अचानक गली में लक्ष्मीजी मिल गई। मैंने भक्तिभाव से प्रार्थना की- ‘आइए घर पधारिए। कभी तो मुझ पर भी कृपा करिए। सच कहता हूं मैं बहुत दुखी जीव हूं। लक्ष्मीजी बोली- ‘आपको तो पता ही है मेरे और सरस्वती के वैर का, इसलिए सरस्वती के उपासक कभी पनप नहीं सकते। आप तो कविताएं लिखो और मौज उड़ाओ।
मैं बोला- ‘केवल कविताओं के भरोसे मौज नहीं हुआ करती। जब तक आपके पांव मेरे घर में नहीं पड़ेंगे, कल्याण नहीं होगा। आपको तो किसी न किसी के घर जाना ही है। मेरे यहां ही चलिए। ‘तुम शायद गरीबी मिटाने की बात कर रहे हो? गरीबी मिटाने का काम सरकार का है। यदि गरीबी मैं मिटाने लगी तो फिर सरकार क्या करेगी? तुम सरस्वती के भक्त हो, उसकी सेवा का फल भोगते रहो, कविराज! लक्ष्मी ने कहा।
यह कहकर वे जाने लगीं तो मैं उन्हें रोकता हुआ बोला- ‘लक्ष्मी जी, कृपया रुकिए। मेरी यह समझ में नहीं आ रहा कि लक्ष्मी और सरस्वती की पालिटिक्स में मुझ गरीब की शामत क्यों आई है? फिर यह बात तो पुरानी भी हो गई। इक्कीसवीं सदी में ये बातें अच्छी भी नहीं लगती। आप इन दकियानूसी बातों का त्याग करिए और चलिए मेरे घर।
‘कवि जी, मुझे मूर्ख बनाने की कोशिश मत करिए। आपकी सरस्वती कहती है कि मैं बड़ी हूं। मैं कहती हूं कि मैं। अब तुम ही ईमानदारी से बता दो बड़ा कौन है? यश की भूखी लक्ष्मी ने भीतर की बात उगली। मैंने हाथ बांधकर कहा- ‘बड़ी तो आप ही हैं महारानी लक्ष्मी। सरस्वती की पूजा करके मुझे मिला क्या है? सच तो यह है कि लक्ष्मी जी, आपकी कृपा हो जाए तो मैं सरस्वती को भूल जाऊं। यदि आप पधारें तो मैं भी गर्व से सिर उठा सकूंगा।
लक्ष्मी ने मेरे दाढ़ी बढ़े चेहरे को देखा और बोली- ‘तुम बड़े चतुर हो कवि! गरीबी तो मिटाऊंगी मैं और नाम लोगे कि सरकार के बीस सूत्र से मिटी है। आप तो कविताएं लिखो, चारण-भाटों की तरह। ‘अजी खड्डे में गिरे सरकार और बीस सूत्री कार्यक्रम। आप तो मुझ पर कृपा करिए। मैं प्रसन्नचित होकर बोला।
लक्ष्मी बोली- ‘कवि सुन। मैं तो ठहरी सफेद लक्ष्मी। मेरे रूप में एक काली लक्ष्मी और घूमती-फिरती है। तुम उसे खुश करो। छप्पर फाड़कर तो वही देती है। मैं तो मेहनत-मजदूरी करने से मिलती हूं। लोग आजकल कामचोर व मक्कार हो गए हैं। काम करते रोते हैं और चाहते यह हैं कि लक्ष्मी की कृपा हो जाए। ऐसा नहीं हुआ करता।
आप यदि ईमानदारी से लिखो-पढ़ो तो मैं अपने आप आ जाऊंगी। ढ़ीला-ढ़ाला कुरता-पायजामा पहनकर, झोला लटकाकर तथा दाढ़ी बढ़ाकर घूमने से लक्ष्मी नहीं मिलती कविजी! मेहनत करना सीखो।
मैंने अपनी बत्तीसी निकालकर कहा- ‘बात तो आप सत्य कह रही हैं। काम-चोरी में तो मैं अव्वल हूं। चलो, यह बताइये उस काली लक्ष्मी से मैं कहां मिल सकता हूं? ‘काली लक्ष्मी! काली लक्ष्मी तो कवि झूठ बोलने से, तिकड़मबाजी से और भ्रष्टाचार से मिला करती हैं। इसके लिए ईमानदारी त्यागो, नारद विद्या शुरू करो तथा नम्बर दो के धंधे भी करो। काली लक्ष्मी अपने आप आ जाएगी। जहां तक मेरा सवाल है। मैं तो मेहनत करने से ही मिला करती हूं। मैंने हाथ जोड़कर कहा- ‘जब तक काली लक्ष्मी नहीं आती हैं तब तक आप ही पधारिए।
‘बड़े होशियार हो कवि! हमें आपस में लड़ाना चाहते हो। उधर देखो। सेठ किरोड़ीमल की हवेली की तरफ इशारा करके लक्ष्मीजी ने कहा- ‘वहां है काली लक्ष्मी का निवास। यह सेठ काली लक्ष्मी का अनन्य भक्त है। एक नम्बर का बेईमान और मक्कार। झूठ और पाप का थोक व्यापार करता है। लक्ष्मीजी मुझे समझाती हुई बोलीं।
