शास्त्रों में नागों के दो खास रूपों का उल्लेख मिलता है-देवता रूप तथा विनाशकारी रूप। नागदेवता की अर्चना में भक्ति तथा शक्ति दोनों का सम्मिश्रण है। ऐसी मान्यता है कि ये बलशाली देवता क्रुद्ध हो जाएं, तो सर्वनाश भी कर सकते हैं। प्रतिवर्ष नागदेवता की पूजा करने तथा उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए नागपंचमी का त्योहार श्रद्धा से मनाया जाता है, जो श्रावण मास की पंचमी तिथि को आता है। कुछ क्षेत्रों में कृष्णपक्ष में, कुछ क्षेत्रों में शुक्लपक्ष में।

कुछ विद्वानों के अनुसार सुप्रसिद्ध वैदिक वीर वृत्रासुर भी सर्पकुल का ही था। इसलिए इन्द्र को वृत्रहन के साथ अहिहन भी कहा जाता है अर्थात् इन्द्र ने सर्प को मारा। वृत्रासुर का वेदों में जो स्वरूप कहा गया है, वह आधुनिक सर्पों से मिलता है। वेद में वृत्रासुर को सर्पों में सर्वप्रथम उत्पन्न भी कहा गया है।

शुक्ल यजुर्वेद (30/8), शतपथ ब्राह्मण (13.2.4) के अनुसार नाग एक ऐसा जीव है जिसकी आकृति (ऊपरी अंग) तो मनुष्यों जैसी, लेकिन अधोभाग सर्पों के सदृश होता है। पुरातन विचारकों के अनुसार भारत में सर्पपूजा और नागपूजा का विकास आदिवासियों के असर के कारण हुआ होगा। हिमालय से जब आर्य सर्पों के इस गर्म प्रदेश में सर्वप्रथम आए होंगे, तब उन्होंने यहां की मूल अनार्य जातियों की इस आराधना प्रणाली को अपनाया होगा। बाद की संहिताओं में गंधर्वों और दूसरे सुरों के साथ ही सर्पों की विवेचना सम्मानपूर्वक एक विलक्षण समुदाय के रूप में हुई है। शुक्ल यजुर्वेद और तैत्तरीय ब्राह्मण में इन्हें क्षिति, समीर और गगन का निवासी कहा गया है तथा सम्मान दिया गया है। अथर्ववेद में सर्पों की खास चर्चा है तथा इसका आह्वïान किया गया है।

इतिहास और अन्य देशों के साहित्य का अवलोकन करने से जानकारी मिलती है कि सर्पों की सुरों के रूप में मान्यता तथा उनके प्रति भांति-भांति की वैसी ही कथाएं हैं, जैसी की भारत में। अऌफ्रीका, मिस्र, चीन आदि में भी सर्पों की अर्चना होती है।

धर्मग्रंथों में नागपंचमी

  • आश्वलायन, गृह्यसूत्र और पारस्कर गृह्यसूत्र में सुर, असुरों आदि के साथ इनके आवाहन- अर्चना की विधि है एवं देवों के साथ यज्ञ में इनको भी हवन का अधिकारी माना गया है। कौशिक सूत्र के अनुसार नुकसानदायक प्रवाह के कारण इस तरह की आराधनाओं में सर्प की प्रकृति स्वभावत: ऐसी आसुरी और प्रतिहिंसात्मक मान ली गई है, जिसका उपशमन जरूरी है।
  • पुराणों में सर्पों से संबंधित तमाम प्रकरण और कथानक हैं। भविष्यपुराण, स्कंदपुराण आदि में नागों को प्रसन्न करने के लिए नागपंचमी त्योहार की परंपरा प्रारंभ की गई। श्रावण मास की पंचमी को पांच नागों-अनंत, तक्षक, वासुकि, कर्कोटक तथा पिंगल की पूजा-अर्चना होती थी। यही वजह है कि यह दिन नागपंचमी के नाम से प्रख्यात है-पूजेयन्नाग पंचकम्।
  • भविष्यपुराण में बारह नागों की अर्चना करने की विवेचना है। सभी मासों में शुक्लपक्ष की पंचमी को एक-एक नाग की पूजा-अर्चना का विधान है। मान्यता है कि नागपंचमी के व्रत से मृतात्मा की सर्पयोनि से मुक्ति हो जाती है। गरुड़पुराण में कुछ इसी प्रकार के तथ्यों की चर्चा है।
  • वराहपुराण के अनुसार श्रावण मास की शुक्ल पंचमी को नागों ने ब्रह्माजी से शाप और वरदान दोनों प्राप्त किए थे। इसलिए नागों को यह तिथि प्रिय है। इस दिन अनंत, वासुकि, पद्म, महापद्म, तक्षक कुलीट, कर्कोटक और शंख नामक नागों की आराधना की जाती है। वे सब ‘अष्टनागÓ माने जाते हैं। इन नागों के अलावा दूसरी जाति के नागों को भी पूजनीय माना जाता है।
  • अग्निपुराण में अग्निदेव का स्पष्ट कहना हैै कि ‘वसिष्ठ! अब मैं आरोग्य, स्वर्ग तथा मोक्षदायक पंचमी व्रत की चर्चा करता हूं। श्रावण, भाद्रपद और कार्तिक शुक्ल पंचमी को वासुकि, कालिया, मणिभद्र, धृष्टराष्ट्र और धनंजय लक्ष्मी और यश प्रदान करने वाले सर्प हैं।

