स्वामी विवेकानंद ने धर्म में सर्मपण के भाव को प्रमुखता दी है। वे कहते थे कि जिस धर्म में भक्ति नहीं होगी वह धर्म, धर्म नहीं रहेगा।
ईश्वर प्रेम का ही दूसरा रूप है। प्रेम के भी कई रूप होते हैं। जब कोई बच्चा भोजन या सुरक्षा के लिए अपने पिता की ओर देखता है तो वह शांत प्रेम का प्रतीक है। यह प्रेम हमारे भीतर सेवा भाव जगाता है। एक प्रेम सखा भाव से होता है। वहां हम सामने वाले व्यक्ति को अपने समान जान कर प्रेम देते हैं। उसे अपना मित्र जान कर सुख-दुख बांटते हैं। फिर प्रेम का एक रूप है ‘मातृत्व’। इस रूप में हम प्रभु को शिशु मान कर पूजते हैं। जैसे भक्त प्रभु के बालरूप की पूजा करते हैं। एक प्रेम पति-पत्नी के बीच होता है। एक रूप में हम प्रभु को निराकार रूप में देखते हैं तो एक रूप में उन्हें अपनी इंद्रियों के द्वारा पाने की कोशिश करते हैं।

मनुष्य प्रभु की भक्ति चाहे जिस रूप में करे, परंतु उसे प्रभु से कुछ मांगना नहीं चाहिए। वह धर्म का निम्नतम रूप है। अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए घर, मकान व गाड़ी आदि मांगना भक्ति नहीं कहा जा सकता। भक्ति ही अपने-आप में ऐसी कामना है, जो स्वर्ग से ऊंची है।
हमें हमेशा इंद्रियों के सुख के पीछे नहीं भागना चाहिए। ऐसा करने वाले केवल मूर्ख कहलाते हैं। इसके आगे स्वामी जी ने कहा-
“धर्म के दो पक्ष होते हैं- सकारात्मक तथा नकारात्मक । जब कोई कहता है कि मैं इसे ही सत्य मानता हूं कि प्रभु हमें मुक्त कर सकते हैं तो यह सकारात्मक सोच है। यदि कोई यह कहता है कि हमारे अलावा और कोई धर्म सच्चा नहीं है तो वह नकारात्मक बात हुई। समर्पण की बात करें तो मनुष्य का मन ही सबसे स्थूलतः रूप है, शरीर मन का ही एक बड़ा रूप है। मन सूक्ष्मतम स्तरों से बना है और शरीर अत्यंत स्थूल स्तरों से बना है। हमें अपने इंद्रियों के आनंद से बाहर आ कर ही प्रभु का सच्चा आनंद मिल सकता है। जो लोग समर्पण का भाव रखते हैं, वही प्रभु को देख सकते हैं और सोच सकते हैं।

समर्पण के भाव को एक त्रिकोण के रूप में देख सकते हैं। उसका पहला गुण यह है कि वह कभी कुछ मांगता नहीं। जो व्यक्ति समर्पित है, वह कुछ भी मांगने को तैयार नहीं होगा क्योंकि उसे समर्पण में ही आनंद मिल जाता है। समर्पित भाव से जीने वाले व्यक्ति के जीवन में कभी भय नहीं होता। वह किसी असफलता से भी नहीं डरता। अपने ही समर्पण में मग्न रहता है। इस त्रिकोण का सबसे प्रमुख कोण वह समर्पण है, जो केवल त्याग की भावना से किया गया है, प्रेम की भावना से किया गया है क्योंकि वही भाव पारस्परिक है। उसी समर्पित भाव में प्रभु की कृपा बसी है। “

