Beton Vaalee Vidhava by Munsi Premchand
Beton Vaalee Vidhava by Munsi Premchand

फूलमती रात को भोजन करके लेटी थी कि उमा और दया उसके पास जाकर बैठ गये। दोनों ऐसा मुँह बनाये हुए थे, मानो कोई भारी विपत्ति आ पड़ी है। फूलमती ने सशंक होकर पूछा- तुम दोनों घबराये हुए मालूम होते हो?

उमा ने सिर खुजलाते हुए कहा- समाचार-पन्नों में लेख लिखना बड़े जोखिम का काम है अम्मा, कितना ही बचकर लिखो, लेकिन कहीं-न-कहीं पकड़ हो ही जाती है। दयानाथ ने एक लेख लिखा था। उस पर पाँच हजार की जमानत माँगी गयी है। अगर कल तक जमानत न जमा कर दी गयी, तो गिरफ्तार हो जायेंगे और दस साल की सजा ठुक जायेगी।

फूलमती ने सिर पीटकर कहा- तो ऐसी बातें क्यों लिखते हो बेटा? जानते नहीं आजकल हमारे दुर्दिन आये हुए हैं। जमानत किसी तरह टल नहीं सकती? दयानाथ ने अपराधी-भाव से उत्तर दिया–मैंने तो अम्मा ऐसी कोई बात नहीं लिखी थी लेकिन किस्मत को क्या करूँ। हाकिम जिला इतना कड़ा है कि जरा भी रियायत नहीं करता। मैंने जितनी दौड़-धूप हो सकती थी, वह कर ली। तो तुमने कामता से रुपये का प्रबंध करने को नहीं कहा?

उमा ने मुँह बनाया- उनका स्वभाव तो तुम जानती हो अम्मा, उसे रुपये प्राणों से प्यारे हैं। इन्हें चाहे काला पानी ही हो जाये, वह एक पाई न देंगे। दयानाथ ने समर्थन किया- मैंने तो उनसे इसका जिक्र ही नहीं किया। फूलमती ने चारपाई से उठते हुए कहा- चलो, मैं कहती हूं देगा कैसे नहीं? रुपये इसी दिन के लिए होते हैं कि गाड़ कर रखने के लिए?

उमानाथ ने माता को रोककर कहा- नहीं अम्मा, उनसे कुछ न कहो। रुपये तो न देंगे, -उलटे और हाय-हाय मचाएँगे। उनको अपनी नौकरी की खैरियत मनानी है, इन्हें घर में रहने भी न देंगे। अफसरों में जाकर खबर दे दें तो आश्चर्य नहीं। फूलमती ने लाचार होकर कहा- तो फिर जमानत का क्या प्रबंध करोगे? मेरे पारा तो कुछ नहीं है। हां मेरे गहने हैं, इन्हें ले जाओ, कहीं गिरवी रखकर जमानत दे दो। और आज से कान पकड़ो कि किसी पत्र में एक शब्द भी न लिखोगे। दयानाथ कानों पर हाथ रखकर बोला- यह तो नहीं हो सकता अम्मा कि तुम्हारे जेवर लेकर मैं अपनी जान बचाऊँ। दस- पांच साल की कैद ही तो होगी, झेल लूँगा। यहीं बैठा-बैठा क्या कर रहा हूँ।

फूलमती छाती पीटते हुए बोली- कैसी बातें मुँह से निकालते हो बेटा, मेरे जीते-जी तुम्हें कौन गिरफ्तार कर सकता है। उसका मुँह झुलस दूँगी। गहने इसी दिन के लिए हैं या और किसी दिन के लिए। जब तुम्हीं न रहोगे, तो गहने लेकर क्या आग में झोंकूगी।

उसने पिटारी लाकर उसके सामने रख दी।

दया ने उमा की ओर जैसे फरियाद की आँखों से देखा और बोला- आपकी क्या राय है भाई साहब? इसी मारे मैं कहता था, अम्मा को जताने की जरूरत नहीं। जेल ही तो हो जाती या और कुछ?