कथा

नागपंचमी के संदर्भ में एक कथा प्रचलित है। एक किसान के दो पुत्र तथा एक पुत्री थी। एक बार जब किसान खेत जोत रहा था, तो हल की फाल से सर्प के तीन बच्चे मर गए। बदले की भावना से नागिन ने रात्रि में किसान, उसकी स्त्री तथा दोनों बेटों को डस लिया, जिससे वे चारों मर गए। दूसरे दिन नागिन किसान की पुत्री को डसने गई। लड़की ने उसे देख लिया तथा भय से उसके सम्मुख दूध से भरा पात्र रख दिया। संयोग से उस दिन नागपंचमी थी। तब खुश होकर नागिन ने उसे वर दिया तथा पिता, भाइयों एवं माता को पुन: जीवित कर दिया। नागिन ने यह भी वर दिया कि आज के दिन जो नागों की अर्चना करेगा, उसे  सर्पों का डर नहीं होगा। उसी दिन से लोक में नागपूजा का प्रचलन हुआ। जनश्रुति के अनुसार नागपंचमी को न तो जमीन खोदते हैं और न ही हल चलाते हैं।

नागपंचमी का महत्त्व 

नागपंचमी का त्योहार यूं तो संपूर्ण देश में मनाया जाता है, लेकिन महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में नागपंचमी का खास महत्त्व है। यहां के निवासियों की मान्यता है कि नागदेवता के खुश होने पर नि:संतान को पुत्र की प्राप्ति होती है। पूना से 190 किलोमीटर दूर शिराला गांव स्थित मां अम्बा के मंदिर में प्रतिवर्ष मेला लगता है। इसकी खासियत यह है कि यहां पर श्रद्धालु पुरुष, महिलाएं तथा बच्चे बिना किसी डर अथवा संकोच के सांपों को पकड़ते हैं, जो काटते नहीं हैं। मेले के दिन बैलगाड़ियों पर नागों की शोभायात्रा निकाली जाती है। नाग मिट्टी के पात्रों में बंद रहते हैं, लेकिन जनता के दर्शनार्थ बारम्बार निकाल कर दिखाया जाता है, ताकि वे भक्तों की मनोकामनाओं को पूर्ण कर सकें। ऐसी मान्यता है कि इस शिराला गांव में आज तक किसी भी व्यक्ति को सांप ने नहीं काटा है।

उत्तरप्रदेश में नागपंचमी को ‘गुड़िया’ भी कहा जाता है। छोटे लड़के तथा लड़कियां आसपास के किसी तालाब अथवा पोखर ऌपर अपनी गुड़िया और छड़ी लेकर जाते हैं। लड़कियां बड़े परिश्रम से निर्मित की गई कपड़े की मनभावन गुड़ि़याओं को पानी में प्रवाहित करती हैं तथा लड़के सजी हुई रंग-बिरंगी छड़ी से उसे पीटते हैं। इस दिन वहां पर मेला लगता है, जहां पर कुश्ती-दंगल आदि शारीरिक व्यायाम एवं खेलकूदों का आयोजन होता है, जिसका बच्चे भरपूर आनंद लेते हैं, हालांकि इसका कोई शास्त्रीय आधार नहीं मिलता। संभवत: इसके पीछे यही भावना है कि आज के दिन से खेलकूदों का विसर्जन (समापन) कर अध्ययन और कृषि प्रयोजनों में समय का सदुपयोग करें।

पश्चिम बंगाल में नागपंचमी मनाने का अपना विशिष्ट ढंग है। यहां सर्पों की अधिष्ठात्री देवी ‘मनसा देवीÓ की विधि-विधान से अर्चना की जाती है। कोलकाता में तो मनसा देवी की तमाम लोककथाएं प्रचलित हैं, जो नागपंचमी को सुनाई जाती हैं। यहां नागपंचमी के दिन गाए जाने वाले  गीतों में नागदेवता के क्रोध, संवेदनशीलता, पृथ्वी के दूसरे देवताओं की शक्ति के संदर्भ में जाना जाता है। इस दिन रसोई में चूल्हा नहीं जलता है। सभी लोग बासी खाना खाते हैं।

इस त्योहार को वर्षा ऋतु में मनाने के कारण सर्पों को वर्षा देने की विलक्षण ताकत वाला माना जाता है। मान्यता है कि नागपूजा से खुश होकर इन्द्र देवता वर्षा करते हैं। इसी भांति कुबेर भी धन देते हैं।

इन विशेषताओं के कारण नागपूजन का महत्त्व और भी बढ़ जाता है। नागपंचमी के अवसर पर हम भी यजुर्वेद के शब्दों में नागदेवता और सर्पों के प्रति अपनी आस्था प्रकट करते हैं। 

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