अनाड़ी जी, महिलाएं दिमाग के बजाय मुंह को ही क्यों सजाती-संवारती रहती हैं?
बबीता केशरी, वाराणसी
मुझे यह कहते हुए संकोच है,
कि प्रश्न में पुरुषवादी सोच है। बिल्ली हो चाहे बिलौटा,
हर प्राणी संवारता है अपना मुखौटा।
जहां तक दिमाग का सवाल है,
मेरा ये खयाल है कि स्त्री का दिमाग हमेशा से तेज़ रहा है,
प्रमादी पुरुष उसके आगे निस्तेज रहा है।
कुछ इंसानों ने व्यर्थ ही स्वयं को बंदर बनाया है,
कुदरत ने तो सबको सुंदर बनाया है!
अनाड़ीजी, बचत का गुण महिलाओं में ज्यादा होता है या पुरुषों में?
निधि निगम , मुंबई
पुरुष स्त्री को नचाता है
स्त्री पुरुष को नचाती है,
पर इतना तय है कि
स्त्री ज़्यादा कुशलता से
सब कुछ बचाती है।
अनाड़ीजी, मैं अपनी जिंदगी में कभी खिलाड़ी नहीं बन पाई, बस आपकी तरह अनाड़ी ही रह गई। क्या आप खिलाड़ी बनने का राज बता सकते हैं?
सुरभि रानी, मेरठ
तुम भी अनाड़ी, मैं भी अनाड़ी,
न तुम खिलाड़ी, न मैं खिलाड़ी!
फिर हम क्यों बेकार ही
इस पीड़ा से जूझते हैं,
खिलाड़ी बनने का राज़
चलो किसी और से
मिलकर पूछते है!
अनाड़ीजी, कंम्प्यूटर का वायरस कंम्प्यूटर खराब कर देता है, क्या दिमाग खराब होने के पीछे भी वायरस का हाथ होता है?
भावना सारस्वत, फिरोजाबाद
कंम्प्यूटर आदमी ने बनाया है,
कंम्प्यूटर वायरस भी
आदमी की माया है।
फिर वही बेचता है
एंटी वायरस प्रोग्राम,
पर अपने मामले में रहता नाकाम।
बिगाड़ लेता है अपने
दिल और दिमाग की तराजू,
किसी को आजू बिठाता है
किसी को बाजू।
और असंतुलन से बेबस,
लगा बैठता है वायरस।
वायरस में अगर रस है
तो जि़ंदगी भर नहीं जाएगा,
ये बात दूसरी है कि
छिपा सका तो छिपाएगा।
वायरस कभी खुद भी
जा सकता है संयोग से,
या फिर संन्यास के योग से।
अनाड़ी जी, ग्रामीण महिलाओं के लिए मोबाइल किस तरह लाभदायक है?
रागिनी देवी निगम, कानपुर
मोबाइल नै गजब करि डारे बहना।
सैंया गए परदेस,
भेजें खूब संदेस,
एसएमएस मिले मोय प्यारे-प्यारे बहना।
खूब सारे फोटू भेजे,
मैंने कलेजे सहेजे।
देखे देस परदेस के नजारे बहना।
फोन रेडियो सुनावै,
फोन बीडियो बनावै।
पल भर में पठावै पी के द्वारे बहना।
मेरौ नैक सौ ये फोन,
बदलूं रोज रिंग टोन।
गाने शीला मुन्नी वारे कजरारे बहना।
पइसा बैंक में जो आवै
याई फोन ते ई आवै,
मैंने झट्ट एटीएम ते निकारे बहना।
फोन पकरै ये झूठ,
ये सिपइया रंगरूट।
मेरे सैंया सौ-सौ बार मोसे हारे बहना।
मोबाइल नै गजब करि डारे बहना।
अनाड़ी जी, पत्नी या पति सिर्फ हनीमून में ही क्यों सबसे अच्छे लगते है जबकि बाकी की जि़न्दगी में न हनी की मिठास पत्नी में मिलती है और न पतिदेव मून दिखाते हैं?
सारिका भूषण, रांची
जिसे हम पारंपरिक हनीमून कहते है,
उसमें दो जिस्म एक शरीर रहते हैं!
उस दौरान स्त्री-पुरुष स्वयं को
संपूर्ण परोसा करते हैं,
और एकदूसरे पर भरोसा करते हैं।
फिर जि़ंदगी लाल से होती है पीली,
कमान होने लगती है ढीली,
कमानी पड़ती है दाल-रोटी
और होने लगती है खरी-खोटी!
बच्चों की जि़म्मेदारियां और संघर्ष घनेरे,
दोस्तियों के इशक पर शक के घेरे,
माना कि कोई इंसान परफैक्ट नहीं है,
पर जो तुम सोचते हो वह फैक्ट नहीं है।
अगर जि़ंदगी में एक दूसरे का
नहीं करोगे अपमान,
अंतर्मन से परस्पर करोगे सम्मान,
संबंधों को ग्रेस दोगे,
थोड़ा-बहुत स्पेस दोगे,
एक दूसरे के कामों में हाथ बंटाओगे,
तो जीवनभर हनीमून का मज़ा पाओगे!
यदि आपके सवाल को अनाड़ी जी देते हैं पहला, दूसरा व तीसरा स्थान तो आप पा सकते हैं प्रोफेसर अशोक चक्रधर की हस्ताक्षरित पुस्तकें। आप अपने सवाल anadi@dpb.in पर ईमेल भी कर सकते हैं।
