बस, उसी दिन से ठुनठुनिया का जीवन बदल गया।

गोमती की तबीयत तो ठुनठुनिया को अपनी आँखों के आगे देखते ही ठीक होनी शुरू हो गई थी। और दूसरे-तीसरे दिन वह बिल्कुल ठीक हो गई। पर ठुनठुनिया के भीतर जो उथल-पुथल मच गई थी, वह क्या इतनी जल्दी ठीक हो सकती थी!

ठुनठुनिया को लगता, माँ की इस हालत के लिए वही जिम्मेदार है। उसे इस तरह माँ को अकेला छोड़कर नहीं जाना चाहिए था। फिर पढ़ाई-लिखाई भी जरूरी है। उसके बगैर काम नहीं चलेगा—यह बात भी उसके भीतर बैठने लगी।

“माँ, चिंता न कर। अब मैं खूब जी लगाकर पढूँगा और अच्छे नंबर लाकर दिखाऊँगा।” ठुनठुनिया ने कहा तो गोमती की आँखों में अनोखी चमक आ गई। उसने ऊपर आसमान की ओर देखकर हाथ जोड़े और मन-ही-मन ईश्वर को धन्यवाद दिया कि बेटा आखिर सही राह पर आ गया। और सचमुच ठुनठुनिया ने जैसा कहा था, वैसा ही कर दिखाया। फिर से वह स्कूल जाने लगा था। स्कूल के रजिस्टर में उसका नाम कट गया था। मास्टर अयोध्या बाबू ठुनठुनिया को साथ लेकर हैडमास्टर सदाशिव लाल के पास गए और सारी कहानी कह सुनाई। हैडमास्टर साहब ने फिर से उसका नाम लिख लिया। कहा, “अब तो मेहनत से पढ़-लिखकर कुछ बनकर दिखाओ, तो मैं अपने पास से तुम्हें वजीफा दूँगा। लौटकर घर के रास्ते पर आए हो, तो यह रास्ता अब कभी छोड़ना नहीं।”

सुनकर ठुनठुनिया की आँखें छलछला आईं। उसे लगा कि अब अपना संकल्प पूरा करने का समय आ गया है। मानो कोई सामने खड़ा हाथ के इशारे से उसे बुला रहा हो, “ठुनठुनिया आ, अब इस नई राह पर आ। कुछ बनकर दिखा।”

ठुनठुनिया को शुरू में मुश्किल आई। अध्यापक क्लास में क्या पढ़ा रहे हैं, उसे कुछ समझ में ही नहीं आता था। पर वह घर आकर किताब खोलकर वही पाठ बार-बार पढ़ता तो चीजें साफ हो जातीं। खुद-ब-खुद पूरा पाठ उसे याद हो जाता। फिर भी कोई मुश्किल आती, तो मास्टर अयोध्या बाबू रात-दिन मदद करने के लिए तैयार थे।

धीरे-धीरे ठुनठुनिया पढ़ाई में इस कदर डूब गया कि उन शरारतों का उसे बिल्कुल ध्यान ही न था, जिनमें उसका पूरा समय गुजरता था। यहाँ तक कि कुछ समय के लिए तो खेल-कूद, गपशप और घुमक्कड़ी भी छूट गई।

स्कूल के हैडमास्टर सदाशिव लाल जी और सभी अध्यापक अब ठुनठुनिया की तारीफ करते हुए कहते, “देखा, ठुनठुनिया ने अपने आपको कितना बदल लिया! बाकी बच्चे भी चाहें तो इससे सीख ले सकते हैं।”

अब तो क्लास में अध्यापक के सवाल पूछने पर सबसे पहले खड़े होकर जवाब ठुनठुनिया ही देता था, जबकि इससे पहले हालत यह थी कि ठुनठुनिया सबसे नजरें बचाए क्लास की सबसे पीछे वाली सीट पर चुपचाप बैठा रहता, जैसे पढ़ाई से उसका कोई वास्ता ही न हो। ठुनठुनिया का यह नया रूप देखकर सभी अध्यापक उसकी हिम्मत बढ़ाते। मास्टर अयोध्या बाबू तो बार-बार कहा करते थे, “ठुनठुनिया, तुम चाहो तो फर्स्ट आ सकते हो। बस, इसी तरह मेहनत करते रहो। कोई मुश्किल आए तो दौड़कर मेरे पास आ जाना, हिचकना मत।”

और कोई साल-डेढ़ साल की ठुनठुनिया की मेहनत रंग लाई। हाईस्कूल का नतीजा आया तो उसे यकीन नहीं आया। वह फर्स्ट डिवीजन में पास हुआ था। यहाँ तक कि गणित और विज्ञान में उसकी विशेष योग्यता भी थी।

“फर्स्ट!…ठुनठुनिया फर्स्ट!…”

“हाँ-हाँ, एकदम…फर्स्ट!…सुन लिया न ताई?”

अब तो गोमती के घर बधाइयों का ताँता लग गया। गोमती के सूखे चेहरे पर पहली बार थोड़ी मुसकान दीख पड़ी। उसे लगा, जीवन में पहली बार उसने थोड़ा सुख देखा-जाना है। जैसे ही ठुनठुनिया स्कूल से लौटकर आया और उसने यह खबर सुनाई, गोमती सोचने लगी—आज बेटे को क्या बनाकर खिलाऊँ कि उसका जी खुश हो। बोली, “ठहर ठुनठुनिया, तेरे लिए सूजी का हलुआ बनाती हूँ।”

गोमती हलुआ बनाने के लिए उठी ही थी कि पड़ोस की शीला चाची आ गई। हाथ में बड़ा-सा बरतन था। उसमें दही-वड़े थे। बोली, “कहाँ है ठुनठुनिया? उसे आज मैं अपने हाथ से दही-वड़े खिलाऊँगी।” ठुनठुनिया को उसने अपने हाथों दही-वड़ा खिलाया और फिर शीला चाची और गोमती ने भी दही-वड़े खाए। सूजी का मीठा हलुआ खाया। लग रहा था, घर में जैसे कोई त्योहार हो।

ठुनठुनिया उसी दिन पड़ोस के एक विद्यार्थी से इंटरमीडिएट की पुरानी किताबें ले आया। वह अगले दिन से इंटरमीडिएट की पढ़ाई में खूब जोश से जुट जाना चाहता था। एक दिन भी आखिर क्यों खराब किया जाए? उसे लगा, वह जो प्यारा-सा आदमी उसके सामने खड़ा है, हाथ का इशारा करके उसे बुला रहा है। हँसकर कह रहा था कि “ठुनठुनिया, तुम एक सीढ़ी चढ़ गए। अब बस, एक सीढ़ी और! देखना, तुम्हारे आगे रास्ते खुलते चले जाएँगे…!”

यही तो ठुनठुनिया का भविष्य था। उसके भविष्य की उम्मीदों से छल-छल करती आवाज…!! ठुनठुनिया ने उसे अच्छी तरह पहचान लिया था।

ये उपन्यास ‘बच्चों के 7 रोचक उपन्यास’ किताब से ली गई है, इसकी और उपन्यास पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएंBachchon Ke Saat Rochak Upanyaas (बच्चों के 7 रोचक उपन्यास)