Badrinath Priest
Badrinath Priest

Badrinath Priest: हर-हर महादेव के उद्घोष के बीच 25 अप्रैल को केदारनाथ धाम के कपाट खोल दिए गए हैं। केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री हिन्दू धर्म के वो पवित्र चार धाम हैं, जिनकी सफल यात्रा से मनुष्य अपने इस जन्म के पाप कर्मों से मुक्त हो, जीवन-मृत्यु के बंधन से भी छूट जाता है। प्रत्येक वर्ष हजारों की संख्या में श्रद्धालु चार धाम की पवित्र यात्रा करते हैं। इसके लिए महीनों से तैयारियां शुरू हो जाती हैं। लेकिन, चार धाम की ये यात्रा प्रत्येक वर्ष छह महीनों के लिए ही जारी रहती है, जबकि बर्फबारी के चलते छह महीनों के लिए रोक दी जाती है। इस दौरान मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं। आपने केदारनाथ और बद्रीनाथ को लेकर कई वीडियो जरूर देखे होंगे, लेकिन आज अपने इस लेख में हम आपको केदारनाथ और बद्रीनाथ के पुजारियों के बारे में बताएंगे। आखिर इन पुजारियों को क्या कहा जाता? और वे किस समुदाय से होते हैं?

दक्षिण भारतीय होते हैं पुजारी

Badrinath Priest
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बद्रीनाथ और केदारनाथ मंदिर के मुख्य पुजारी को रावल कहा जाता है, जो दक्षिण भारतीय राज्यों से आते हैं। रावल को शंकराचार्य के कुल का वंशज कहा जाता है। शंकराचार्य ने ही दक्षिण भारतीय पुजारियों को हिमालय के मंदिर में नियुक्त करने की परंपरा की शुरुआत की थी। जो आज भी चली आ रही है। बद्रीनाथ धाम में रावलों को भगवान के रूप में पूजा जाता है और देवी पार्वती का स्वरुप माना जाता है। जिस दिन मंदिर के कपाट खोले जाते हैं उस दिन रावण देवी पार्वती की तरह श्रृंगार कर गर्भगृह में प्रवेश करते हैं। इस अनुष्‍ठान को देखना पूरी तरह से वर्जित होता है।

अलग है बद्रीनाथ-केदारनाथ की पूजा पद्धति

बद्रीनाथ धाम और केदारनाथ धाम की पूजा पद्धति अलग है। बद्रीनाथ में रावल खुद मंदिर में भगवान नारायण की पूजा करते हैं। जबकि केदारनाथ में पूजा-अर्चना के लिए रावल पुजारी को अधिकृत करते हैं। बद्रीनाथ धाम के मुख्य रावल केरल के नंबूदरी ब्राह्मण होते हैं। जिन्हें मुख्य रावल चुना जाता है, उनके गले में पैदाइशी जनेऊ का निशान होता है। जबकि केदारनाथ के रावल को महाराष्ट्र या कर्नाटक से चुना जाता है।

कौन होते हैं सरोला ब्राह्मण?

रावलों की अनुपस्थिति में सरोला ब्राह्मण मंदिर में दिशानिर्देश के अनुसार, पूजा-अर्चना करवाते हैं। सरोला ब्राह्मण रावलों के सहयोगी माने जाते हैं। सरोला ब्राह्मण स्थानीय डिमरी समुदाय के होते हैं। कहा जाता है कि डिमरी भी मूलत: दक्षिण भारतीय ही हैं, जो शंकराचार्य के साथ ही सहायकों के तौर पर आए थे और कर्णप्रयाग के पास स्थित डिम्‍मर गांव में बस गए। जिसके बाद उन्हें डिमरी समुदाय के नाम से जाना जाने लगा। बदरीनाथ धाम में भोग बनाने का अध‍िकार डिमरी ब्राह्मणों को ही दिया गया है।

वर्तमान में गृहलक्ष्मी पत्रिका में सब एडिटर और एंकर पत्रकारिता में 7 वर्ष का अनुभव. करियर की शुरुआत पंजाब केसरी दैनिक अखबार में इंटर्न के तौर पर की. पंजाब केसरी की न्यूज़ वेबसाइट में बतौर न्यूज़ राइटर 5 सालों तक काम किया. किताबों की शौक़ीन...