उमा ने जैसे सिफारिश करते हुए कहा- यह कैसे हो सकता था कि इतनी बड़ी वारदात हो जाती और अम्मा को खबर न होती। मुझसे यह नहीं हो सकता था कि सुनकर पेट में डाल लेता, मगर अब करना क्या चाहिए, यह मैं खुद निर्णय नहीं कर सकता। न तो यही अच्छा लगता है कि तुम जेल जाओ और न यही अच्छा लगता है कि अम्मा के गहने गिरवी रखे जाये।

फूलमती ने व्यथित कंठ से पूछा- क्या तुम समझते हो, मुझे गहने तुमसे ज्यादा प्यारे हैं? मैं तो अपने प्राण तक तुम्हारे ऊपर न्यौछावर कर दूँ गहनों की बिसात ही क्या है।

दया ने दृढ़ता से कहा- अम्मा, तुम्हारे गहने तो न लूँगा, चाहे मुझ पर कुछ ही क्यों न आ पड़े। जब आज तक तुम्हारी कुछ सेवा न कर सका, तो किस मुँह से तुम्हारे गहने उठा ले जाऊँ? मुझ जैसे कपूत को तो तुम्हारी कोख से जख्म ही न लेना चाहिए था। सदा तुम्हें कष्ट ही देता रहा।

फूलमती ने भी उतनी ही दृढ़ता से कहा- अगर यों न लोगे, मैं खुद जाकर इन्हें गिरवी रख दूँगी और खुद हाकिम जिला के पास जाकर जमानत जमा कर आऊंगी, अगर इच्छा हो तो यह परीक्षा भी ले लो। आंखें बंद हो जाने के बाद क्या होगा, भगवान् जानें, लेकिन जब तक जीती हूं तुम्हारी ओर कोई तिरछी आंखों से नहीं देख सकता।

उमानाथ ने मानो माता पर एहसान रखकर कहा- अब तो तुम्हारे लिए कोई रास्ता न रहा दयानाथ। क्या हर्ज है, ले लो, मगर याद रखो, ज्यों ही हाथ में रुपये आ जाये, गहने छुड़ाने पड़ेंगे। सच कहते हैं, मातृत्व दीर्घ तपस्या है। माता के सिवाय इतना स्नेह और कौन कर सकता है? हम बड़े अभागे हैं कि माता के प्रति जितनी श्रद्धा रखनी चाहिए उसका शतांश भी नहीं रखते।

दोनों ने जैसे बड़े धर्मसंकट में पड़कर गहनों की पिटारी सँभाली और चलते बने। माता वात्सल्य-भरी आंखों से उनकी ओर देख रही थी और उसकी सम्पूर्ण आत्मा का आशीर्वाद जैसे उन्हें अपनी गोद में समेट लेने के लिए व्याकुल हो रहा था। आज कई महीने के बाद उसके भग्न-मातृ-हृदय को अपना सर्वस्व अर्पण करके जैसे आनंद की विभूति मिली। उसकी स्वामिनी कल्पना इसी त्याग के लिए, इसी आत्मसमर्पण के लिए जैसे कोई मार्ग ढूंढ़ती रहती थी। अधिकार या लोभ या ममता की वहाँ गंध तक न थी। त्याग ही उसका आनंद और त्याग ही उसका अधिकार है। उसका अपना खोया हुआ अधिकार पाकर अपनी सिरजी हुई प्रतिमा पर अपने प्राणों की भेंट करके वह निहाल हो गयी।

