जैसे-जैसे समय व्यतीत हो रहा था, हमारी धड़कनें भी बढ़ती जा रही थीं। ट्रैफिक जाम की वजह से ट्रेन छूटने का डर हमें सता रहा था। जाम खुलते ही हम दोनों आनन-फानन में स्टेशन पहुंचे। हमारे बैठते ही ट्रेन ऐसे चल पड़ी, जैसे हमारा ही इंतजार था इसे। सामने बैठे सज्जन ने कहा, ‘आप एकदम सही समय पर आए। जरा सा और विलंब होने पर आज आपकी गाड़ी छूट सकती थी।’ राहुल मुस्कराकर बोले, ‘ट्रैफिक जाम की वजह से आज हमारी ट्रेन सच में छूट जाती।’ ‘ट्रैफिक तो दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है दिल्ली में… बाय द वे, मेरा नाम अमित है। एक छोटा सा खानदानी बिजनेस है। उसी सिलसिले में नागपुर जा रहा हूं, वाइफ ने भी साथ आने का प्रोग्राम बना लिया और बस हम लोग हो लिए रवाना।’ अपरिचित होने के बावजूद सभी के चेहरे पर एक चिरपरिचित मुस्कान दौड़ पड़ी। तभी बगल में बैठी उनकी धर्मपत्नी ने पूछा, ‘आप लोग भी नागपुर जा रहे हैं?’ अब मैंने मोर्चा संभालते हुए कहा, ‘नहीं, हम लोग झांसी, मेरे भाई की शादी में जा रहे हैं।’ ‘इसका मतलब भाईसाहब… आप साले साहिब की शादी में जा रहे हैं।’ उन्होंने पूछा या व्यंग्य किया, पता नहीं, लेकिन राहुल को शायद ‘भाईसाहब’ कहकर संबोधित करना खास जंचा नहीं, इसलिए वे बोले, ‘आप मेरे नाम से बुलाएंगे तो मुझे ज्यादा अच्छा लगेगा।’

इस बात पर वे बोले, ‘हां! क्यों नहीं… पर मैं आपका नाम पूछना ही भूल गया, सॉरी। ‘राहुल। आप दोनों बातें कर रहे थे, तब सुना था मैंने।’ तपाक से उनकी मैडम आत्मविश्वास के साथ ऐसे चहकीं, जैसे किसी पहेली का जवाब दिया हो और वह भी सौ फीसदी सही।
 
‘हां, तुमने तो सुना ही होगा, आखिर शाहरुख ने राहुल नामक किरदार की भूमिका सबसे ज्यादा फिल्मों में अभिनित की है।’ अमितजी व्यंग्यात्मक स्वर में बोले। मैंने उत्सुकतापूर्वक पूछा, ‘शाहरुख आपका भी फेवरेट है?’ ‘क्या आपका भी? सॉरी… हमने एक-दूसरे को अपना नाम नहीं बताया। मेरा नाम शिखा है और आपका?’ ‘सिमरन, ‘मैंने मुस्कराते हुए कहा तो दोनों  चौंक पड़े, ‘दरअसल हम दोनों ने शादी के बाद जो सबसे पहली मूवी साथ देखी, वह ‘डीडीएलजे’ थी। हम दोनों को बहुत पसंद आई थी शाहरुख-काजोल की जोड़ी, इसलिए ये मुझे सिमरन कहकर बुलाने लगे।’
 
‘और आप इन्हें राहुल, अब अमितजी छेडऩे की मुद्रा में बोले। ‘अरे! नहीं भई, मेरा नामकरण तो बचपन में ही राहुल हो चुका था।’ थोड़ा झेंपते हुए बोले। ‘ओह! तो इसका मतलब ये हुआ कि भाभी जी ने आपका नाम सुनकर ही शादी की है।’
 
