mera pati mera devta
mera pati mera devta

भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

उस दिन मैं बहुत दिनों बाद ठेले वाले से सब्जी लेने के लिए घर से बाहर गेट पर आई थी। उस वक्त कोई अन्य महिला बाहर नहीं थी। कोरोना की वजह से मैं भीड़-भाड़ से बचती थी सो निश्चिंत होकर सब्जी खरीदने लगी। हमारी कॉलोनी एक सरकारी आवासीय कॉलोनी है। हमारी गली में आमने-सामने छ:-छः की लाईन में बड़ी साइज के मकान बने हुए हैं यानि एक गली में सिर्फ बारह मकान। सामने वाली पंक्ति में तीसरे नंबर के मकान में इकबाल रहता है। वह एक कर्मचारी नेता है। उसकी पत्नी नाजो पेंशनर है। वह अपने घर के बाहर खड़ी अपनी स्विफ्ट पोंछ रहा था। मेरी नजरें अनायास उस तरफ उठ गईं। देखा कि वह मुझसे कुछ कहना चाह रहा था और इशारे से कुछ बताना चाहता था पर मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। मैंने झुंझला कर उसे अपने पास आकर बताने को कहा।

वह फुर्ती से सब्जी ठेले की ओर आ गया और फुसफुसाते हुए दबी आवाज में कहा-

“वह भाग गई।”

“कौन भाग गई?”

“हमारी पड़ोसन।”

“क्या?”

“हाँ”

“किसके साथ?”

“आपके पड़ोसी के साथ।”

“मेरे पड़ोसी के साथ?” मैं भौंचक रह गई।

“अरे! नहीं। ऐसा कैसे हो सकता है, दोनों ही तो शादी शुदा हैं।”

“मगर ऐसा हुआ है।”

“ताज्जुब है।”

“आपके पड़ोसी हैं और आपको ही नहीं मालूम? पूरी कॉलोनी को पता है। आप न जाने किस दुनिया में रहती हैं? पूरे दस दिन हो गए हैं।”

“क्या कह रहे हो?”

“जी हाँ। मैं कोई झूठ थोड़े बोल रहा हूँ। हमारे पड़ोसी ने तो एफ आई आर भी दर्ज करवा दी है। पुलिस पूछताछ कर रही है। काउंसलिंग भी चल रही है।”

“अच्छा!”

“और क्या? लड़की ने तो कह दिया है-

“अपनी मर्जी से आई हूँ। वापस नहीं जाऊँगी, न मायके न पति के घर। वैसे भी बरसों से मेरे और मेरे पति के बीच कोई शारीरिक संबंध है ही नहीं।”

“ओह! तो फिर पुलिस क्या कर रही है?”

“पुलिस बेबस है, कुछ नहीं कर पाई। मंतोष का विधायक का ‘पी एस’ होने का रसूख काम आ गया।”

“इन दिनों वह कहाँ रहता है, बहुत दिनों से मुझे दिखा भी नहीं?”

“आपका पड़ोसी पहेट से लेकर दिन भर वहीं सुनीता रानी के पास रहता है और देर रात अपने घर वापस आता है।”

“बहुत गलत कर रहा है।”

“कलयुग है कलयुग, घोर कलजुग।”

“उसकी पत्नी ने कुछ बताया पुलिस को?”

“उसकी पत्नी ने तो पति के विरूद्ध कोई बयान ही नहीं दिया, नहीं तो जेल में डलवा देते।”

“उनका अपना फैसला है अब कोई क्या कर सकता है?”

“यह बहू-बेटियों वाला मुहल्ला है। ऐसे कैसे चलेगा?” इकबाल के चेहरे पर कुंठा और बेबसी दोनों झलक रही थी।

हमारी कॉलोनी में किसने घर खाली किया, उसमें दूसरा कौन रहने आया, व्यस्तता के कारण मुझे ज्ञात ही नहीं रहता था। इसीलिए इस परिवार से अनभिज्ञ थी मैं।

सुनीता को मैंने पहली बार उसी के घर में उसके जेठ के निधन पर पुरसे में देखा था। उसका जेठ दो दिन के बुखार में अचानक ही चल बसा था। छोटा बेटा पड़ोसियों के साथ आँगन में काठी बना रहा था। अंदर हॉल में सास और भाभी शव के साथ लिपट कर रो रही थीं।

हाय! तुम क्यूँ चले गए बेटा! तुम्हारे तो खेलने-खाने के दिन थे, जाने की उम्र तो इस बुढ़िया की थी। तुम्हारे पिता पहले ही मुझे अकेली कर गए, अब तुमने भी मेरा आँचल सूना कर दिया। हाय! यह क्या किया?”

