Gaya – where wandering souls find peace
Gaya – where wandering souls find peace

Gaya Spiritual Significance: मृतात्माओं एवं पूर्वजों की शांति एवं उन्हें मोक्ष प्रदान करने हेतु हिंदू धर्म में पिंडदान एवं तर्पण करना आवश्यक समझा जाता है। हिंदू धर्म में पिंडदान का धार्मिक महत्त्व काफी है और लोग यह मानते हैं
कि जब तक मृत आत्माओं के नाम पर वंशजों द्वारा तर्पण नहीं किये जाते हैं, तब तक उन आत्माओं को शांति नहीं मिलती है और आत्मा भटकती रहती है।

भारतीय ज्योतिष एवं धर्मशास्त्र के अनुसार कृष्ण पक्ष का संबंध पितरों से है और शुक्ल पक्ष का संबंध देवताओं से है। यह माना जाता है कि आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में (सूर्य के कन्या राशि पर
स्थित होने से) यमराज पितरों को यमालय से मुक्त कर देते हैं और वे मनुष्य लोक में आकर अपनी संततियों से पिंडदान आदि की आशा करते हैं। यदि उनके पुत्रगण उन्हें उनकी तिथियों पर पिंडदान आदि करते हैं तो वे प्रसन्न होते हैं तथा उन्हें अभ्युदय का आशीर्वाद देते हैं। इसके विपरीत (पिंडदानादि न करने पर) वे पुत्रों को शाप भी देते हैं। यही कारण है कि आस्तिकजन पितृपक्ष में पितृजनो की प्रसन्नता के लिए प्रतिदिन प्रतिपदा से अमावस्या तक तर्पणादि करते हैं तथा अपने पितरों की निधन तिथि पर विधिपूर्वक श्राद्ध करते हैं। श्राद्ध का यह कृत्य मात्र पितरों के प्रसाद के लिए ही नहीं किया जाता है, अपितु इस कृत्य से समस्त प्राणियों को तृप्ति होती है।

भारत में एकमात्र गया ही वह स्थान है, जहां पूरे विश्व के हिंदू अपने पितरों की मोक्ष प्राप्ति हेतु पिंडदान करने आते हैं। वैसे तो यहां वर्ष भर पिंडदान होता रहता है। कहा जाता है कि एक बार विष्णु
भगवान आए और गयासुर से कहा कि मुझे बड़ा यज्ञ करने के लिए एक पवित्र स्थल की जरूरत है मुझे तुम्हारे शरीर से अधिक पवित्र स्थल कहीं दिखायी नहीं पड़ता। गयासुर ने उनकी बात मानकर
अपने शरीर पर यज्ञ करने की आज्ञा दे दी। यज्ञ के क्रम में सभी देवताओं ने उसकी छाती को दबाकर उसे मार देने कोशिश की, लेकिन वे सफल नहीं हो सके। इसके बाद देवताओं ने उसके शरीर पर धर्मशीला रखकर उसे मारने की एक कोशिश और की। लेकिन वे सफल नहीं हो सके। इसके बाद अंत में विष्णु यज्ञ स्थल पर गये और गयासुर के सीने पर रखे धर्मशीला पर अपना चरण रखकर दबाते हुए कहा, ‘अंतिम घड़ी में मुझसे जो चाहो वर मांग लो।’ इस पर गयासुर ने कहा, ‘भगवान मैं जिस स्थान पर प्राण त्याग रहा हूं, वह शिला में परिवर्तित हो जाए और मैं उसमें मौजूद रहूं और इस शिला पर आपके पवित्र चरणों की स्थापना हो। साथ में जो भी इस शिला पर पिंड और मुंड (मुंडन)

