गया में ही पिंडदान क्यों?
गया में ‘गय’ नाम का एक प्राण है, जिसमें एक चुबकीय शक्ति है, वह इसी स्थान का भ्रमण करता है। गय प्राण की वजह से भी इसका नाम ‘गया’ पड़ा। मान्यता है कि गय प्राण यहां आ जाते हैं और लगातार यहीं का भ्रमण करते हैं। जब उसके परिवार का कोई सदस्य यहां आता है और पिंड अर्पण करता है, तो पितर सीधे उसे प्राप्त कर लेते हैं। यहां अर्जना नाम के पितर हैं, जिन्हें शूज कहा जाता है।
शूज की किरण से जब तर्पण करने वाले सदस्य का स्पर्श होता है, तो शूज सीधे पितरों और मनुष्य के बीच सम्पर्क स्थापित कर देते हैं। बिलकुल वैसे जैसे हॉटलाइन पर किसी से सीधे बात हो जाए। जब सम्पर्क सीधे स्थापित हो जाता है, तो पितर खुद आ कर पिंड को स्वीकार कर लेते हैं। किसी दूसरी जगह यह व्यवस्था नहीं है। यदि किसी व्यक्ति का श्राद्ध गया में ना हो पाए, तो उसका दोष पुत्रों को लगता है। क्योंकि वही पुत्र हैं, जो जीवित पिता का पालन करें और मृत्यु के बाद उनका श्राद्ध गया में करें। यदि पिंडदान ना हो, तो पितरों का आशीर्वाद नहीं मिल पाता। कुछ कुंडलियों में यही दोष पितृदोष कहलाता है। ऐसी मान्यता है कि यदि पितर खुश न हों, तो परिवार में संतान नहीं होती। धर्मशास्त्रियों में कहा गया है कि परिवार में नया अन्न या धन आने पर उसमें से पितरों का हिस्सा भी निकालना चाहिए। धन या अन्न का कुछ भाग योग्य ब्राह्मण या जरूरतमंदों में बाटना चाहिए। साल में 1 बार पितृपक्ष के दौरान पितरों की आराधना जरूर करनी चाहिए। पूरे 16 दिन यदि पितरों की आराधना ना कर पाएं, तो जिस तिथि पर स्वजन की मृत्यु हुई हो, पितृपक्ष में उस तिथि पर उस व्यक्ति के नाम से श्राद्ध करना चाहिए। उस तिथि में ब्राह्मण को भोजन करा कर अपनी श्रद्धा से दक्षिणा देना चाहिए।

गया की कथा
इसके पीछे एक कथा प्रचलित है, त्रेता युग में भगवान श्रीराम ने भी अपने पिता राजा दशरथ का पिंडदान गया में ही किया था। राम अपने पिता राजा दशरथ का पिंडदान करने जब गया आए, तो पिंडदान की सामग्री जुटाने के लिए वन में चले गए। सीता जब कुटिया में उनका इंतजार कर रही थीं, तब जमीन के अंदर से राजा दशरथ का हाथ निकला और आकाशवाणी हुई कि पिंडदान का यही श्रेष्ठ समय है, इसलिए तुरंत ही यह कर्म कर दिया जाए। सीता ने तब ससुर की आज्ञा का पालन करते हुए रेत के पिंड बनाए और अर्पण कर दिए। जब राम लौटे, तो सीता ने पूरी कथा कह सुनायी। राम ने इस पर विश्वास नहीं किया और सीता से कहा कि वे कोई साक्षी यानी गवाह पेश करें। सीता ने कहा कि यहां बहुत से लोग साक्षी थे, वटवृक्ष, गाय और फल्गु नदी। जब राम ने सभी से पूछा, तो फल्गु नदी ने इनकार कर दिया कि उसने सीता को पिंडदान करते देखा है। तब सीता ने फल्गु नदी को श्राप दिया कि वह लुप्त हो जाए। तब से फल्गु नदी का पानी बहुत सीमित रह गया है। हालांकि गया के बारे में गयासुर नामक राक्षस की कथा भी कही जाती है गयासुर का वध करने के लिए विष्णु ने अवतार लिया था। गयासुर इसी धरती पर मारा गया और इसलिए इसका नाम गया पड़ा। यहां विष्णुपद मंदिर है, जहां विष्णु के पैर बने हुए हैं। श्राद्ध कर्म इस मंदिर के पास ही किए जाते हैं।
पिंडदान के नियम
गया में पूरे साल में कभी भी पिंडदान किया जा सकता है। जीवन में किसी भी व्यक्ति के लिए 1 बार ही पिंडदान करना पड़ता है। यह मृत्यु के कितने भी वर्षों के बाद किया जा सकता है। यह संस्कार 17 दिनों का होता है। यह 17 दिनों के लिए इसलिए किया जाता है, ताकि आज तक हमारे जितने भी स्वजन हमसे बिछड़े हैं, सभी का श्राद्ध हो जाए। लेकिन आजकल इतना समय निकालना संभव नहीं हो पाता इसलिए 1 दिन में भी यह कर्म किया जा सकता है। गया में कुछ 53 पिंडवेदियां हैं, जहां श्रद्धालु आ कर अपने स्वजनों की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना और पिंडदान करते हैं।
