भक्ति मानव जीवन की वो आवश्यकता है जिसके द्वारा मानव अपूर्णता से पूर्णता की ओर निराशा से आशा की ओर बढ़ता है। भक्ति के अभाव में सब कुछ नीरस, स्वार्थ परक, भावना शून्य है। इसलिए वैदिक साहित्य में भक्ति को आवश्यक बताया है। जिस मानव के अंदर भक्ति नहीं है वो पत्थर के समान है निष्प्राण है उसका जीवन एक पशु के समान व्यतीत होता है वो जीवन के आनन्द से वंचित रह जाता है। भक्ति हीन जीवन नीरस ही नहीं वरन वासनामय होता है जिससे मात्र अशांति ही प्राप्त होती है और अन्त में दुर्गति होती है।
भक्ति के दो स्तम्भ हैं
इनके अभाव में भक्ति संभव नहीं है और भक्ति का विकास हो नहीं सकता। श्रद्धा अर्थात ईश्वर के प्रति पूर्ण निष्ठï। और विश्वास माने-किसी को मन से, ढंग से, लगन से चाहना, उसे मानना और उसके प्रति अपना संपूर्ण समर्पण। जब किसी को अपना मान लिया जाता है तो फिर उसके प्रति निष्ठï का भाव आ जाता है। उसे कुछ देने की इच्छा होती है यह भाव दोनों तरफ से होता है यदि एक तरफ से है तो स्वार्थ है। जब पति-पत्नी एक दूसरे का वरण करते हैं तो उनमें प्रेम भाव समर्पण के कारण होता है एक पत्नी अपना सब कुछ पति के हवाले कर देती है इसके बदले में पति भी उसकी पात्रता के अनुसार उसे अपना सब कुछ दे देता है। जहां पर विश्वास नहीं होता है वहां भी परिवारों में कलह, क्लेश, अशांति, अविश्वास होता है वहां का जीवन नरक के समान होता है।
जब विश्वास और श्रद्धा मिल जाते हैं तो समर्पण का भाव स्वयं ही आ जाता है, किसी एक के अभाव में दूसरा स्वयं ही नष्ट हो जाता है। भक्त भगवान के प्रति अपना सर्वस्व समर्पण कर देता है इसी कारण वह क्या से क्या बन जाता है। एक गली-सड़ी लकड़ी जिस पर दीमक लग रही थी जब वह आग के संपर्क में आ जाती है तो स्वयं भी आगरूप हो जाती है अब उसे तोड़ना संभव नहीं है क्योंकि उसने अपना आग में समर्पण कर दिया। जैसे ईंधन और आग एक हो जाते हैं वैसे ही भक्त और भगवान एक हो जाते हैं उन्हें भक्ति की डोर से श्रद्धा और विश्वास ही बांधता है।
भक्ति एक आनन्द है
भक्ति एक आनन्द है जिसमें सब कुछ देकर के भी एक शांति, परमानंद की अनुभूति होती हैं इसमें भक्त नफा-नुकसान नहीं देखता है। वह तो बस अपने भगवान को हर स्थिति में प्रसन्न देखना चाहता है। गोपियां भगवान श्रीकृष्ण को अपना सब कुछ मानती थीं, और उनके बगैर कटी पतंग सी रहती थीं, उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। जैसे शराबी को शराब के बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता है वैसे ही भक्ति के रस का पान कर लेने के बाद जीवन में फिर और कुछ अच्छा नहीं लगता। भक्ति ऐसी अवस्था है जिसे पाकर मनुष्य पूर्णता को प्राप्त कर लेता है। यह आनन्द की पराकाष्ठï है जिसमें भक्त और भगवान प्रेमी और प्रियतम दोनों एक हो जाते हैं उनमें फिर कोई भेद नहीं रहता है।
भक्ति प्रदर्शन का विषय नहीं है
आज भक्ति के कहीं दर्शन नहीं होते क्योंकि भक्ति के नाम पर प्रदर्शन हो रहा है सच्चा भक्त प्रदर्शन नहीं करता है। सुदामा भगवान श्री कृष्ण के अनन्य भक्त थे वे जीवनभर अभाव ग्रस्त रहे परंतु अपने भगवान के पास सहायता मांगने अपने मन से कभी नहीं गये पत्नि के बार-बार कहने पर बहुत ही मजबूर हो कर गये, इसके बाद क्या हुआ यह सभी जानते है। उनके जीवन में जो उछाल आया परिवर्तन हुआ वह भक्ति के बल पर ही हुआ।
भावना है भक्ति के प्राण
भक्ति में भावना प्रधान है। बगैर भावना के सब कुछ बेकार है। वास्तव में अपने भावों को शुद्ध परिस्कृत, परिमार्जित करने का नाम भक्ति है स्वयं को सुधारने का प्रशिक्षण है भक्ति, स्वयं सफाई करने का नाम भक्ति है क्योंकि रामायण में भगवान स्वयं कहते हैं-
निर्मल मन सोई मोय भावा।
मोय छल कपट छिद्र न भावा॥
अपने मन को हर प्रकार से स्वच्छ, साफ, शुद्ध करना, दूसरों के साथ छल-भेद न करना, सबको ईश्वर का बच्चा समझकर सबके साथ मीठा व्यवहार रखना, और संसार को भगवान का मंदिर समझकर पवित्र कार्य करना ही भक्ति के मार्ग का अनुसरण करना है।
भक्ति मानव जीवन की वह औषधि है जिसके सेवन मात्र से काया-कल्प हो जाता है, मानव को जीनें का ढंग आ जाता है। अत: भक्ति से मानव के संस्कार बनते-संवरते हैं। संस्कारों के सुधरनें से मानव मोक्ष-पथ पर अग्रसर हो जाता है। अत: मानव को भक्ति का आश्रय लेना चाहिए।
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