वह लगातार अपनी छाती पीट रही थी।

“अरे! अपनी इंदु का तो कुछ सोचा होता, अपने दुधमुंहे का ही ख्याल किया होता, अब वह किसे पिता कहेगा? हे ईश्वर! क्या तुझे भी इस मासूम पर दया नहीं आई?”

इंदु बार-बार अचेत हो रही थी। इंदु का दुधमुँहा, भूख से बेहाल होकर जोर-जोर से रो रहा था। सुनीता उसे गोद में लेकर टहलते हुए बहलाने की कोशिश कर रही थी। हम औरतें बारी-बारी सास और बहू से गले लगकर दिलासा दे रही थीं-

“नियति बड़ी क्रूर होती है, भला उस पर किसका जोर चलता है?”

इस घटना के एक साल बाद सुनीता को दूसरी बार मैंने उसे इकबाल की बेटी की शादी के रिसेप्शन में देखा था। वह गेहुएँ रंग की धान-पान सी कुबूल सूरत स्टाईलिश लड़की थी। खुद को मनीषा कोईराला से कम नहीं समझती थी। मेरे रिसेप्शन में इंटर करते हुए और वहाँ से फारिग होकर निकलते वक्त तक वह इकबाल के साथ ही भीड़-भाड़ से अलग-थलग कोने में कुछ अलग अंदाज में बतियाती हुई दिखी थी। खैर… बात फिर आई-गई हो गई।

इधर पिछले साल भर से वह मेरी पड़ोसन मोती के साथ देर रात तक वॉक करते दिखाई देती। दोनों में गहरी दोस्ती झलकती। बातें तो जैसे खत्म ही न होतीं। लेकिन, सहेलियों की दोस्ती के बीच में मंतोष कब जा घुसा, पड़ोसन होते हुए भी मुझे पता नहीं चला, जबकि मेरी गली की सारी महिलाओं को सारी गतिविधियाँ जुबानी हो गईं। अब तो हर कोई अपने तई मेरा ज्ञानवर्धन करने लगा। कोई मुस्कुरा कर रह गया, किसी ने रोष दिखाया, किसी ने चुप्पी साध ली, किसी ने नमक-मिर्च लगाया तो किसी ने सहानुभूति का दरिया ही बहा दिया-

“हाय अब मोती बेचारी का क्या होगा? छोटे-छोटे दो बच्चे, कैसे पालेगी?”

दूसरी ने कहा- “ज्यादा पढ़ी-लिखी भी नहीं है कि नौकरी कर ले। बेड़ा गर्क हो उस दूसरी औरत का, जिसने सहेली बन कर सहेली का घर लूट लिया।”

तीसरी ने कहा- “सिर्फ अपनी सहेली का ही घर नहीं लूटा, बल्कि अपने देवता समान पति को भी शर्मसार करके उसका कलेजा छलनी कर दिया। बेचारा घर का दरवाजा बंद करके रोता ही रहता है। ऑफिस तक नहीं जा रहा। किसी को कैसे मुँह दिखाए।”

चौथी ने कहा- “अरे! वो तो बड़ी चंडालिन निकली, जेठानी तक को घर से बाहर निकलवा दिया।”

दरअसल सुनीता की जेठानी इंदु को उनकी काम वाली बाई ने बता दिया था कि सुनीता एटीएम से पैसे निकालने के बहाने मोती के पति मंतोष के साथ उसकी कार में बैठकर यहाँ-वहाँ घूमती रहती है। मॉल भी जाती है।

“क्या गलत-सलत बोलती है, होश में तो है?”

“सिरतौन कहिथौं, झूठ नई बोलवं भौजी। अपन आँखी म खुद देखे हववं।”

साक्ष्य देकर इंदु ने सास से शिकायत की तो सास ने उल्टे उसे ही झूठा कह कर दोनों बहुओं में लड़ाई करवा दी।

एक तो पहले ही तूने मेरे बेटे को खा लिया, अब क्या दूसरे बेटे से भी मुझे अलग-थलग करवाना चाहती है? “निछत्तर कहीं की।”

दरअसल सास, विधवा बहू और उसके मासूम बेटे को पालना ही नहीं चाहती थी। इसीलिए रोज-रोज बहुओं में किटकिट करवा कर बड़ी बहू को अपने बच्चे के साथ मायके जाकर रहने पर मजबूर कर दिया, पर छोटी बहू को कछ नहीं कहा। उसका पति कमाऊ बेटा जो था। छोटी बह से बिगाड. उसका अपना भविष्य अंधकारमय कर सकता था।

कितनी अजीब बात है! औरत, औरत की ही हितैषी नहीं होती। अपनी सुरक्षा और क्षणिक सुविधा के लिए अपनी ही जाति से गद्दारी कर बैठती है। आखिर स्त्री, स्त्री के प्रति इतनी असहिष्णु क्यों हो जाती है?