दान करे उसके पूर्वज तमाम पापों से मुक्त होकर स्वर्ग में वास करें। जिस दिन एक भी पिंड और मुंड दान न हो, उस दिन इस क्षेत्र और शिला का नाश हो जाए।’ भगवान ने वैसा ही वर दिया। वर देने के बाद विष्णु ने इतना कसकर दबाया कि शिला पर उनका चरण-चिह्न स्थापित हो गया। आज भी विष्णु के चरण-चिह्न विष्णुपद मंदिर में मौजूद है।
इस मंदिर को 1766 ई0 में जयपुर की महारानी अहिल्याबाई ने बनवाया था।

ब्रह्मïाजी ने पिंडदान किया गया में पिंडदान कब से प्रारंभ हुआ, इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। किंतु यहां के पंडों का मानना है कि सर्वप्रथम सतयुग में ब्रह्माजी ने यहां पिंडदान किया था और तभी से पिंडदान अभी तक निरंतर जारी है। प्राचीन काल में पिंडदान पूरे एक साल तक चलता था। उस दौरान तीर्थयात्री 360 वेदियों पर खोया, जौ तथा गेहूं के आटे व बालू से बने पिंडों का दान किया करते थे। किंतु अब सिर्फ विष्णु मंदिर, अक्षयवट, फलगू व पुनपुन नदी, रामशीला, सीता कुंड, राम कुंड, ब्रह्मï कुंड, पंचायतीर्थों, बोधगया, मंगलागौरी, कागबलि, ब्रह्मïयोनी पहाड़ तथा वैतरणी
सहित मात्र 48 वेदियां ही शेष बची हैं, जहां पिंडदान किया जाता है।

पहले पिंडदान करने का अधिकार सिर्फ पुरुषों को ही था, पर सन् 1984 से मिथिला के पंडितों ने स्त्रियों को भी पिंडदान का अधिकार प्रदान कर दिया। फलत: अब स्त्रियां भी पिंडदान करती हैं। पिंडदान करने वाला हर स्त्री-पुरूष पहले विष्णुपद ‘फलगू’ के तट पसर जाता है और मुंडन कराकर फलगू में स्नान करने के बाद तर्पण करता है। पिंडदान और तर्पण का कार्य अपने पीढ़ीगत ‘गयवाल’
पंडों के माध्यम से लोग कराते हैं। किसी भी श्राद्धकर्त्ता को कम से कम विष्णुपद, फलगू और अक्षयवट में पिंडदान करना अनिवार्य है। फलगू तट पर सीता कुंड है जहां बालू का पिंड देने का विधान है। बालू के पिंड देने के बारे में भी एक कथा प्रचलित है। कहते हैं कि राम, लक्ष्मण और सीता जब पिता दशरथ का पिंडदान करने आये, तब सीता को फलगू तट पर अकेले छोड़कर दोनों भाई पिंड की सामग्री जुटाने चले गये। इसी बीच आकाशवाणी हुई कि पिंडदान का शुभ मुहुर्त्त निकलता जा रहा है। अत: सीता ही पिंडदान करें। इस पर सीता ने सामने प्रवाहित फलगू नदी, पास में चरती गायों, निकट के केतकी पुष्पों और वटवृक्षों को साक्षी मानकर ससुर दशरथ को बालू का ही पिंड बनाकर दान कर दिया। बाद में राम और लक्ष्मण के आने पर उन्होंने यह घटना दोनों भाइयों को सुनायी। दोनों भाइयों को जब इस पर विश्वास न हुआ। तब सीताजी इनके एक-एक साक्षी से
इसकी पुष्टि करने को कहा, किंतु वटवृक्ष को छोड़कर किसी ने गवाही नहीं दी।

फलस्वरूप क्रूद्ध सीताजी ने फलगू को ऊपर से सूखी किंतु धरातल में पानी, गायों को बिष्टा भक्षण करने और केतकी पुष्प को शुभ कार्य से वंचित रहने का शाप और वटवृक्ष को अक्षय होने का वरदान दे दिया। संभवत: इसी से वटवृक्ष हर ऋतु में हरा-भरा ही रहता है।