तीन महीने और गुजर गये। माँ के गहनों पर हाथ साफ करके चारों भाई उसकी दिलजोई करने लगे थे। अपनी स्त्रियों को भी समझाते थे कि उसका दिल न दुखाए। अगर थोड़े से शिष्टाचार से उसकी आत्मा को शांति मिलती है, तो इसमें क्या हानि है। चारों करते अपने मन की, पर माता से सलाह ले लेते या जाल फैलाते कि वह सरला उनकी बातों में आ जाती और हरेक काम में सहमत हो जाती। बाग को बेचना उसे बहुत बुरा लगता था, लेकिन चारों ने ऐसी माया रची कि वह उसे बेचने पर राजी हो गयी, किन्तु कुमुद के विवाह के विषय में मतैक्य न हो सका। माँ पं. मुरारीलाल पर जमी हुई थी, लड़के दीनदयाल पर अड़े हुए थे। एक दिन आपस में कलह हो गया। फूलमती ने कहा-माँ-बाप की कमाई में बेटी का हिस्सा भी है। तुम्हें सोलह हजार का एक बाग मिला, पच्चीस हजार का एक मकान। बीस हजार नकद में, क्या पाँच हजार भी कुमुद का हिस्सा नहीं है।

कामता ने नम्रता से कहा- अम्मा, कुमुद आपकी लड़की है, तो हमारी बहिन है। आप दो-चार साल में प्रस्थान कर जायेंगी, पर हमारा और उसका बहुत दिनों तक संबंध रहेगा। तब हम यथाशक्ति कोई ऐसी बात न करेंगे, जिससे उसका अमंगल हो, लेकिन हिस्से की बात कहती हो, तो कुमुद का हिस्सा कुछ नहीं। दादा जीवित थे, तब और बात थी। वह उसके विवाह में जितना चाहते, खर्च करते। कोई उनका हाथ न पकड़ सकता था, लेकिन अब तो हमें एक-एक पैसे की किफायत करनी पड़ेगी। जो काम एक हजार में हो जाये, उसके लिए पाँच हजार खर्च करना कहां की बुद्धिमानी है।

उमानाथ ने सुधारा- पाँच हजार क्यों, दस हजार कहिए।

कामता ने भवें सिकोड़ कर कहा- नहीं, मैं पाँच हजार ही करूंगा, एक विवाह में पाँच हजार खर्च करने की हमारी हैसियत नहीं है।

फूलमती ने जिद पकड़कर कहा- विवाह तो मुरारीलाल के पुत्र से ही होगा, पाँच हजार खर्च हो, चाहे दस हजार! मेरे पति की कमाई है। मैंने मर-मरकर जोड़ा है। अपनी इच्छा से खर्च करूँगी। तुम्हीं ने मेरी कोख से नहीं जन्म लिया है। कुमुद भी उसी कोख से आयी है। मेरी आँखों में तुम सब बराबर हो। मैं किसी से कुछ माँगती नहीं। तुम बैठे तमाशा देखो, मैं सब-कुछ कर लूँगी। बीस हजार में पाँच हजार कुमुद का है।

कामतानाथ को अब कड़वे सत्य की शरण लेने के सिवा और मार्ग न रहा। बोला- अम्मा, तुम बरबस बात बढ़ाती हो। जिन रुपयों को तुम अपना समझती हो, वह तुम्हारे नहीं हैं, तुम हमारी अनुमति के बिना उनमें से कुछ नहीं खर्च कर सकती।

फूलमती को जैसे सर्प ने डस लिया- क्या कहा! फिर तो कहना! मैं अपने ही संचे रुपये अपनी इच्छा से नहीं खर्च कर सकती?