सास जो कल तक छोटी बहू के पक्ष में थी अब उसके विरुद्ध हो गई। दो हजार में खाना पकाने वाली जो मिल गई। बिना झंझट टेबल पर परोसा हुआ गरमा-गरम खाना, फर्श पर पोछा और धुले हुए कपड़े, अब और क्या चाहिए; अब तो वही घर की रानी बनी इतरा रही है।

“अच्छा हुआ कुल्टा चली गई। जो खर्च उस पर हो रहा था, वही मैंने नौकरानी को दे देना है। लड़का है, लड़कियाँ तो और भी मिल जाएँगी; ले आऊँगी बहू फिर से।”

इधर पति भी निश्चिंत हो गया है।

“नहीं दूंगा तलाक। घुटा दूंगा। करके देखे न शादी।

पत्नी कहलाने का सम्मान साली से बर्दाश्त नहीं हो रहा था; अब रखैल का तमगा अच्छा लग रहा होगा।”

रात में सुनीता की पड़ोसन यानि इकबाल की बीवी जो रात्रि भोज के बाद एक पड़ोसन के साथ टहल रही थी, मुझको गेट का ताला बंद करते देख कर अपडेट देने मेरी ओर चली आई। सामने वाली पड़ोसन भी उसके पीछे चिपक ली। अपनी पड़ोसन के अपडेट उसी ने दिए।

“वह तो मेरे इक्कू को भी लाईन देती थी, मैंने कई बार उसे इशारा करते हुए देखा है।”

“क्या कहा?”

“सच ही तो कह रही हूँ।”

“इक्कू ने ही बताया। मैने भी कह दिया- छोड़ क्यों दिया, बहती गंगा में हाथ धो लेना था। तुम्हारे भी काम आती और तुम्हारे बेटे के भी।”

इकबाल की बीवी पढ़ी-लिखी है और सरकारी मुलाजिम भी रही है, उसके ये शब्द मझे हैरान करने वाले थे। मझे इस मानसिकता पर घोर आपत्ति थी। वह खुद अपने पति से दस साल बड़ी है। दोनों एक ही दफ्तर में काम करते थे। वह टिफिन लाती और फिर दोनों मिलकर लंच करते। दफ्तर वालों का मानना था कि उसने खाने में कुछ पढ़ कर खिला दिया था, इसीलिए इकबाल अपने से बड़ी काली घोड़ी पर रीझ गया। इकबाल कम उम्र का सुंदर लड़का था। शादी बेमेल थी, मगर चली और अब तक चल रही है ये भी सच है। वह बता रही थी-

“सिर्फ सुनीता की गलती नहीं है, गलती मोती की भी है। वह क्यों कार में पति के साथ सामने वाली सीट पर खुद न बैठ कर सुनीता को बिठाती और घुमाती-फिराती थी?”

“हाँ! यह तो सोचने वाली बात है।”

“और सुनो, इसने तो पुलिस इंक्वायरी में महिला पुलिस को पति और सुनीता के विरुद्ध बयान भी नहीं दिया, जबकि उसके पति और उस दूसरी औरत के बीच क्या चल रहा है वह भली-भांति जानती थी।”

“अच्छा!”

“उल्टे यह बयान दे दिया कि-”

“मुझे इन संबंधों पर कोई आपत्ति नहीं है।”

“ओह माई गॉड!”

“क्या ये जाहिल इतना भी नहीं समझती कि उसकी यह स्वीकारोक्ति और आत्म समर्पण भविष्य में उसके और उसके बच्चों पर भारी गुजर सकते हैं। वह दूसरी औरत अगर घर में आकर बैठ गई तो क्या होगा?”