मैंने शरमाकर राहुल की ओर देखा और सब ठहाका लगाकर हंसने लगे। हम सब थोड़ी ही देर में बहुत घुल-मिल गए थे। वहीं हमारी साइड वाली बर्थ पर एक नव-विवाहित जोड़ा बैठा था, जो अपने में ही खोया था। उसे किसी से कोई मतलब नहीं  था। जब भी ट्रेन रुकती, कुछ न कुछ खाने का सामान उस लड़की का पति ले आता। फिर दोनों बड़े प्यार से दुनिया की परवाह किए बगैर एक-दूसरे को अपने हाथों से खिलाते। ये देखकर हम सब थोड़ा असहज जरूर महसूस कर रहे थे, लेकिन किसी ने अपनी असहजता जाहिर नहीं होने दी। थोड़ी देर उपरांत ट्रेन एक स्टेशन पर रुकी। राहुल और अमितजी मेरे और शिखा के लिए चाय लेकर आए। शिखा ने कुछ नमकीन वगैरह निकाली और हम दोनों को भी दी। हम उन लोगों से इतना घुलमिल गए थे कि किसी तरह का कोई संदेह हमें उन पर नहीं हुआ। वैसे भी दोनों अच्छे सभ्य घर के लग रहे थे। तभी साइड बर्थ पर बैठे श्रीमान भी अपनी नई-नवेली श्रीमती के लिए चाय ले आए। दोनों एक ही कप से बारी-बारी चाय पीने लगे। एक-दो बार तो श्रीमान आशिकजी ने अपनी प्रेमिका स्वरूपा पत्नी को अपने हाथों चाय पिलाई। यहां हम लोग डर रहे थे, कहीं गरम-गरम चाय उन दोनों में से किसी के ऊपर न गिर जाए। इस बार तो हमने न चाहते हुए भी एक-दूसरे की तरफ उनकी इस बेशर्मी और दु:साहसपूर्ण कार्य को देखकर, आंखों ही आंखों में उनका विरोध भी किया। मेरे मन में विचार आया, आखिर हमारी भी कभी नई-नई शादी हुई थी। हम भी कम रोमांटिक नहीं थे, लेकिन हमने मर्यादा की सीमाओं का उल्लंघन कभी नहीं किया था। क्या आजकल मर्यादा की सीमाएं ही बदल गई हैं या अब लोगों का नज़रिया बदल गया है, क्या नए प्रेमी-प्रेमिका प्रेम को भी शोपीस का आइटम समझने लगे हैं? पता नहीं।

 
खैर, हम चारों फिर से अपनी गुफ्तगू में मसरूफ हो गए। हमने आपस में फोन नंबर का भी आदान-प्रदान किया। हमें झांसी उतरना था, इसलिए हम शिखा और उसके पति से विदा लेकर झांसी में सामान उतारने लगे। जब हम सामान लेकर
उस प्रेमी-जोड़े की बगल से गुजरे तो अपना फेविकोल का जोड़ तोड़ते हुए वह लड़का मुस्कराते हुए बड़े अदब के साथ सामान उतारने में हमारी सहायता करने लगा। उसके इस व्यवहार ने हमें थोड़ा चकित कर दिया। कहां तो अभी तक बीवी के पल्लू से बंधा बैठा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो किसी को देखा ही न हो।
 
कौन आ रहा है, कौन जा रहा है, इसे क्या। अब मदद मांगे बगैर हमारी सहायता के लिए आगे आया, जबकि वहीं शिखा और अमितजी दूर से ही बाय करके
मोबाइल पर बातें करने में लग गए। हमें प्रेमी-युगल के इस व्यवहार ने थोड़ा प्रभावित किया।
 
खैर… हम लोग घर आकर सो गए। सुबह-सुबह मोबाइल की करकराती आवाज ने हमारी नींद तोड़ दी। राहुल गहरी नींद सो रहे थे। फोन मैंने उठाया कोई अपरिचित नंबर था। फोन पर मिली सूचना ने मेरे होश ही उड़ा दिए, घबराकर राहुल को जगाया, ‘राहुल… हमारा सूटकेस… जिसमें सारे जेवरात रखे थे, हम ट्रेन में ही भूल आए।’
 
सुनते ही राहुल के चेहरे पर भी हवाइयां उड़ गईं, ‘क्या कह रही हो? तुमने ठीक से सामान चेक तो किया है न?’ ‘राहुल, साइड में जो प्रेमी-जोड़ा बैठा था न, उसी लड़के का फोन आया था। उसे शक हुआ कि ये सूटकेस हमारा हो सकता है, इसीलिए पूछ रहा था कि क्या वह उसे अपने पास रख ले। फिर सूटकेस हमारे पास भिजवा देगा। ये किसी और के हाथ लग गया तो पता नहीं मिलेगा भी कि नहीं हमें। ‘लेकिन हमारा नंबर कैसे मिला उन्हें?’ ‘शिखा लोगों से हमारा नंबर लिया था।’
 
‘क्या शिखा या अमित का फोन आया था?’
 
‘नहीं… वह बता रहा था कि जब शिखा और अमितजी हमारा सामान वहीं छोड़कर,
अपना सामान लेकर जा रहे थे, उसे शक हुआ कि ये सामान हमारा हो सकता है। तब उसने उन लोगों से हमारा नंबर लेकर हमें फोन किया।’ राहुल ने चैन की सांस ली। न जाने क्यों हमें यकीन हो चला कि अब हमारा सामान सुरक्षित हाथों में है और हमें बहुत जल्द मिल जाएगा। हम दोनों मौन होकर शायद एक ही बात मन में सोच रहे थे, ‘इंसान के अंदर छिपी इंसानियत को पहचानने के लिए कुछ क्षणों का साथ पर्याप्त नहीं होता कई बार।
 
जरूरत पर जो गैरों के काम आए, वही अच्छा और सच्चा इंसान है, बाकि सब दिखावा है, स्वार्थपूॢत है।’ एक बार पुन: उन दोनों ने हमारे अंदर विचारों का मंथन उत्पन्न कर दिया, कौन सही-कौन गलत?