से घर) एजाजुल हसन को एक बार और बतानी पड़ी। “अब डॉक्टर अवस्थी के यहाँ जा रहे हैं।” रियाजुल हसन बेजारी से बोले।
“डॉक्टर अवस्थी..! च्च..च्च..च्च..लगता है तुम डॉक्टरों के बारे में कुछ भी नहीं जानते। मैंने एक अस्पताल में अपनी आँखों से देखा था कि मृत लोग भी कई-कई दिन तक इसलिए आई.सी.यू में रखे जाते थे कि हॉस्पिटल का बिल बनता रहे और रोगी के घरवालों को धोखे में रखा जाता था कि रोगी अभी जीवित है। मैंने कुछ समय पहले एक-बार ये भी देखा कि डॉक्टर ने केवल इस कारण बच्चे के ड्रिप नहीं लगाई कि उसके माता-पिता के पास पूरे पैसे नहीं थे। कुछ घंटों में वो बच्चा मेरे सामने ही मर गया। उस समय मेरे पास भी इतने रुपए नहीं थे, वरना भगवान कसम वो बच्चा नहीं मरता। ऐसे डॉक्टरों की साहूकारी रोगियों संग अत्याचार पर निर्भर है। मेरी राय में तो तुम लुटने के बजाय कुछ और ही सोच लो। और ये अवस्थी तो बिलकुल बेकार डॉक्टर है। अगर डॉक्टर को ही दिखाना है तो अच्छा है कि सरकारी अस्पताल चले जाओ।” गणपत बाबू डॉक्टरों के बारे में बहुत बुरी राय देकर चले गए।
दोनों जहनी तौर पर थक चुके थे, लेकिन डॉक्टर उठकर ना चला जाये, इस डर से ज्यादा तेजी से चल पड़े। आखिर कार वो उस जगह पहुँच ही गए जहाँ सड़क पार सामने डॉक्टर अवस्थी का क्लीनिक था। लेकिन मेन रोड पर ट्रैफिक… खुदा की पनाह! फिर सड़क पार करना, वो भी ऐसे मरीज के साथ जिसका सिर चकरा रहा हो। बड़ी मुश्किल से इंतजार करते-करते उन्हें ट्रैफिक में कुछ फासला दिखाई दिया और सड़क पार करने लगे लेकिन वो जल्दी में उस गाड़ी को नहीं देख पाए जो इंतिहाई तेज रफ्तार से उन्हीं की तरफ आ रही थी। उसके ब्रेक चर-चराए और रुकते-रुकते भी वो एजाजुल से टकरा ही गई। एजाजुल गिर पड़ा। उसको काफी चोट आई। रियाजुल हसन गुस्से से आग-बगूला हो गए। उन्होंने कार ड्राईवर का कालर पकड़कर बाहर खींच लिया और मारपीट शुरू हो गई। कुछ और लोग भी इकट्ठे हो गए और ड्राईवर को पीटने लगे। इतने में कहीं से दो-तीन पुलिस वाले आ गए और कार ड्राईवर को उसकी गाडी सड़क के किनारे पार्क करवाकर पकड ले गए। उन दोनों से कहा कि थाने आकर तहरीर देनी है। डॉक्टरी करवा कर रिपोर्ट लाओ। एक पुलिस कांस्टेबल उनके साथ हो गया।
किसी तरह एजाजुल को सँभालकर सड़क पार की। डॉक्टर अवस्थी के यहाँ दाखिल हो ही रहे थे कि पहाड़ी चौकीदार बहादुर की आवाज आई-
ए बाई, किदर जाता, अंदर नई जाने का। डॉक्टर बाबू नई ए। चला गया।”
डॉक्टर अवस्थी इतवार को दोपहर दो बजे तक बैठते थे। सामने घंटा लगा हुआ था। उसमें दो बज कर उनतालीस मिनट हो रहे थे।
दोनों भाइयों ने ऑटो रिक्शा किया और दीवान जी के साथ सरकारी अस्पताल रवाना हो गए। वहाँ पर बिना किसी छुट्टी के चौबीस घंटे की सर्विस थी। डॉक्टरी रिपोर्ट लेकर थाने भी जाना था।
अस्पताल में चेक-अप हुआ तो एजाजुल के एक जानिब का खवा, कुहनी और कूल्हा पीछे की तरफ से अच्छे खासे छिल गए थे, चुनांचे सर्दी, बुखार और घिसट लग जाने की दवाईयाँ मिल गई।
डॉक्टरी रिपोर्ट के लिए मालूम हुआ कि इस वक्त डॉक्टर जा चुके हैं अभी देर लगेगी। दूसरे, डॉक्टरी रिपोर्ट यूँ ही नहीं मिल जाती। कुछ रुपए खर्च करने पड़ते हैं। उन्होंने झुंझलाहट में कोई पैसा खर्च नहीं किया।
थाने पहुँचे तो शहर के एक मशहूर खुदाई फौजदार कार ड्राइवर की हिमायत में पहले से मौजूद थे। उन्होंने समझा-बुझाकर और कुछ सख्ती से बजरिए घूरा-घारी थोड़ी तंबीह (नसीहत) के साथ बिना कोई देर किए फौरन फैसला करा दिया।
दोनों घर वापस आ गए और ऐसे सुकून की लंबी-लंबी साँसें लीं, जैसे तवील मसाफत (लंबी दूरी) तय करके कई दिन बाद, किसी बड़े अजाब से बचकर घर पहुँचे हों और थकन से चूर-चूर हो गए हों।
‘जान बची सो लाखों पाए। लूट के बुद्ध घर को आए।’
थोड़ी देर लिहाफ में बैठकर दवाई खाने से पहले ही एजाजुल की लर्जिश खत्म होने लगी।
हवा फिर तेज हो गई। बादलों की स्याही गहरी होने लगी और बूंदा-बाँदी फिर शुरू हो गई।
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