“ओहहहह।”

“कैसी औरत है, सौत के प्रति डाह ही नहीं है। अपने पति को गीले साबुन की तरह आराम से फिसलने दे रही है।”

दूसरी पड़ोसन बोली- “अरे! नहीं, यह सब इसी की मिली भगत से हुआ है। घर से भागते हुए इसकी सहेली ने इसे मोबाईल पर इत्तला दी थी।”

“तो यह बात है।”

“और क्या? जाने के बाद भी दोनों सहेलियाँ वीडियो कॉल से लगातार संपर्क में बनी हुई थीं। पुलिस ने दोनों का कॉल डिटेल निकाल लिया है।”

“तो अब पुलिस कुछ कर रही है क्या?”

“पुलिस क्या करेगी, इसने तो खुद ही कह दिया है-”

“पति अगर उस औरत को इस घर में ले आते हैं तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है। हम दोनों सहेलियाँ, ‘बहनें’ बन कर एक घर में एक साथ रह लेंगी।”

“यह तो हद्द हो गई।”

“बिल्कुल हद्द हो गई। ये तो चाहती ही है सुनीता को अपने घर में नौकरानी बना कर रखे और खुद महारानी बनकर राज करे।”

“क्या जमाना आ गया है!”

“अरे! इसके पति ने तो सुनीता को नौकरी भी दिलवा दी है। अब तो उसकी कमाई भी घर में ही आएगी।”

यह सब सुन कर तो मैं अवाक ही रह गई! मैं सोच रही थी कोई पत्नी अपने पति को कैसे बाँट सकती है? औरत तो वो चीज है जो पति की परछाई पर भी किसी की दृष्टि पड़े तो वह उसकी आँख नोच ले। फिर मोती तो….।

मोती को मैं अच्छी तरह जानती हूँ। इतनी सीधी और निरीह तो वह है नहीं, जितनी दिखने की कोशिश करती है। मोती के बरअक्स उसका पति ज्यादा सज्जन और दयालु है। मुझे याद है जब ये लोग मेरे पड़ोस में रहने आए थे तब सास भी साथ आई थीं। उन्होंने खुद मुझसे परिचय बढ़ाया था ताकि मैं उनके बहू-बेटे की संभाल रखूँ।

“ले अब जात हववं। तैं परोसिन हवस, मोर लइका मन के धियान बड़े बहिनी कस रखबे।”

मैंने भी भावुक होते हुए कहा- “आप मन चिंता झन करव, मैं हववं ना। देखे रहिहूँ।”

वे निश्चिंत होकर गाँव वापस लौट गईं।

गाँव में थोड़ी बहुत खेती-किसानी बची थी, जिससे उनका गुजर-बसर चलता था। पति के गुजरने के बाद उन्होंने ही बच्चों की परवरिश की थी। गाँव में खेती-बाड़ी की जिम्मेदारी थी सो शहर में नहीं ठहर सकती थीं। बेटा बाबू बन गया था, इसीलिए पत्नी संग शहर में आ गया।

अब वह शहर का रहन-सहन और तीन-पाँच भी सीख गया। ढीली-ढाली काली पैंट और टेरीलिन की शर्ट से निकल कर वह झक्क सुफैद खादी की शर्ट और नैरो ब्रांडेड जींस में उतर आया। उसका मंझोला कद और सांवला चेहरा आत्म बल से तन गया। वह जॉगिंग करता, बैडमिंटन खेलता और किश्त की स्विफ्ट में घूमता। जबसे विधायक का ‘पी एस’ बना, अक्सर वह आँगन में टहलते हुए मोबाईल पर लोगों से डील करता रहता।

लेकिन, मोती गाँवड़ी की गाँवड़ी रही। बाल जरूर छट गए, कपड़ों का स्तर भी सधर गया, परन्त गाँवडे व्यवहार का स्तर अभी तक नहीं सुधरा। पति के पद का घमंड कुछ इतना ज्यादा रहा कि खुद होकर नमस्ते या बात तक नहीं की किसी से। कपट की तो बलिहारी ही जाऊँ। हर साल उसकी सास इनके गाँव से होली मनाकर लौटने पर मेरे बिट्ट के लिए चावल के “अनरस” अवश्य भेजती। मगर शुरू के दो-तीन साल पश्चात मोती ने देना बंद कर दिया। मंतोष अक्सर पूछता-

“कैसा लगा, अनरसा? माँ ने नमस्ते कहा है।”

मंतोष के ऐसा पूछते ही मोती की चोरी पकड़ी जाती।

हमारी बेरी के पेड़ की एक डंगाल उसके आँगन में जाने के कारण मोती ने बेर के समूचे पेड़ को मेरी अनुपस्थिति में कटवा दिया। मेरे नाराज होने पर बोली-