मैंने कहा- ‘परन्तु मेरी समझ में आपका महत्व क्या है, यह नहीं आ रहा। यदि आप असली लक्ष्मी हैं तो फिर आपका लक्ष्मी होने का अर्थ क्या है इस युग में? आप स्वयं यह स्वीकार कर रही हैं कि इस युग में लोग काली लक्ष्मी पूजते हैं। सभी जगह जब उसका मान-सम्मान होता है तो फिर आप इधर-उधर क्यों भटकती फिरती हो? जगह-जगह अपना अपमान कराने से तो अच्छा है कि आप अपने घर में बैठें।
मेरी बात पर लक्ष्मी जी तनिक नाराज होकर बोलीं- ‘तुम लकीर के फकीर ही ठहरे कवि! इन लक्षणों से तो तुम्हें न तो सफेद लक्ष्मी मिलेगी और न काली लक्ष्मी।
‘रोने में तो कोई कमी ही नहीं है देवीजी! आपके राज में सत्य बोलने वाला आदमी भूखा मरता है और लुच्चे-लफंगे मौज उड़ाते हैं। ईमानदारी से काम करने वालों के बच्चे भूखे मरते हैं तो फिर आपकी पूजा का लाभ क्या है?
लक्ष्मी जी क्रोधित हो गई। वे मुझे धमकाती हुई बोलीं- ‘ज्यादा बक-बक मत करो। मेरी बात को समझो। मैं तो उस भक्त के घर में निवास करती हूं जो मेहनत से चार पैसे कमाते हैं। तुम कल्पना लोक में उडऩे वाले प्राणी हो, ईमानदारी का महत्व भला तुम क्या जानो?
मैं भी तनिक तैश में आकर बोला- ‘तो लक्ष्मी जी! सुनिए, मैं आपको अपने घर ले जाकर करूं क्या? मैं खुद भूखा हूं। मुझे तो भरपेट रोटियां चाहिए। आप कहती हैं पहले मेहनत करो। जब मक्कारी व चालाकी से काम हो जाता है तो ईमानदारी की माथाफोड़ी से क्या लाभ? आपकी यह बकवास अब कोई नहीं सुनने वाला। मैं तो आपको देवता समझकर मान से घर ले जाना चाहता था, परन्तु आप तो उल्टे मुझे ही उपदेश देने लगीं। अच्छा है आप इस शहर में भटकती फिरें। मेरे बाप का क्या जाता है? बहुत बड़ा शहर है। हां, भटकने पर भी जगह न मिले तो मेरे घर आ जाना। सरस्वती से वैरभाव रखने से इस युग में पार नहीं पड़ेगी। थोड़ी समझदारी से काम लो। व्यर्थ की हेकड़ी में कुछ नहीं धरा।
नाराज होकर लक्ष्मी जी चली गई और मैं अपने घर आ गया। खाट पर टांग पसारी कि पत्नी बोली- ‘लो आओ लक्ष्मी जी पूज लें। मै बोला- ‘तुम पूज लो। मैं तो सोता हूं। नींद आ रही है। लक्ष्मी जी की गरज पड़ेगी तो अपने आप आ जाएंगी। लक्ष्मी से मेरी आज झड़प हो चुकी है। मैं तो उससे बात भी नहीं करना चाहता। ‘क्यों पागलों की सी बातें करते हो? बारह महीनों का बड़ा त्यौहार है। लक्ष्मीजी नाराज हो गई तो गरीबी की सीमा रेखा के नीचे गहरे जा गिरेंगे। ‘देखो, मुझे परेशान मत करो। पूजन-वूजन करना है तो तुम कर लो। लक्ष्मी को छप्पर फाड़ कर देना होगा तो अपने आप दे देंगी। मैं बोला।
तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया। मैंने कहा-‘कौन है? ‘मैं सफेद लक्ष्मी। बाहर से स्त्री कण्ठ ने जवाब दिया।
मैं क्रोधित होकर बोला- ‘मुझे सफेद लक्ष्मी की जरूरत नहीं है। काली बनकर आ सको तो आ जाओ। नहीं तो किसी दूसरे को बेवकूफ बनाओ। ‘आप से अच्छा और दूसरा बड़ा बेवकूफ इस शहर में कोई है नहीं कवि। मुझे आदर दो। मैं तुम्हारे घर को धन-धान्य से भर दूंगी।
मैंने यह सुनकर किवाड़ खोल दिए। इस घटना के बाद से आज तक कलम घिस रहा हूं और मुश्किलों में पेट भरता हूं। सफेद लक्ष्मी मेरे घर से कैसे निकलें। इसका प्रयास व उपाय खोजता रहता हूं। पर अभी तक सफलता नहीं मिल पाई है।
