kalavati ka choolha moral story
kalavati ka choolha moral story

सालवन गाँव में रहती थी एक बूढ़ी स्त्री। उसका नाम था कलावती। पर कलावती का सिर्फ नाम ही कलावती नहीं था। वह सचमुच बहुत सुघड़ थी। घर के काम-काज से लेकर मिट्टी की मूर्तियाँ बनाने, चौके की सजावट और चूल्हा बनाने में भी उसका कोई जोड़ नहीं था। खासकर उसके बनाए चूल्हे की तो इतनी तारीफ होती थी कि हर कोई चाहता था कि कलावती ही उसके लिए चूल्हा बना दे।

सालवन गाँव के सारे बच्चे उसे दादी अम्माँ कहकर बुलाते थे। कलावती बच्चों को खूब प्यार करती थी, इसलिए बच्चे भी उस पर जान छिड़कते थे।

उसी गाँव में एक सेठानी तारादेवी भी रहती थी। उसे यह बुरा लगता था कि उसके पास इतना पैसा होते हुए भी हर कोई कलावती की ही तारीफ करता है। उसे कोई नहीं पूछता।

एक दिन की बात, गाँव की औरतें कलावती के चूल्हे की बार-बार तारीफ कर रही थीं। सुनकर तारादेवी कुछ चिढ़कर बोली, ”इसमें ऐसा क्या है! मैं तो कलावती से ज्यादा अच्छा चूल्हा बना सकती हूँ।”

इस पर बूढ़ी दादी गोमती ने कहा, ”तो ठीक है, दोनों आज अभी-अभी घर जाकर चूल्हा बनाओ। कल सुबह मैं देखूँगी, किसका चूल्हा अच्छा बना है?”

कलावती घर पहुँची तो चिंता में पड़ गई। चूल्हा बनाने के लिए तालाब की चिकनी मिट्टी लानी थी। वह इतनी जल्दी भला कैसे आ सकती थी? फिर कलावती को अपना अनोखा चूल्हा बनाने में समय भी ज्यादा लगता था।

कलावती के घर के सामने बड़ा सा मैदान था। उसमें हमेशा बच्चे खेलते रहते थे। कलावती ने देखा, इस वक्त भी पंद्रह-बीस बच्चे तो खेल ही रहे थे। उसने आवाज देकर बच्चों को बुलाया। कहा, ”जल्दी आओ, एक जरूरी काम है।”

बच्चे दौड़कर आए तो कलावती ने कहा, ”प्यारे बच्चो, ऐसे ही दौड़ते हुए चले जाओ। तालाब से एक-एक मिट्टी का डला उठा लाओ। मुझे रात में ही चूल्हा बनाकर पूरा करना है। नहीं तो तारा जीत जाएगी, मैं हार जाऊँगी।”

”नहीं-नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है? दादी कलावती कभी नहीं हार सकतीं।” बच्चे चिल्लाए, ”हम अभी जाते हैं और डले लेकर आते हैं। हाँ, बदले में गुड़ तो मिलेगा ना दादी?”

”क्यों न दूँगी?” दादी कलावती बोली, ”जाओ, अब सबके सब दौड़कर जाओ।”

छोटे-बड़े सभी बच्चे उसी समय शोर मचाते हुए, भाग खड़े हुए। तालाब से डले निकाले। फिर सिर पर एक-एक डला रखकर जुलूस की शक्ल में दादी कलावती के घर की ओर चल दिए। जुलूस में सबसे पीछे चार साल का चीनू था। वह भी दादी कलावती को बहुत प्यार करता था।

कला दादी ने मिट्टी के डले उतरवाकर सब बच्चों को बदले में गुड़ दिया और चूल्हा बनाने बैठ गई। आसपास सब बच्चे भी उन्हें घेरकर बैठे हुए थे। दादी जब लिपाई करने के बाद रंगों से चूल्हे की सजावट कर रही थी, तो बच्चे भी अपनी-अपनी सलाह दे रहे थे। कलावती बच्चों की बात मान लेती, तो बच्चे खुश होकर तालियाँ पीटने लगते।

उधर सेठानी तारा ने नौकरों से मिट्टी मँगवाकर चूल्हा बनवाया। अपने हाथ मिट्टी से बचाने के लिए वह नौकरों से ही कह-कहकर काम कराती रही।

अगले दिन गोमती दादी ने दोनों चूल्हे देखे। कलावती के चूल्हे में सचमुच कला थी।

बाद में गोमती दादी ने कलावती के चूल्हे की रोटी खाई और सेठानी के चूल्हे की भी। फिर मुसकराकर बोली, ”कलावती जीत गई, क्योंकि कलावती के चूल्हे से बनी रोटियों में ममता की मिठास थी, जबकि सेठानी के चूल्हे की बनी रोटियों में अभिमान की बू थी। इसलिए रोटियाँ भी कड़ी थीं।”

सुनकर कलावती का चेहरा खिल गया। सब बच्चे तालियाँ पीट-पीटकर ‘दादी अम्माँ जिंदाबाद’ का नारा लगाने लगे।