“बेरी के पेड़ में चुडैल रहती है न, इसीलिए कटवा दिया।”

मेरा बेटा आज भी उसके फल की मिठास और गुदास को याद करके बिलखता है।

हमारे बाउंड्री वाले सीताफल का तो एक भी फल हमें खाने को नहीं मिलता। वह बाउंड्री वॉल पर चढ़ कर एकदम सुबह-सुबह या दोपहर में बड़े बांस के सहारे सारे कच्चे फल तोड़ लेती। अपने बच्चों को आँगन में कुदवा कर अमरूद तुड़वा लेती, मगर अपने आम के पेड़ की एक कैरी तक नहीं देती। और तो और हैवी टुल्लू पंप से नल का पानी खींच कर अपने बंजर बगीचे पर व्यर्थ ही बहाती रहती। इधर हमारा नल तेल की धार से भी पतला चलता। मैं जब भी उसे टुल्लू पंप बंद करने को कहती, उसका एक ही झूठा मगर मासूम-सा जवाब होता,

“मैंने तो कबसे बंद कर दिया है, आकर देख लो।”

तीन साल पहले उसे गर्भाशय का कैंसर हुआ, कम उम्र में ही उसे गर्भाशय निकलवाना पड़ा। मैंने उसकी मदद के लिए अपनी खाना बनाने वाली बाई को क्या भेजा उसने तो लालच देकर मेरे घर से उसकी छुट्टी ही करवा दी।

अपने पति के साथ भी उसका बर्ताव कभी प्रेमपूर्वक नहीं रहा। उसके घर से हमेशा ऊँची आवाजें आतीं।

मंतोष मुझसे अक्सर कहता- “ढीठ है, कुछ समझती ही नहीं, क्या करूँ?”

मंतोष की बहन विडो है और शहर के एक स्कूल में टीचर है। शुरू के सालों में वह तीज-त्योहार और वीकेंड पर अपने छोटे बच्चों के साथ आ जाती थी, लेकिन अब नहीं आती। ननद-भौजाई में मनमुटाव गहरा गया। सास भी अब शहर नहीं आती। यही लोग यदा-कदा गाँव हो आते।

कुल मिलाकर धृष्टता और दुष्टता ही उसका स्वभाव रहा। इतने सालों बाद भी गली की किसी भी महिला से उसका स्थायी संबंध नहीं बना।

मैं सोच रही थी मंतोष के बहक जाने का क्या यही सबब रहा होगा?

अपने बच्चों के कोमल मन पर पड़ सकने वाले दुष्प्रभाव का ज्ञान उसे कैसे नहीं रहा? सामाजिक स्टेटस और नौकरी पर आने वाले खतरे को भी उसने नहीं भाँपा। यहाँ तक कि सुनीता के पति व घरवालों के मान-सम्मान के बारे में भी नहीं सोचा। वह मर्द है, किसी के भी साथ रात बिता कर आ सकता था, फिर संबंधों का ऐसा जोखिम आखिर क्यों कर उठाया?

क्या मोती का गँवारपन और ढीठता ही इसका असल कारण था या पत्नी का सेक्स डिसेबल होना? लगता है संबंधों का आखिरी सिरा भी दरक गया था।

मोती, जो हमेशा तनी-फनी रहती थी, उसमें ऐसा क्या आत्म परिवर्तन आ गया कि पति अचानक से देवता हो गया। ननद को तो कभी ननद बना न सकी, मगर सौत को ‘बहन’ बनाकर साथ रखने पर तैयार हो गई? पति से कभी भी प्रेमपूर्वक नहीं बोली पर अब उसके लिए बिछी-बिछी जा रही है। क्या शारीरिक कमी के भान ने मन की दशा और दिशा को बदलने पर मजबूर कर दिया या स्वयं और बच्चों के भविष्य की चिंता ने समर्पण और मध्यस्थता की राह सुझा दी?

उधर, क्या शादी के कई बरसों बाद भी सुनिता को संतान सुख न मिलने की वजह से पति से मोहभंग हो गया या माँ न बन पाने से समाज के द्वारा बाँझ कहे जाने की पीड़ा ने यह कदम उठाने के लिए विवश कर दिया। या फिर नए स्त्री विमर्श ने उसके भीतर दुस्साहस की नई ज्वाला भर दी कौन जाने?

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’