‘बैंकिंग जैंडर स्टीरियोटाइप्स नाम से आयोजित एक कार्यशाला में मुझे अपने विचार व्यक्त करने थे। जैंडर स्टीरियोटाइप्स यानी लिंग भेद कुप्रथा की जंजीरों को तोडऩे वाला शस्त्र ढूंढऩे की यह कोशिश जाकिर हुसैन कॉलेज व महिला विकास केंद्र (दिल्ली विश्वविद्यालय) ने संयुक्त रूप से की थी। वहां कई प्रतिष्ठित समाजशास्त्री, शिक्षाविद्, लेखक, बुद्धिजीवी व विषय से संबंधित विद्यार्थी उपस्थित थे। अपने उद्घाटन भाषण में मैंने उन रूढि़वादी मान्यताओं पर प्रकाश डाला जिन्हें हम जाने-अनजाने बढ़ावा दे रहे हैं या जिनके कारण लिंग भेद जैसी समस्या की विषबेल फल-फूल रही है। यदि हम वास्तव में चहुंमुखी विकास व उन्नति के सपने को साकार करना चाहते हैं तो हमें इन रूढि़वादी मान्यताओं के बंधनों से मुक्त होना होगा। तथ्यों का खुलासा करने के लिए मैंने पहला उदाहरण टेलीविजन पर दिखाए जा रहे विज्ञापनों का दिया। टेलीविजन एक ऐसा माध्यम है जिसकी पहुंच देश के प्रत्येक कोने व वर्ग में है, इसलिए यह जानना आवश्यक है कि इतना लोकप्रिय व सशक्त माध्यम आखिर लिंग भेद जैसे नाजुक मुद्दे को कैसे प्रस्तुत कर रहा है।
लक्ष्य उजागर करने के लिए मेरे पास दो विशिष्ट विज्ञापनों के उदाहरण थे। लाइफ इंश्योरेंस (जीवन बीमा) व यूनिट ट्रस्ट की योजनाओं से लोगों को परिचित करवाते यह दो विज्ञापन प्रतिदिन स्टारन्यूज चैनल पर कई बार देखने को मिलते हैं। इन दोनों विज्ञापनों के दृश्य व संवाद स्पष्ट रूप से लिंग भेद की मान्यता को उजागर करते हैं। दोनों विज्ञापनों में पारिवारिक बचत का महत्व समझाया गया है। इनके अनुसार प्रस्तुत योजना बचत बेटे की उच्च शिक्षा व बेटी की शादी में सहायता करती है। हमें संदेश दिया जा रहा है कि बेटे के लिए शिक्षा व बेटी के लिए विवाह ही परिवार की प्राथमिकता है।
बेशक यह भेदभाव एक सामाजिक सत्य है, लेकिन क्या इतने व्यापक स्तर पर इसे बढ़ावा देना उचित है? क्या इन नीतियों में परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है? और यह परिवर्तन लाना आखिर किनके हाथ में है। यदि हम सचमुच परिवर्तन चाहते हैं तो जीवन बीमा निगम व यूनिट ट्रस्ट ऑफ इंडिया की बचत योजनाओं से संबंधित विज्ञापनों के संदेश भी बदलने होंगे कि पारिवारिक बचत की यह योजना हमारे बच्चों की शिक्षा व उनके कैरियर को संवारने में सहायक है। यही बचत हमारे बेटे या बेटी के विवाह में भी सहायक हो सकती है।
कुछ दूसरे क्षेत्र व माध्यम भी हैं जो कि लिंग भेद को बढ़ावा दे रहे हैं। जैसे कि कॉलेज फैस्टिवल या फिर धार्मिक समारोह। अधिकतर कॉलेजों के समारोहों में फैशन शो बेहद लोकप्रिय कार्यक्रम होता है। रैम्प पर डिजाइनर परिधानों का प्रदर्शन करती लड़कियों को देखकर दर्शकों के बीच बैठे मनचले लड़के शोर व सीटियों द्वारा खुशी जाहिर करते हैं। क्या सचमुच कॉलेज के वार्षिकोत्सव अथवा भव्य समारोहों में फैशन शो एक आवश्यक हिस्सा होना चाहिए? इसकी अपेक्षा समूह गान, वाद-विवाद प्रतियोगिता, रंगमंच प्रस्तुति अथवा प्रश्नोत्तरी जैसी क्रियात्मक गतिविधियों में लड़कियों की बराबर साझेदारी देखकर मुझे अधिक संतोष व प्रसन्नता होगी। हम कह सकते हैं कि उन्हें अपनी चाल अथवा नारीत्व प्रदर्शन की अपेक्षा हरफनमौला गतिविधियों में अधिक ध्यान देना चाहिए। धार्मिक आयोजनों में भी परिस्थितियां कुछ भिन्न नहीं है।
अधिकतर हिन्दू त्योहारों में महिलाएं ही अपने पति व परिवार के लिए व्रत व उपवास रखती हैं। पति के स्वास्थ्य व दीर्घायु की कामना करने की जिम्मेदारी भी महिलाओं के ही खाते में दर्ज है। पुरुषों के लिए एक भी व्रत अथवा उपवास नहीं है जो वह अपनी पत्नी के लिए रखे। दूसरी ओर आखिर क्यों हम पर्दा प्रथा व बुर्का पहनने जैसे नियमों को आज भी मान्यता दे रहे हैं? क्या स्त्री को यह अधिकार नहीं है कि वह सूर्य को प्रत्यक्ष निहार सके। न कोई छात्र संघ और न ही कोई धार्मिक संगठन इस तरह की सामाजिक कुरीतियों को खत्म करने हेतु प्रयासरत है। एक पूरे समाज को विचारधारा में परिवर्तन लाने के लिए व्यापक स्तर पर सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता है।
फिलहाल हम लोग लिंग भेद की इन सभी परंपराओं को बढ़ावा देने के साथ-साथ अपनी ही बेटियों को उनकी संपूर्ण क्षमताओं का प्रयोग करने व पहचान बनाने से रोक रहे हैं। हम भूल रहे हैं कि हमें अपनी बेटियों को अच्छी शिक्षा देनी है, ताकि उनके ससुराल वालों को एक पढ़ी-लिखी समझदार बहू मिल सके और इसी तरह हमारे बेटों को भी शिक्षित व समझदार जीवन संगिनी मिले। हमें कब अहसास होगा कि समाज से जो पाने की उम्मीद हम करते हैं वैसा ही हमें समाज को लौटाना भी होगा। हमारे आचार और विचार में दोहरापन है। क्या यह पाखंड नहीं है? आइए सोचें कि हमें इस बात के लिए किसे दोष देना चाहिए?