‘वह रुपये तुम्हारे नहीं रहे, हमारे हो गये।’

‘तुम्हारे होंगे, लेकिन हमारे मरने के पीछे।’

‘नहीं, दादा के मरते ही हमारे हो गये! ‘

उमानाथ ने बेहयाई से कहा- अम्मा कानून-कायदा तो जानती नहीं, नाहक उछलती हैं।

फूलमती क्रोध-विह्वल होकर बोली- भाड़ में जाये तुम्हारा कानून। मैं ऐसे कानून को वहीं जानती। तुम्हारे दादा ऐसे कोई धन्ना सेठ नहीं थे। मैंने ही पेट और तन काटकर यह गृहस्थी जोड़ी है, नहीं आज बैठने की छाँह न मिलती! मेरे जीते-जी मेरे रुपये नहीं छू सकते। मैंने तीन भाइयों के विवाह में दस-दस हजार खर्च किये हैं। वही मैं कुमुद के विवाह में भी खर्च करूँगी।

कामतानाथ भी गर्म पड़ा- आपको कुछ भी खर्च करने का अधिकार नहीं है।

उमानाथ ने बड़े भाई को डाँटा- आप खामख्वाह अम्मा के मुँह लगते हैं भाई साहब! मुरारीलाल को पत्र लिख दीजिए कि तुम्हारे यहाँ कुमुद का विवाह न होगा। बस, छुट्टी हुई। क़ायदा-कानून तो जानती नहीं, व्यर्थ ही बहस करती हैं।

फूलमती ने संयमित स्वर में कहा- अच्छा, क्या कानून है, जरा मैं भी सुनू। उमा ने निरीह भाव से कहा- कानून यही है कि बाप के मरने के बाद जायदाद बेटों की हो जाती है। माँ का हक केवल रोटी-कपड़े का है।

फूलमती ने तड़प कर पूछा- किसने यह कानून बनाया है?

उमा शांत स्थिर स्वर में बोला- हमारे ऋषियों ने, महाराज मनु ने, और किसने?

फूलमती एक क्षण अवाक् रहकर आहत होकर से बोली- तो इस घर में मैं तुम्हारे टुकड़ों पर पड़ी हुई हूँ?

उमानाथ ने न्यायाधीश की निर्ममता से कहा- तुम जैसा समझो।

फूलमती की सम्पूर्ण आत्मा मानो इस वज्रपात से चीत्कार करने लगी। उसके मुख से जलती हुई चिनगारियों की भांति यह शब्द निकल पड़े-‘मैंने घर बनवाया, मैंने सम्पत्ति जोड़ी, मैंने तुम्हें जन्म दिया, पाला और आज मैं इस घर में गैर हूँ? मनु का यही कानून है और तुम उसी कानून पर चलना चाहते हो? अच्छी बात है। अपना घर-द्वार लो। मुझे तुम्हारी आश्रिता बनकर रहना स्वीकार नहीं। इससे कहीं अच्छा है कि मर जाऊँ। वाह रे अंधेर! मैंने पेड़ लगाया और मैं ही उसकी छाँह में खड़ी नहीं हो सकती, अगर यही कानून है, तो इसमें आग लग जाये।

चारों युवकों पर माता के इस क्रोध और आतंक का कोई असर न हुआ। कानून का फौलादी कवच उनकी रक्षा कर रहा था। इन काँटों का उन पर क्या असर हो सकता था?

जरा देर में फूलमती उठकर चली गयी। आज जीवन में पहली बार उसका वात्सल्य-भग्न-मातृत्व अभिशाप बनकर उसे धिक्कारने लगा। जिस मातृत्व को उसने जीवन की विभूति समझा था, जिसके चरणों पर वह सदैव अपनी समस्त अभिलाषाओं और कामनाओं को अर्पित करके अपने को धन्य मानती थी, वही मातृत्व आज उसे उस अग्निकुंड-सा जान पड़ा, जिसमें उसका जीवन जलकर राख हो रहा था। संध्या हो गयी थी। द्वार पर नीम का पेड़ सिर झुकाए निस्तब्ध खड़ा था, मानो संसार की गति पर क्षुब्ध हो रहा हो। अस्ताचल की ओर प्रकाश और जीवन का देवता फूलमती के मातृत्व ही की भांति अपनी चिता में जल रहा था।